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आपातकाल में लोकसभा

आपातकाल को लेकर तरह-तरह के विचार सामने आते रहते हैं। हर राजनीतिक दल अपनी राजनीति के अनुसार आपातकाल जैसे मुद्दे पर अपना राजनीतिक व्यवहार तय करता है

आपातकाल में लोकसभा
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- रोहित कौशिक

आपातकाल को लेकर तरह-तरह के विचार सामने आते रहते हैं। हर राजनीतिक दल अपनी राजनीति के अनुसार आपातकाल जैसे मुद्दे पर अपना राजनीतिक व्यवहार तय करता है। सवाल यह है कि क्या इतने वर्षों बाद भी हम आपातकाल लगाने के उद्देश्य और आपातकाल की विसंगतियों को ठीक तरह से समझ पाए हैं ? क्या पक्ष और विपक्ष की दोनों ही धाराएं पूर्वाग्रह के बिना आपातकाल का विश्लेषण कर पाई हैं ? हाल ही में प्रकाशित प्रतिष्ठित इतिहासकार राजगोपाल सिंह वर्मा की पुस्तक '...ताकि सनद रहे: आपातकाल में लोकसभाÓइस मुद्दे पर पाठकों की सहायता कर सकती है। इस पुस्तक में राजगोपाल सिंह वर्मा ने आपातकाल के दौरान लोकसभा में हुई बहस को प्रस्तुत किया है। आपातकाल की 21 महीने की अवधि में लोकसभा में इस मुद्दे पर हुई चर्चा को पढ़कर आपातकाल पर उस दौर के राजनेताओं के विचारों का पता तो चलता ही है, उस समय देश के हालात की जानकारी भी मिलती है। इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि इसमें फुटनोट के तौर पर राजनेताओं का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है।

26 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू होने के बाद लोकसभा का पहला सत्र 21 जुलाई 1975 को बुलाया गया था। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की थी। देश में करीब 21 महीने तक आपातकाल रहा था जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म कर दिए गए थे। विपक्ष के नेताओं के अलावा हजारों लोग जेल में डाल दिए गए थे। हालांकि आपातकाल को लेकर इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी कई बार माफी मांग चुके हैं। इंदिरा गांधी के अलावा राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी आपातकाल के लिए माफी मांग चुके हैं। आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा था। इसलिए आपातकाल की सजा कांग्रेस को मिल चुकी है। निश्चित रूप से आपातकाल भारतीय लोकतंत्र पर एक बहुत बड़ा कलंक है। आपातकाल का किसी भी तरह से समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन अनेक लोग यह मानते थे कि आपातकाल में लोग अपने काम के प्रति गंभीर हो गए थे। सरकारी कार्यालयों में भी समय से सब काम होने लगे थे। विनाबा भावे ने तो आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा था। इसलिए आपातकाल के बारे में सिर्फ एक दृष्टिकोण से नहीं सोचा जा सकता।

आपातकाल के दौरान लोकसभा में हुई बहस से यह स्पष्ट होता है कि एक पक्ष आपातकाल का समर्थन कर रहा था तथा दूसरा पक्ष आपातकाल के विरोध में था। एक पक्ष का मानना था कि आपातकाल समय से उठाया गया कदम है। यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस कदम को न उठाया होता तो देश में एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो जाती। जो लोग इंदिरा गांधी और कांग्रेस के प्रति दुर्भावना रखते हैं उन्होंने देश में अव्यवस्था और अराजकता फैलाने की योजना बनाई हुई थी। उन्होने इंदिरा गांधी को अपना लक्ष्य बनाया हुआ था क्योंकि उन्होंने देश का स्तर ऊंचा उठाया हुआ था और कई मजबूत तथा प्रगतिशील कदम उठाए थे जिन्हें कुछ तत्व पसन्द नहीं करते थे। इस पक्ष का मानना था कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने और मजबूत बनाए रखने के साथ-साथ देश की चारों दिशाओं में प्रगति सुनिश्चित करने का प्रयास किया है।

दूसरे पक्ष का मानना था कि सरकार ने आपातकाल इसलिए लगाया है क्योंकि शासक दल की जमीन खिसक रही थी और वह सत्ता खो सकता था। कांग्रेस लोगों की मूलभूत समस्याओं को हल करने में असफल रही है और वह जानती थी कि लोग उससे प्रसन्न नहीं हैं। शासक वर्ग को यह स्पष्ट हो गया था कि वे लोगों को लंबे समय तक मूर्ख नहीं बना सकते। सरकार ने एक बार फिर से लोगों को दिग्भ्रमित करने के लिए आपातकाल लगाया। इस पक्ष का मानना था कि विपक्ष और सत्ताधारी पार्टी के लोग अपने विचारों को खुलकर व्यक्त करने के लिए मुक्त नहीं हैं। ऐसी अवस्था में देश में लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं बना रह सकता। भारतीय लोकतंत्र और इतिहास में आपातकाल एक काला अध्याय है। आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा उठाए गए कदम जनता विरोधी हैं। इस तरह आपातकाल के दौरान लोकसभा में दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात रख रहे थे। हालांकि आपातकाल संवैधानिक था लेकिन इस संवैधानिक कदम ने लोकतंत्र को कमजोर किया। ऐसे कदम आम आदमी के लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म करते हैं। राजगोपाल सिंह वर्मा ने इस पुस्तक के माध्यम से आपातकाल के दौरान लोकसभा की बहस प्रस्तुत कर पाठकों को यह मौका दिया है कि वे इस मुद्दे पर सभी पक्षों से भलीभांति परिचित हो सकें। आपातकाल के दौरान लोकसभा में हुई इस बहस को पढ़कर स्पष्ट रूप से यह पता चलता है कि इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष ने किस तरह व्यापक चर्चा की थी। बड़ी बात यह है कि राजगोपाल सिंह वर्मा ने बड़े ही बड़े ही श्रम और गंभीरता से इस बहस को प्रस्तुत किया है।


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