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मुहम्मद रफी (हमारे अब्बा-कुछ यादें)-यासमीन ख़ालिद रफी

मुहम्मद रफी बीसवीं सदी के फिल्म जगत के बेहतरीन पार्श्व गायक थे। उनकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है

मुहम्मद रफी (हमारे अब्बा-कुछ यादें)-यासमीन ख़ालिद रफी
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  • अजय चंद्रवंशी

पुस्तक-मुहम्मद रफी [हमारे अब्बा -कुछ यादें(2012)

लेखिका-यासमीन ख़ालिद रफी

प्रकाशक- यात्रा बुक्स, दिल्ली

मुहम्मद रफी बीसवीं सदी के फिल्म जगत के बेहतरीन पार्श्व गायक थे। उनकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है। एक बात उनसे जुड़े लगभग सभी व्यक्तियों ने कही है कि वे अत्यंत सरल और नेकदिल व्यक्ति थे।

रफी साहब के व्यक्तित्व और गायकी पर प्रचुर सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है। कई किताबें और आलेख हैं। यासमीन ख़ालिद रफी की पुस्तक 'मुहम्मद रफी' इस मायने मे विशिष्ट है कि वे रफी साहब की बहू हैं। रफी साहब के बेटे ख़ालिद से उनका विवाह 1971 मे हुआ था। पुस्तक मे एक दशक (1971-80) के उनके संस्मरण हैं। ज़ाहिर है केंद्र मे मुहम्मद रफी हैं। चुंकि ख़ालिद-यासमीन इंग्लैंण्ड मे रहते थे, फिर पाँच वर्ष के लिए बम्बई आएं और फिर इंग्लैंण्ड चले गए इसलिए संस्मरण मुख्यत: इन जगहों पर केंद्रित है।

यासमीन जी लड़कपन से ही रफी साहब के गायकी के प्रशंसक रही हैं इसलिए रफी परिवार से जुड़ना उनके लिए एक स्वप्न पूरा होने जैसा था। अब वे अपने फेवरेट गायक को बहुत करीब से देख-समझ सकती थी। किताब में पारिवारिक जीवन के चित्र उकेरे गए हैं जिनमे रफी साहब के पारिवारिक प्रेम, समर्पण, जिम्मेदारी,दरियादिली के कई प्रसंग हैं। किताब को पढ़ने से बार-बार एहसास होता है कि वे अपने व्यावसायिक जीवन को पारिवारिक जीवन से दूर रखते थे। फिल्मी पार्टियों, चकाचौंध से वे लगभग दूर रहते थे। खाने के बेहद शौ$कीन रफी साहब को कार का भी बेहद शौक था। उनकी मसालेदार स्पेशल चाय का जिक्र यहाँ भी है।

किताब में एक अध्याय रफी साहब के प्रारम्भिक जीवन और गायकी के संघर्ष पर है। उनका जन्म 24 दिसंबर 1924 को अमृतसर के पास एक छोटे से गाँव कोटला सुल्तान मे हुआ था। जब वे नौ वर्ष के थे उनका परिवार लाहौर आ गया। उनकी रूचि शुरू से गायकी में थी जबकि परिवार मे ऐसा कोई माहौल नहीं था। जब वे दस वर्ष के थे उन्हें अपने मुहल्ले के एक $फकीर की आवाज़ इतनी भाती थी कि वो उसकी गायी $गज़ल को सुनने के लिए उसके पीछे-पीछे चलते थे। और सुनने के बाद ख़ुद भी वही $गज़ल गाने लगते। उस $गज़ल के बोल थे, खेलन दे दिन चार... (खेल और मस्ती के चार दिन)। उनके गाने को सुनकर, और उनकी लगन और शौक को देखकर $फकीर उन्हें बहुत दुआएं देता था।

रफी साहब को गाने का पहला मौका संगीतकार श्याम सुंदर ने पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' (1941) मे दिया। गीत के बोल थे 'सोणिये नी हिरिये नी तेरी याद ने सताया..।' यह गीत लाहौर में रिकार्ड किया गया था। गीत चर्चित हुआ। वे 1942 में बेहतर काम की तलाश में मुंबई आ गए।

उन्हें गाने का दूसरा मौका भी संगीतकार श्याम सुंदर ने फिल्म 'गाँव की गोरी' (1945) मे दिया। गीत के बोल थे 'अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी तैसी..'। यह उनका पहला हिंदी गीत था जो उन्होंने गायक एम. जे. दुर्रानी और साथियों के साथ गाया था।

नौशाद ने उन्हें पहला मौका एक कोरस में गाने को दिया। फिल्म थी 'पहले आप' (1944) गीत के बोल थे। 'हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा..।' दरअसल रफी साहब नौशाद के पास उनके पिता वाहिद अली की लिखी सिफारिशी चि_ी लेकर आए थे।

रफी साहब की दिली इच्छा के. एल. सहगल के साथ गाने की थी। यह मौका उन्हें नौशाद ने दिया। फिल्म 'शाहजहां' (1946) में सहगल का एक गीत है 'मेरे सपनो की रानी रूही रूही..' इसमें आखिर मे एक लाइन रफी साहब की आवाज़ में है।

1947 मे आजादी के जश्न मे अन्य कई अन्य कलाकारों के साथ उन्हें भी पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने गाने का मौका मिला। उन्हें केवल तीन मिनट का समय दिया गया था। उन्होंने 'लहराओ तिरंगा लहराओ...' गाना गाया। यह इतना पसंद किया गया कि बाद में बीस-पच्चीस मिनट तक उन्हें लोग सुनते रहे।

