'बस, तुम' प्रेम की विलक्षणता की कविताएँ
अग्रज कवि श्री सुधीर सक्सेना का नया कविता संग्रह 'बस, तुम' पढ़ा, तो पढ़ता ही चला गया

- सुरेश गुप्ता
अग्रज कवि श्री सुधीर सक्सेना का नया कविता संग्रह 'बस, तुम' पढ़ा, तो पढ़ता ही चला गया। कब रात का दूसरा पहर आ गया, पता ही नहीं चला। सोचा 79 कविताओं पर ही बस, क्यों। सुधीरजी एक सैकड़ा कविताएँ भी इस संग्रह में पिरोते तो भी प्यास नहीं बुझती।
सुधीरजी की भाषा, उनके भाषायी वितान से मैं उनके पत्रकारीय लेखन के दिनों से ही मुरीद हूँ, बल्कि यूँ कहें कि इश्क करता रहा हूँ। पूर्व में अनेक संग्रहों की कविताओं में उन्होंने अपने भाषायी कौशल का यथेष्ट प्रमाण दिया है। 'बस, तुम' में तो उनका यह कौशल अपने उरूज पर है। उनकी भाषा कब देशज और जनपदीय हो जाती है, कब विशुद्ध देवनागरी और कब नितांत वैज्ञानिक शब्दावली से बावस्ता हो जाती है, वह पढ़ते ही बनता है।
इस संग्रह को पढ़ते सुधीरजी की दो कविताएँ 'जब चन्द्रमा बजाता है बाँसुरी' और 'तुम, समुद्र से नहाकर निकली और पहाड़ को तकिया बनाकर लेट गयी, घास के बिछौने पर अम्लान।' बरबस याद आ गयीं। मुझे लगता था कि इनसे बढ़कर प्रेमिल भावाभिव्यक्ति क्या ही हो सकती है। अपनी छोटी सोच में मैं गलत था। 'बस, तुम' की कविताएँ उन कविताओं से कहीं आगे, कहीं गहरी, ऐन्द्रिक और प्रेम की आदिम सुरंग में पैबस्त है।
ये कविताएँ तुम्हें, जिसे प्रेम किया और उन्हें भी जिन्हें चाहा कि उनमें भी तुम्हारा ही अक्स था - अपनी पत्नी के दिवंगत होने के बाद पहले संग्रह में यह पंक्तियाँ सुधीरजी के अप्रतिम प्रेम के साथ ही साहस को भी बताती हैं, भला कौन व्यक्ति, फिर चाहे वह कवि ही क्यों न हो, ऐसा लिख सकता है। मुझे लगता है यह साहस, उनके पत्रकारिता कर्म के पार्श्व से इन पंक्तियों में आ पाया।
संग्रह की पहली कविता की इन पंक्तियों को देखे -
गयी ही कहाँ हो तुम कहीं
तुम हो अनुपस्थिति में उपस्थित,
मेरा एकालाप भी वार्तालाप है तुमसे
मुसलसल
लोक की बस लोक जाने
पर हमारे वास्ते रहा प्रेम कल्पद्रुम
साथ थी, मेरे, हो, रहोगी
एक तुम !
बस, तुम !!
