'कबीर की गूँज : लोक में प्रचलित कबीर
डॉ.सुरेश पटेल कबीर के सिर्फ अध्येता ही नहीं बल्कि कबीर के विचार के फैलाव के सक्रिय कार्यकर्त्ता भी हैं

- प्रकाश कान्त
डॉ.सुरेश पटेल कबीर के सिर्फ अध्येता ही नहीं बल्कि कबीर के विचार के फैलाव के सक्रिय कार्यकर्त्ता भी हैं। विशेषकर लोक में प्रचलित कबीर के। उनका काम कबीर को लेकर अकादमिक क्षेत्रों में होने वाले काम से अलग है। बल्कि, कहा जाना चाहिए कि लोकोन्मुखी और ज़्यादा जीवंत है। उस काम का सीधा सम्बन्ध सुदूर 'लोक में सदियों से प्रचलित कबीर से है, जिसमें एक ख़ास तरह की सामूहिकता है। वे इस सामूहिकता में गहरे तक धँसे हुए हैं, साथ ही अकादमिक क्षेत्र में देश-विदेश में कबीर को लेकर जो कुछ हो रहा है उसके संपर्क में भी रहे हैं।
इस तरह कबीर को लेकर उनका नज़रिया और कार्यक्षेत्र दोनों विस्तृत हैं। वे अपने सक्रिय मंच 'कबीर विचार मंच के माध्यम से कबीर गायन से जुड़ी ग्रामीण मंडलियों से जुड़े हैं। इस मंच पर उन मंडलियों की सक्रिय उपस्थिति रही है। विशेष कर स्त्री मंडलियों की। इस सिलसिले में वे विशेष रूप से प्रयासरत रहे हैं। वे हर साल निकलने वाली कबीर यात्रा में भागीदारी करते रहे हैं।
कबीर जयंती पर इन स्त्री-पुरुष मंडलियों के गायन का आयोजन करते हैं। इसके अलावा, विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय कबीर के विद्वानों के व्याख्यान करवाते हैं। और यह सब वे जबलपुर के पास स्थित छोटे-से गाँव टगर से करते आ रहे हैं। पिछले दशकों से इंदौर में इस सिलसिले में सक्रिय हैं. इस तरह कबीर को लेकर उनका काफी मैदानी काम रहा है. पिछले दिनों उन्होंने इसका विस्तार देश के बाहर भी करने का प्रयास किया है, जिसके लिये उन्होंने विदेश यात्राएं की हैं।
लेकिन, कबीर के कामों को लेकर वे यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने कबीर की रचनाओं,- विशेषकर मालवा में गाये जा रहे कबीर की रचनाओं के संग्रह का विशेष कार्य किया है। सामान्यत: अकादमी क्षेत्र में सुदूर मालवा जैसे अंचल में गाये जा रहे कबीर पर कम ध्यान दिया गया है। सुरेश पटेल ने मालवा-निमाड़ में गाये जा रहे 'कबीर को इकठ्ठा करने की कोशिश की। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सारा 'कबीर वाचिक परंपरा से आया हुआ 'कबीर है। अन्य कुछ निर्गुण संतों की रचनाओं की तरह। गाँवों में मंडलियाँ गाती थीं। उसका लिखित पाठ न होने से वाचिक परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरण और स्थानिक भिन्नता के कारण कबीर के इन पदों में परिवर्तन भी हुआ। उसे इस पुस्तक में संकलित रचनाओं में देखा जा सकता है।
मालवा को इन मंडलियों को पहली बार एक मंच पर 'एकलव्य देवास ने जुटाया। नियमित मासिक गोष्ठियों में इन मंडलियों के स्वरूप और गायन को व्यवस्थित होने में सहयोग दिया। सुरेश पटेल जो काम टगर (जबलपुर) से करते चले आ रहे थे, उसे इंदौर आकर 'कबीर विचार मंच के माध्यम से और विस्तार दिया। इसके जरिये स्त्रियों की कबीर गायन में भागीदारी बढ़ी। उन्होंने इस सबके दस्तावेज़ीकरण पर भी ध्यान दिया.उसी क्रम में उनकी यह पुस्तक है - 'कबीर की गूँज. जिसमें मालवा आदि में विभिन्न मंडलियों द्वारा गायी जा रही और उपलब्ध करवायी गयी कबीर की रचनाएँ हैं। उनकी एकरूपता, प्रामाणिकता का प्रश्न यहाँ अप्रासंगिक है। पुस्तक का महत्त्वपूर्ण हिस्सा ये पद ही हैं। वैसे, लेखक की ओर से पुस्तक की भूमिका में इन सब बातों का उल्लेख कर दिया गया।
