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आसार

कहते हैं मौसमों के बदलने की परिंदों को पहले से ख़बर होती है

आसार
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- अहमद जावेद

कहते हैं मौसमों के बदलने की परिंदों को पहले से ख़बर होती है। उनका बोलना उड़ना फिरना सब बदल जाता है... फिर हर मौसम के अपने परिंदे हैं। जब कोई नया परिंदा नमूदार हो मौसम बदलता है। जब कोई परिंदा बोले और मुसलसल बोलता जाये, जब डरबों में मुर्गियां बदहवास हो हो कर उछल कूद करने लगें...जब जानवर अपने तबेलों मैं बेचैन हो जाएं रस्सा तुड़ाने लगें...कुछ होने वाला होता है।

दिन पर दिन बीतते जाते हैं...जैसे सदियां गुज़र गई हों , कैद का यह मौसम गुज़रता ही नहीं... न हवा चलती है न बारिश बरसती है... आसमान पर फैले हुए गर्द-ओ-गुबार पे सारा दिन बादलों का गुमान ज़रूर रहता है मगर रात हो जाती है कोई परिंदा नए मौसम का संदेसा नहीं लाता... फिर सुबह हुई है... ऊपर हद्द-ए-निगाह तक आसमान गर्द आलूद होता जाता है और नीचे पीली मैल ख़ूर्दा धूप सँवलाती जाती है।

मौसम इसी तरह बदलते हैं, गर्मियों में बरसात इसी तरह होती है, अचानक बादल उमड़ते हैं फिसल जाते हैं, बरस पड़ते हैं। मटियाले बादलों से किरनें छनछन कर आती हैं तो आसमान रंगीन हो जाता है। कौस-ए-कुज़ह पड़ती है... मगर हमेशा यूं कब हुआ है... कभी कभी तो सिर्फ गर्द हवाएं चलती हैं। आंधी की सूरत... या तूफान उठते हैं... मैंने बरसात में छतों को बैठते, दीवारों को गिरते ज़मीन बोस होते भी देखा है।

कहते हैं मौसमों के बदलने की परिंदों को पहले से ख़बर होती है। उनका बोलना उड़ना फिरना सब बदल जाता है... फिर हर मौसम के अपने परिंदे हैं। जब कोई नया परिंदा नमूदार हो मौसम बदलता है।

जब कोई परिंदा बोले और मुसलसल बोलता जाये, जब डरबों में मुर्गियां बदहवास हो हो कर उछल कूद करने लगें...जब जानवर अपने तबेलों मैं बेचैन हो जाएं रस्सा तुड़ाने लगें...कुछ होने वाला होता है।

जब कुछ होता है पहले फ़िज़ा बदलती है। जब परिंदे किसी मुकाम से कूच करने लगते हैं...ज़लज़ला आता है। जब फ़िज़ा में सन्नाटा हो और चारों तरफ चुप हो जाये। हवा पहले सीटियाँ बजाती आती है फिर शोर पड़ता है तूफान उठता है। कोई कोई आदमी पहले से आगाह हो जाता है। बाकी घिर जाते हैं...मैं भी सारे हवासों से काम लेता हूँ मगर मुझे कुछ ख़बर नहीं हुई...मेरे लिए सब अजनबी। सब मौसम, सब परिंदे। इसी लिए तो मेरी इस बेख़बरी को हर रोज़ अख़बार की हाजत होती है।

मुझे सियासत से कुछ दिलचस्पी नहीं और न ही सनसनीखेज़ ख़बरें मेरी तवज्जो खींचती हैं। मुझे क्या कि दुनिया में क्या हो रहा है...अलबत्ता सुबह जब पूरे तौर पर जाग उठता हूँ और काम काज को निकलता हूँ, इक नज़र अख़बार ज़रूर देखता हूँ। मेरे लिए ठहरे हुए, रुके हुए मौसम, दर्जा हरारत की कमी बेशी, आंधीयां, तूफान, बारिश, सैलाब, ज़लज़ले, गलेशियर अंदेशे का डर हैं। बस इसी ख़याल में रहता हूँ और मौसम की ख़बरें पढ़ता हूँ, इस से ज़्यादा मुझे अख़बार से और कुछ काम नहीं होता। चाहे पीछे घर में बच्चे उस के टुकड़े बिखेर कर हवा में उड़ाएं और खेलते फिरें या बीवी पंखा झलती रहे, मुझे कुछ गरज़ नहीं होती।

हॉकर गली में दाख़िल होते ही साईकल की घंटी बजाता है, आवाज़ लगाता है। मगर आज मैं गली में झाँकता भी हूँ तो दूर तक उसकी कुछ ख़बर नहीं।

