Top
Begin typing your search above and press return to search.

कन्हैया लाल कपूर : उर्दू व्यंग्य लेखन के कुतुबमीनार

उर्दू अदब में कन्हैया लाल कपूर की शिनाख़्त हास्य और व्यंग्य के बेजोड़ लेखक के तौर पर है।

कन्हैया लाल कपूर : उर्दू व्यंग्य लेखन के कुतुबमीनार
X

संदर्भ : 27 जून, हास्य और व्यंग्य लेखक कन्हैया लाल कपूर का जन्मदिवस

— ज़ाहिद ख़ान

उर्दू अदब में कन्हैया लाल कपूर की शिनाख़्त हास्य और व्यंग्य के बेजोड़ लेखक के तौर पर है। जिन्होंने उर्दू हास्य और व्यंग्य लेखन को नई दिशा प्रदान की। अपने व्यंग्य लेखन से उर्दू अदब को आबाद किया। उर्दू ही उनका ओढ़ना-बिछौना थी। इस ज़बान से उन्हें दीवानों की तरह मुहब्बत थी। अंग्रेज़ी ज़बान के प्रो$फेसर होने के बाद भी उन्होंने अपना सारा लेखन उर्दू में ही किया। और उर्दू अदब में अपनी एक अलग पहचान बनाई। 27 जून, 1910 को अविभाजित भारत के लायलपुर जिले के एक छोटे-से गाँव में हुई। कन्हैया लाल कपूर की आला तालीम लाहौर में हुई। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से उन्होंने इंग्लिश लिटरेचर में एम.ए का इम्तिहान पास किया। गवर्नमेंट कॉलेज में उर्दू अदब के एक और बड़े तंज-ओ-मिज़ाह निगार सैयद अहमद शाह उ$र्फ पतरस बुख़ारी कपूर के उस्ताद थे। न सि$र्फ वे तालीम में कन्हैया लाल कपूर के उस्ताद थे, बल्कि अदब के मैदान में भी उन्होंने हमेशा उनकी रहनुमाई की। पतरस बुख़ारी ने कपूर की हौसला—अफज़ाई करते हुए, उन्हें हास्य और व्यंग्य लेखन करने की सलाह दी। अपने एक लेख 'पीर-ओ-मुर्शिद' में कन्हैया लाल कपूर ने ख़ुद यह बात तस्लीम की है कि ''मैंने अपने उस्ताद प्रोफेसर पतरस बुख़ारी से हर रिवायती चीज़ और हर बेढंगे शख़्स का मज़ाक उड़ाना सीखा।'' अपनी तालीम मुकम्मल करने के बाद कन्हैया लाल कपूर लाहौर के डीएवी कॉलेज में ही पढ़ाने लगे। मिज़ार् अदीब, पतरस बुख़ारी, कृश्न चंदर, उपेन्द्रनाथ अश्क, गोपाल मित्तल, ​िफक्र तौंसवी और राजा मेहदी अली ख़ाँ उनके ख़ास दोस्त थे। इनके साथ आए दिन उनकी मह$िफलें जमती थीं। जहॉं सियासत से लेकर अदब पर बहसें होतीं। इंग्लिश लिटरेचर पढ़ने-पढ़ाने के दौरान कन्हैया लाल कपूर अंग्रेज़ी के हास्य और व्यंग्य साहित्य से अच्छी तरह वा​िकफ हो गए। उनका रुजहान भी हास्य और व्यंग्य लेखन की ओर हो गया।

कन्हैया लाल कपूर का पहला व्यंग्य लेख 'ख़फकान' मशहूर अ$फसाना निगार कृश्न चंदर के अफसाने 'यरकान' की पैरोडी था। कृश्न चंदर ने जब इसे पढ़ा, तो उन्होंने भी इस लेख की तारीफ की। वे कपूर की चुटीली लाइनों और उनकी लेखन शैली से बेहद मुतास्सिर हुए। और उन्होंने भी कपूर को हास्य-व्यंग्य लेखन जारी रखने की सलाह दी। ज़ाहिर है पतरस बुख़ारी और कृश्न चंदर जैसे आला अदीबों की हौसला—अफज़ाई से कन्हैया लाल कपूर ने अपने लेखन को और सँवारा। उनका अगला व्यंग्य लेख 'अख़बार बीनी' और उसके बाद 'चीनी शायरी' था, जो उस दौर में लाहौर से निकलने वाली मशहूर मैगजीन 'अदब-ए-लतीफ' के साल-नामे (साल-1938) में छपा। साहित्यिक आलोचकों पर यह एक मज़ेदार व्यंग्य था। जिसकी चारों और ख़ूब तारीफ हुई। इस व्यंग्य लेख में कन्हैया लाल कपूर ने साहित्यिक आलोचकों को अपना निशाना बनाया था। ख़ास तौर पर उन आलोचकों को जो साहित्य और उसके सिद्धांतों के बारे में बहुत कम जानते हैं, लेकिन सब कुछ जानने-समझने का दिखावा और दावा करते हैं। 'गालिब तरक़्की-पसंद शुअरा की मजलिस में' यह वह व्यंग्य था, जिसने कन्हैया लाल कपूर को पूरे मुल्क में शोहरत दिलाई। यह व्यंग्य साल 1942 में 'अदबी दुनिया' के एक शुमारे में छपा। तब से लेकर अब तक यह कई मर्तबा अलग-अलग अख़बार, मैगज़ीन और हास्य-व्यंग्य संकलनों में प्रकाशित हो चुका है। जब भी यह छपता है, पाठक इसे पसंद करते हैं।