आगे के तीन दशकों मे उन्होंने छोटे-बड़े सभी संगीतकारों के साथ काम किया और लगभग सभी अभिनेताओं को अपनी आवाज़ दी। दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत, जॉनी वाकर जैसे अभिनेताओं की तो मानो वे आवाज़ बन गए थे।

गायकी के लिए उन्हें छह फिल्म$फेयर अवार्ड मिले। 1967 में भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के हाथों उन्हें पदमश्री से भी सम्मानित किया गया।

किताब में रफी साहब से सम्बन्धित एक दो विवाद का जिक्र भी है। अपने शुरुवाती दौर मे खय्याम साहब उनके साथ 'खय्याम नाइट' करना चाहते थे मगर रफी साहब ने अपने अनुभव से उन्हें समझाइस दी कि पहले अपना काम और नाम बढ़ा लो फिर नाइट करेंगे तो बेहतर होगा। यह बात उन्हें बुरी लगी लम्बे समय तक उनके साथ काम नहीं किया। बाद में रफी साहब ने उनके लिए गाया।

इसी तरह एक समय कल्याणजी भाई ने भी रफी साहब से नाइट करने की गुजारिश की। उन्होंने व्यस्तता की वज़ह से लता जी के साथ करने की सलाह दी। इस पर कल्याणजी बुरा मान गए थे मगर कुछ अर्से मे उनकी नाराजगी दूर हो गई।

सत्तर के दशक मे किशोर कुमार जी के उभार के बावजूद रफी साहब के कैरियर मे कोई खास बदलाव नहीं आया। यद्यपि वे अपने निजी कारणों से जरूर कुछ समय तक गायकी से दूर रहने का प्रयास करते रहें मगर यह ज्यादा समय तक नहीं रहा। उस दशक मे भी हीर रांझा (1970), खिलौना (1970), इश्क पर ज़ोर नहीं (1970),गोपी (1970), दस्तक (1970), गैम्बलर (1970), कारवां (1971),मेला (1971), दास्तान (1972), और रूप तेरा मस्ताना (1972) फिर 1973 में अभिमान, हंसते ज़ख़्म, लो$फर, यादों की बारात के गानों ने तो धूम ही मचा दी। यहां तक कि राजेश खन्नाके सुपर स्टारडम में भी रफी साहब ने कई फिल्मों में उन्हें अपनी आवाज़ दी। इसी तरह समझौता (1973), प्रतिज्ञा (1975), लैला-मजनूं (1976), अमर अकबर एंथोनी (1977), धर्मवीर (1977), हम किसी से कम नहीं(!1977), सरगम (1979), आशा (1980), अब्दुल्ला (1980) में उनके गाये गीत लोकप्रिय हुए।

राहुल देव बर्मन (आर. डी.) के पसंदीदा गायक किशोर कुमार थे, मगर उन्होंने भी समय-समय पर उनसे महत्वपूर्ण गीत गवायें है। उन्होंने आर.डी. बर्मन के साथ तीसरी मंजि़ल, बहारों के सपने, प्यार का मौसम,द ट्रेन, कारवां, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं,और शान जैसी फिल्मों में भी गाने गाए। शान के एक गीत यम्मा यम्मा यम्मा यम्मा, ये ख़ूबसूरत समां (गीतकार आनंद बख़्शी, 1980)में आर डी बर्मन ने भी रफी साहब के साथ गाया था।

पुस्तक में कुछ मार्मिक प्रसंग भी हैं। एक तो रफी साहब के निधन का। एक अन्य जगह लेखिका जिक्र करती हैं कि इंदौर मे एक मस्जिद निर्माण के लिए चंदा इक_ा किया जा रहा था। रफी साहब ने भी पाँच हजार दिए। मगर बाद में राशि यह कहकर लौटा दी गई कि उनकी कमाई जायज नहीं है। उनकी आँखों मे आँसु आ गए।

फिल्म 'नीलकमल' (1968) का गीत 'बाबुल की दुआएं लेती जा' अत्यंत मार्मिक है। रफी साहब ने इसे भाव विभोर होकर गाया है।दरअसल उसी समय उनकी बेटी परवीन की शादी होने वाली थी, जिसका ख्याल इस गीत में घुल-मिल गया है।

1976 मे जब गायक मुकेश का हार्ट अटेक से निधन हुआ तो उनकी तबियत ठीक नहीं थी, वे हॉस्पिटल मे एडमिट थे। लोग जाने से मना कर रहे थे। लेकिन उनका दिल नहीं माना और अंतत: उनकी अंतिम विदाई में गए।

1961 मे उन्होने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए एक गीत गाया 'तेरे प्यार ने मुझे $गम दिया, तेरे $गम की उम्र दराज़ हो (फिल्म छैला बाबू, गीतकार असद भोपाली)। फिल्म निर्माता चाहते थे कि यह गीत रफी साहब गाए, मगर उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। यह बात जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने उन्हें बतायी तो उन्होंने बिना किसी शर्त के $गज़ल गा दी। रिकार्डिंग के बाद जब निर्माता ने झिझकते हुए एक हजार रुपए दिए तो उन्होंने ख़ामोशी से उसे ले. लिया फिर उसे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को देकर कहा जाओ तुम दोनों इसकी मिठाई खरीदकर खा लेना।

किताब में उनकी संगीत यात्रा की केवल झांकी है। किताब का मुख्य विषयवस्तु यासमीन जी का संस्मरण है जो मुख्यत: एक दशक, जो रफी साहब के जीवन का आखिरी दशक है, से संबंधित है। ज़ाहिर है इसमें यासमीन जी और रफी परिवार के बारे मे बहुत कुछ जानने को मिलता है। यह किताब को इसी दृष्टि से पढ़ी जानी चाहिए।


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