सुबह फैलती जा रही है...चिड़ियों की चहचाहट में अब कोई सुर ताल नहीं कि वो अलग अलग इधर उधर मुंडेरों पर उड़ने फिरने लगी हैं। दिन अपने आगाज़ पर है, सब जाग उठे हैं। मैं छत पे खड़ा हूँ और धूल उड़ती ऊपर तक आती है कहीं किसी गली में ख़ाकरूब झाड़ू देते हैं...किसी पानी के नल पर आवाज़ों का शोर है। लोग पानी के लिए बदहवास हुए हैं। घरों में बच्चों के जागने और बिलकने की आवाज़ें हैं और माएं उन्हें प्यार से पुचकारती हैं। फकीर सदा करते सुनाई देने लगे हैं। ट्रैफ़िक का शोर आगाज़ हो गया है...दस्तकों से घरों के दरवाज़े खुलने लगे हैं। फिर वही मंज़र, वही आवाज़ें, वही लम्हा ब लम्हा तप्ता जाता दिन।

कितने दिनों से हवा नहीं चली, बारिश नहीं हुई। मुझे इस रुके हुए मौसम से वहशत होती है...मगर अब बादलों के जमा होने पर डर भी लगता है।

हवा अब मुकम्मल तौर पर रुकी हुई है...परिंदों ने दरख़्तों पर बसेरा कर लिया है और अब बहुत चुप हैं गोया सुकून से हों। दरख़्तों पर सूखे हुए साकित पते अपने ही ज़ोर में टप टप ज़मीन पर गिरते जाये हैं हालाँकि कहीं धूप नहीं, बादल बहुत गहरे हो रहे हैं मगर कैद में इज़ाफा हुआ है। मेरा हलक ख़ुश्क हो चुका है, कांटे से चुभते हैं और होंटों पर पपड़ियाँ जम आई हैं। प्यास ने बेहाल कर दिया है... मगर मैं सुनता हूँ कि गलियों में नौ उम्र बच्चों ने ऊधम मचा रखा है कि उन्हें झुके आए बादलों से बारिश की उम्मीद है।

तवक्को रखना चाहिए कि मौसम बदलेगा...मगर मेरे अंदेशे...

मैं हर तरफ देखता हूँ। मिट्टी से लिपि हुई छतों की मुंडेरें और ममटीयाँ...झुके हुए छज्जे, चौबारे और बालकोनियाँ। मस्जिदें गली गली और उनके गुंबद और मीनार और उन पर चहार अतराफ में लगे हुए लाऊड स्पीकर...खंबों की झूलती हुई तारें और तारों पर लटकी हुई बोसीदा पतंगें और मुर्दा कव्वे...गलियाँ और बाज़ार...कारख़ानों की चिमनियां और उन से निकलता हुआ धुआँ। हुजूम दर हुजूम मज़दूरों की टोलियां...काम काज को निकले हुए आदमी, बच्चे स्कूलों को जाते हुए और अपने अपने धंदे पर भिकारी, लंगड़े लूले, अपाहिज, पुकारते, भीख के कटोरे बजाते। धुआँ देती बसें, रिक्शे, साईकलें, टैक्सीयाँ और चरचराते हुए ताँगे।

मेरे सामने एक ज़ेर-ए-तामीर इमारत के मज़दूरों ने कमीज़ उतार दी हैं कि गर्मी बहुत है। सब्ज़ी ढोने वालों के साँवले चेहरे कुछ और सँवला गए हैं, माथे का पसीना आँखों में और कलाइयों का कोहनियों से होता ज़मीन पर गिरता है। बाबूओं की कमीज़ें पुश्त पर दरमियान से भीग रही हैं और इर्दगिर्द सूखे हुए पसीने की पीलाहटें हैं। जो नंगे सर हैं वो तो अज़ाब में हैं। जिन्हें छतरियां भी मयस्सर हैं वो भी कलाइयों से पसीना पोंछते हैं। घरों में सौदा सुल्फ लेने निकली हुई औरतें दुकानों के छज्जों तले बच्चों को दुपट्टों के पल्लू झलती हैं। तांगों की घोड़ियां हाँफती हैं और गाय भैंसों को हांकते ग्वाले नहरों और नालों की सिम्त जाते दिखाई देते हैं। पानी फरोख़्त हो रहा है। आसमान के किनारों पे बादल कहीं भूरे, कहीं सुर्ख़ और कहीं ज़रदी माइल हैं मगर आम तौर पर रंग मटियाला है...दरमियान में अलबत्ता जिस तरह स्याह बादल इक_े होते जाते हैं, उस से फ़िज़ा बोझल हो रही है।