बंटवारे के बाद, कन्हैया लाल कपूर पंजाब के भारतीय हिस्से में चले आए और मोगा में बस गए। यहाँ उन्हें डीएम कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई और यहीं से वे प्रिंसिपल के ओहदे से रिटायर हुए। कन्हैया लाल कपूर अपनी जि़ंदगी के आख़िरी समय जालंधर और महाराष्ट्र के पुणे में रहे। कन्हैया लाल कपूर को पैरोडी लिखने में महारत हासिल थी। उनकी मशहूर पैरोडी में 'सलीम और अनारकलीÓ, 'जाना हातिमताई का', 'मीर की शायरी का नफ़्िसयाती तज्जिया', 'तरक्की-पसंद गालिब', 'गालिब के दो सवाल', '$गालिब के उड़ेंगे पुर्जे़' शामिल हैं। इन पैरोडी में उन्होंने उर्दू के अदीबों, साहित्यिक विषयों और प्रवृत्तियों पर व्यंग्य किया है। 'उर्दू अदब का आख़िरी दौर' मुहम्मद हुसैन आज़ाद की मशहूर रचना 'आब-ए-हयात' की पैरोडी है। अपने ज़माने में कन्हैया लाल कपूर किसी को भी ख़ातिर में नहीं लाते थे। कृश्न चंदर ने कन्हैया लाल कपूर की इसी आदत के बारे में एक जगह लिखा है, ''कन्हैया लाल कपूर हर उस चीज़ का मज़ाक उड़ाता है, जो ज़मीन के ऊपर और आसमान के नीचे है।ÓÓ लेखन के अलावा कन्हैया लाल कपूर का कद हमेशा चर्चा का मौज़ूअ रहा और इस पर कई लतीफे गढ़े गए। वे साढ़े छह फुट लंबे थे। उनसे मुताल्लिक एक ​िकस्सा बहुत मशहूर है। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में जब वे एमए (अंग्रेजी) पाठ्यक्रम में दाख़िले के लिए इंटरव्यू देने पहुँचे, तो इंटरव्यू पैनल के मेम्बर पतरस बुख़ारी ने कपूर से मज़ाक में पूछा, ''आप हमेशा इतने लम्बे नज़र आते हैं या आज ख़ास बंदोबस्त करके आए हैं ? '' कन्हैया लाल कपूर की शुरुआत में जो भी किताबें आयीं, उनमें एक स्व-परिचयात्मक नोट होता था, जिसमें वे अपना ही मज़ाक उड़ाते थे। ''नाम-कन्हैया लाल कपूर। मगर बहुत कम साथी मुझे नाम की वजह से जानते हैं ! कद : छ: फीट....। अहल-ए-ज़बान सा दिल-ओ-दिमाग तो नहीं, अलबत्ता जिस्म ज़रूर रखता हूँ।'

बंटवारे ने कन्हैया लाल कपूर और उनके लेखन को बेहद मुतास्सिर किया। उनके लेखन में व्यंग्य की धार और भी ज़्यादा बढ़ गई। अपने व्यंग्य से ख़ास तौर पर उन्होंने सियासत को निशाना बनाया। समाज में जो आर्थिक, सामाजिक विसंगतियाँ हैं उन पर वार किया। कन्हैया लाल कपूर का यह अंदाज़ पाठकों को ख़ूब पसंद आया। वे उनके व्यंग्य और किताबों का इंतज़ार करते थे। 'बंदा परवर ! कब तलक', 'चौपट राजा', 'नया शिकंजा', 'कामरेड शेख़ चिल्ली', 'इन्कम टैक्स वाले', 'गरीबी का अंत', 'पाँच प्रकार के बेहूदा पति', 'देसी फिरंगी का दरबार', 'विद्वानों से मुलाकात', 'चंद मकबूल आम ​िफल्मी सीन' और 'हमने अपना भारतीयकरण किया' उनके मकबूल व्यंग्य हैं। कन्हैया लाल कपूर ने अख़बारों और मैगज़ीनों में कॉलम भी लिखे और इन कॉलम में आम अवाम की समस्याओं को पुर-ज़ोर तरीके से उठाया। 'हिन्द समाचार' में प्रकाशित उनका कॉलम 'मैं देखता चला गया' ख़ूब चर्चा में रहा। इस कॉलम में वे आम इंसानी मसलों को हल्के-फुल्के अंदाज़ में उठाकर, लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचते थे। कन्हैया लाल कपूर के व्यंग्य बड़े दिलचस्प और मज़ेदार होते थे। पहले ही जुमले से वे पाठकों को अपने लेखन से बांध लेते थे। यकीन न हो, तो उनके व्यंग्य 'आज़ादी की कसम' की इब्तिदा पर एक नज़र डालिये, ''मैं तिरंगे की कसम खाता हूँ कि बापू के बलिदान को कभी नहीं भूलूँगा, लेकिन बापू के बताए हुए उसूलों पर कभी अमल नहीं करूँगा।''