पुस्तक में रचनाओं के अलावा कबीर पर कुछ महत्त्वपूर्ण विद्वानों के साक्षात्कार भी हैं। प्रहलाद सिंह टिपानिया, लिंडा हैस, निनेल बाबा जान गफूरोवा, अशोक वाजपेयी इत्यादि। ये साक्षात्कार उनके अपने काम के अलावा उनके कबीर सम्बंधित विचारों को स्पष्ट करते हैं। टिपानिया जी का साक्षात्कार दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है- एक, उनकी और उनकी मण्डली की गायकी और दो, उनके महंत पद को लेकर होने वाली बहस! मालवा की कबीर गायकी को दूर तक पहुँचाने में उनका बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। लिंडा हैस वर्षों तक मालवा की कबीर गायकी सहित लोक में गाये जाने वाले कबीर पर काम करती रही हैं। उनके साक्षात्कार में इस सबको देखा जा सकता है. जान गफूरोवा के साक्षात्कार में कबीर को लेकर एक अलग दृष्टिकोण है। अशोक वाजपेयी ने मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी और बहुत उल्लेखनीय काम किया है। कहना चाहिए कि लोक से लेकर कलाओं के शास्त्र पक्ष तक उनकी सक्रियता रही है। हालाँकि,उनका साक्षात्कार इस लिहाज़ से छोटा है।
पुस्तक में दी गयी कबीर की अधिसंख्य रचनाएँ मंडलियों से ही जुटायी गयी हैं। बेशक उनमें से कुछेक कबीर की नहीं हैं। कबीर का 'विचार वहाँ है। वे मंडलियों के पास वाचिक परम्परा से पहुँची हैं। और परम्परा में बहुत बार रचनाओं की प्रमाणिकता, उनके काव्य-स्वरूप इत्यादि प्रमुख नहीं होते, मुख्य होती है रचना। यह उनकी भाषा से ही ज्ञात होती जाती है। इसके बावजूद यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि मण्डलियाँ अपनी गायकी द्वारा कबीर के 'विचार को जीवित और सक्रिय बनाये हुए हैं। पुस्तक में काफी रचनाओं का संकलन किया गया है। हालाँकि,यह भी सही है कि अभी और भी रचनाओं का प्रकाश में आना शेष हैं। पुस्तक में रचनाओं में आये दार्शनिक और योग क्षेत्र में प्रचलित पारिभाषिक एवं गूढ शब्दों के अर्थ भी दिये हैं। हर रचना का संक्षिप्त भावार्थ भी। ताकि, नये और सामान्य पाठक को समझ बनाने में सहारा मिल सके। यह अच्छा है कि रचनाओं की विस्तृत व्याख्या नहीं की गयी है, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं के क्षेत्र व्यापक होने के साथ-साथ बाज़ वक्त बहस के कारण भी बन जाया करते हैं।
इसके अलावा पुस्तक अन्य बहुत सारे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी बात करती है। जैसे,लोक गायन में कबीर, निर्गुण एवं संवैधानिक मूल्यों पर केंद्रित रचनाएँ, कबीर का परिचय, उनका समय, उनके समय में स्त्रियों की स्थिति, कबीर की आज के समय में ज़रूरत, भक्ति आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक का समय, कबीर चौरा का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान, कबीर और कबीर पंथ, साहित्य में कबीर, विदेशी अखबारों में कबीर, कबीर का नया सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन, कबीर वैचारिकी का ताना-बाना इत्यादि। इन तमाम महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर की गयी चर्चा कबीर को जानने, समझने में मदद करती है। कबीर की संकलित रचनाओं में एक तरह की विविधता है- गुरु महिमा, आत्मतत्त्व, परम तत्त्व, प्रेम-विरह, अंध विश्वास, पाखण्ड, छुआ-छूत, नश्वरता, भ्रम, हिंसा, योग इत्यादि। कबीर की कुछ उलटबांसियाँ भी दी गयी हैं। कबीर की बहुत सारी दार्शनिक चिंताएँ उनकी उलटबासियों में ही व्यक्त हुई हैं। कबीर पर अलग-अलग दृष्टिकोणों से बहुत सारा काम हुआ है और अभी भी हो रहा है- निजी एवं संस्थागत दोनों स्तरों पर! डॉ. सुरेश पटेल और उनका कबीर विचार मंच भी इस दिशा में सक्रिय है.उनकी यह पुस्तक उसी सिलसिले में है। जैसा कि पहले कहा वे सिर्फ पुस्तक लेखन तक ही सीमित नहीं हैं। कबीर की रचनाओं में जो गहरी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक दृष्टि मौजूद रही है, उसे इस पुस्तक ने उभारने का पर्याप्त प्रयास किया है।