मैं देखता जाता हूँ और बादल गहरे होते जाते हैं। चारों तरफ अंधेरा सा है कि बढ़ा आता है, यूं कि जैसे जाड़े की शाम हो, बादल इतना झुक आए हैं कि उनका बरसना लाजि़म ठहर गया है। मैं महसूस कर सकता हूँ कि अगर ये झुके हुए लदे हुए बादल बरसे तो कितना बरसेंगे, जल-थल हो जाएगा, फिर ठंडी ख़ुन्क हवा चली तो शायद इक ज़रा सी कपकपाहट भी हो कि सावन में किसी किसी रोज़ ऐसा भी होता है। मैं सोचता जाता हूँ और इक्का दुक्का बूँद पड़ना शुरू होती है। बस वैसे ही बड़े बड़े कतरे जैसे बरसात में पड़ते हैं। उधर उधर ज़ोरज़ोर से टप टप करते आते हैं और मीनाकारी करते जाते हैं। यकलख़्त समां बदलने लगा है।

हवा तो अभी चलना शुरू नहीं हुई। मगर ख़ुन्की सी होती जाती है। तब्दीली का एहसास फैलता जा रहा है, कैद टूट रही है...जैसी इस मौसम में गर्मी पड़ी थी, अब वैसी ही शिद्दत नए मौसम में ज़ाहिर होना है। मैं सुन रहा हूँ लोग एक दूसरे को पुकारते ख़बरदार करते हैं। ऐसी चीज़ें जो भीग कर ख़राब या तबाह होने वाली हों, उठाने, खींचने, घसीटने साएबानों तले डालने की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं। गोया मौसम बदलने का यकीन होता जाता है। बिलआख़िर ऐसा होना था।

मौसमों को तो बदलना ही होता है। मगर जब कोई रुत तूल पकड़ जाये तो बस यूंही बे यकीनी सी होने लगती है जैसे सब कुछ ठहर गया हो और कभी नहीं बदलेगा।

मौसम बदल रहा है बारिश होने लगी है दूर से हवा सीटियाँ बजाती आती सुनाई देने लगी है। वहां से उठता इक शोर करीब बढ़ता आ रहा है जहां बादल ज़्यादा झुके हुए हैं। किवाड़ बजने लगे हैं। खिड़कियाँ, दरवाज़े, साइनबोर्ड खड़खड़ाते हैं। टहनियों के टूटने, दरख़्तों के गिरने जड़ों से उखड़ने की आवाज़ें हैं मकानों की मुंडेरें और ममटीयाँ हवा की फेर में आगई हैं। देखते ही देखते तूफान में शिद्दत आती जा रही है। हवा के झक्कड़ ज़ोरों पे हैं, कुछ गिरने टूटने मुनहदिम होने की आवाज़ें हैं। कुछ देर तो बच्चों का ऊधम सुनाई दिया था अब चीख़-ओ-पुकार है और चीख़-ओ-पुकार है बारिश की तेज़ बोछाड़ की जो टीन के दरवाज़ों पर गोलीयों की बोछाड़ की तरह पड़ती है। सावन आगाज़ होता है मगर आदमी बदहवास हो गए हैं सब जा-ए-अमाँ की तलाश में हैं। ये दफ़्अतन क्या होने लगा है।

ये कैसी बरसात हुई है कि पल दो पल में जल-थल हो गया है। गलियाँ पानी से भर गई हैं जो बोसीदा थीं वो दीवारें तो हवा अपने ज़ोर पर ज़मीन बोस कर गई है। बाकी बारिश की ज़द में हैं। पलस्तर उखड़ रहा है। मिट्टी गारा बह रहा है...जैसे सीमेंट तो कहीं था ही नहीं...पुख़्ता इमारतें भी अब तो रेत के घरोंदों की तरह चुप चाप बैठती जा रही हैं। मैं देख रहा हूँ एक सिम्त से दूसरी सिम्त तक मंज़र बदल गया है। मकान गिर गए हैं। मस्जिदों के मीनार शहीद हो गए हैं। बिजली के खम्बे इधर उधर ज़मीन पर झुक आए हैं। अभी कुछ देर पहले ही तो हब्स था और अब पानी है कि सबको बहाए लिए जाता है, दरिया भी जोश में किनारे तोड़ आया है और अब गलियों में ठाठें मारता है...शहर का शहर पानी की लहरों पे तैरता डोलता तेज़ी से किसी अंजानी मंजि़ल की तरफ बहता चला जा रहा है। मैं मबहूत हूँ कि एक ही पल में ये क्या हो गया है।

हिरासाँ-ओ-परेशां इधर उधर दीवारों से टकराता बिलआख़िर सीढ़ियों की तरफ जाता हूँ। सेहन में आता हूँ गली में निकलता हूँ। गली में हॉकर की साईकल आंधी और तूफान की तरह आती है, वो पल भर को मेरे पास रुकता है और फिर अख़बार उछालता आवाज़ लगाता गुज़रता चला जाता है। उसकी आवाज़ चारों तरफ फैलती है। उम्मीद रखना चाहिए कि मौसम बदलेगा कि कुछ आसार भी हैं। मैं आसमान की तरफ देखता हूँ और फिर इधर उधर लोगों को लेकिन लोग अपने अपने काम में लगे हैं। पसीना बह रहा है मगर सर नहीं उठाते...


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