धार्मिक अंधविश्वास एवं कर्मकांड, सामाजिक रूढ़ियों और मज़हबी कट्टरता पर भी कन्हैया लाल कपूर ने तीख़े वार किए। अपने एक व्यंग्य 'तआरुफ' में वे लिखते हैं, ''मज़हब बेवकूफों के लिए है। क्योंकि किसी भी मज़हब में कोई ऐसी बात नहीं बतायी जाती, जिसे एक बुद्धिमान आदमी पहले से नहीं जानता हो। इसलिए बुद्धिमानी मज़हब की मोहताज कभी नहीं रही है। हाँ, बेवकूफों को मज़हब के माध्यम से बड़ी कामयाबी से फाँसा जा सकता है।'' कन्हैया लाल कपूर उर्दू ज़बान के दिल-दादा थे। उर्दू की जब भी बात आती, वे जज़्बाती हो जाते। अपने व्यंग्य 'बृज बानो' में उन्होंने उर्दू ज़बान की पुर—ज़ोर हिमायत की है। यह व्यंग्य इतना शानदार है कि आख़िर तक आते-आते पाठकों को मुतास्सिर कर लेता है। कन्हैया लाल कपूर अपनी दलीलों से सभी को कायल कर लेते हैं। साल 1942 में कन्हैया लाल कपूर की पहली किताब 'संग-ओ-ख़िश्त' प्रकाशित हुई, जो बेहद पसंद की गई। 'चंग-ओ-रुबाब' (साल-1944), 'शीशा-ओ-तीशा' (साल-1944), 'नोक-ओ-नश्तर' (साल-1949), 'बाल-ओ-पर' (साल-1953), 'गर्द-ए-कारवाँ'(साल-1960), 'दलील-ए-सहर' (साल-1966) और 'कॉमरेड शेख़ चिल्ली' कन्हैया लाल कपूर की अहम किताबें हैं। इसके अलावा उनकी सभी रचनाएँ 'कुल्लियात-ए-कपूर' में एक जगह संकलित हैं। मशहूर नक़्काद और इतिहासकार नूरुल हसन नकवी ने कन्हैया लाल कपूर के बारे में लिखा है, ''उनमें एक मजबूत कलात्मक चेतना थी और वे अच्छी तरह जानते थे कि उच्च स्तरीय साहित्य का सृजन कैसे होता है।'' ज़ाहिर है कि यही वह कलात्मक चेतना थी, जिससे कन्हैया लाल कपूर ने उर्दू अदब में हास्य और व्यंग्य की कई शाहकार रचनाएँ दीं। अपनी व्यंग्य रचनाओं से उन्होंने न सिर्फ पाठकों का मनोरंजन किया, बल्कि उन्हें अप्रत्यक्ष तौर पर शिक्षित भी किया। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक किया। उन्हें चेतना संपन्न बनाया। उर्दू अदब में कन्हैया लाल कपूर के योगदान का विश्लेषण करते हुए मशहूर हास्य और व्यंग्य लेखक मुज्तबा हुसैन ने लिखा है, ''कपूर साहिब ने उर्दू तंज़-ओ-मिज़ाह को क्या दिया है, इसका हिसाब-किताब तो आलोचक करते रहेंगे। यहाँ में सिर्फ इतना कहूँगा कि जब हिन्दुस्तान की बहुत-सी ज़बानों में आधुनिक राजनीतिक व्यंग्य की नींव भी नहीं पड़ी थी, तब कपूर साहिब ने उर्दू में आधुनिक राजनीतिक व्यंग्य के बेमिसाल नमूने पेश किये थे। कन्हैया लाल कपूर सचमुच उर्दू व्यंग्य लेखन के कुतुबमीनार हैं।''


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it