कवि, अपनी प्रेयसी, जो पत्नी भी बनी, और अब देवलोक भी चली गई, को अब भी अपने पास ही रहेगी, की कामना को शब्दों में रूपावित करता है, तो पाठक, सुधीरजी और भाभीजी के प्रेम राग को अपनी गीली आँखों में बंद और साँसों में तरंगित करने से रोक नहीं पायेगा। 'मैं आऊंगा तुम्हारे पास' भी कुछ ऐसी ही कविता है।
अपनी दिवंगत पत्नी के लिए लिखी ये सभी 79 कविताएँ प्रेम के, अनुराग के, मिलन के भावों को जिस विलक्षणता के साथ प्रकट करती है, वह कवि के साथ हमें भी उनके प्रेमल संसार में लिये जाती है। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी दूसरे के प्रेम, प्रेमिका, दिवंगत पत्नी के साथ साहचर्य से हम इस हद तक प्रभावित हो कि 'इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ही सही' ऐसा प्रेम हम भी करें और हो सके तो उसे कविता में पिरोये,' की ख़्वाहिश कर बैठे। इस संग्रह को पढ़कर ऐसी ही ख्वाहिश होती है हमारी।
सुप्रिया साथ है खुले आसमान तले
बारिश में
बरसात में सचमुच बरसती है शराब।
या
प्रेम से नहीं मौत की तारीख
अलबत्ता प्रेम से बदल जाती है जिंदगी
आमूलचूल।
या
वक्ष की स्मृति में है
आलिंगन
होंठों की स्मृति में है
चुम्बन
स्मृति और कुछ नहीं चाहती
फिर से हरी हो स्मृतियाँ।
जैसी पंक्तियाँ में भरी प्रेम की स्मृतियों की शराब भला कौन नहीं पीना चाहता। अति साँकरी प्रेम की गली सुधीरजी की इस संग्रह की कविताओं में अभूतपूर्व विस्तार पाती है, वह देश-विदेश में भ्रमण कराती है पाठक को प्रेम, प्रेमिका, आंगिक सौष्ठव से एकाकार करती। कभी कंपित होती, कभी सुवासित करती। कवि कहता भी है -
सातवीं ऋतु है प्रेम
सातों ऋतुओं को समाये अपने आप में।
या
नीम सन्नाटे में हठात
बजती है चूड़ियाँ
जब-जब ऐसा होता है
हिनहिना उठते हैं सूरज के सातों घोड़े
या
प्रिया की एक चितवन
और मैं उछाल दूंगा
काल को किसी गेंद की तरह
दूर बहुत दूर
किसी ग्रह के
अनजान आसमान में।
'बस, तुम' संग्रह में कविता में प्रेम, जिस तरह गुंफित हुआ है, वह कवि की भाव और शब्द सम्पदा से ईर्ष्या पैदा करता हैं। प्रेम कभी गाँठ हो जाता है, कभी गुम्मढ़, कभी मिस्टिरियस क्रास, कभी उबटन, कभी व्यूह, कभी शहद, कभी नमक, कभी सोना, कभी गोदना, कभी रसायन, कभी जीरा और न जाने कितने बिम्बों में। प्रेयसी इस संग्रह में वसुंधरा है तो चेरी-पलाश जित्ती लाल भी, वीरबहुटी भी, उपमाओं से भरी है। प्रेयसी की याद, उसके साथ बिताये पल, सुना संगीत, पी शराब जैसे प्रसंग जितना सुधीर भाई को उद्वेलित कर रहे हैं, पाठक भी उद्वेलित हुए बिना नहीं रहेगा, इसमें कोई संशय नहीं है।
इस संग्रह की कविताओं की भावभूमि अपनी प्रिया की गहन स्मृतियों की है। यह कवि की प्रेम यात्रा की बानगी भी है। इन कविताओं में अपनी प्रिया, अपनी सहधर्मिणी के साथ कवि की बराबर की मौजूदगी है। यह बराबर ही मौजूदगी ही सच्चे अर्थों में प्रेम का मर्म बताती है। आख़िर जिस प्रेम की बात कवि कर रहा है, बता रहा है, वह अकेला नहीं होता। इस प्रेम में एक और एक मिलकर ही प्रेम का अर्थ प्रकट करते हैं और भरपूर करते हैं। यह प्रेम 'देह और गेह' का प्रेम कहकर नकारा नहीं जा सकता। संग्रह की कविताएँ एक साथ प्रेम का उजला पक्ष और प्रेयसी या संगिनी, जो भी चाहे कहे, की अनुपस्थिति के कोहरे को जताती है। साथ ही स्मृतियों के बहाने प्रेम को कालातीत भी बताती है। इसमें कुछ अतिरेक अगर है भी तो वह बेहद खूबसूरती से अपनी जगह बनाकर अनिवार्य सा लगता है। ऐसी मान्यता रही है कि कविता जीवन की पदार्थमयता से ही अपना शिल्प और रूप पाती है। सुधीरजी की इन कविताओं में उनका प्रेम, सांसारिक क्रियाकलापों-प्रकृति के ब्यौरों से एकाकार होकर, अद्भूत रूप से उद्भूत होता है। कविता सच कहती है और यहाँ जो कविताएँ हैं वे सुधीरजी और उनकी प्रेयसी, संगिनी के संसार का सच है। बहुत दिनों बाद पूर्णत: प्रेम पर एकाग्र यह संग्रह, जो प्रेम में थे, जो प्रेम में होना चाह रहे हैं के साथ ही सबको पसंद आयेगा। उन्हें भी जो कविता को शिल्प, भाषा और भाव के प्रतिमानों पर आंक कर देखने-पढ़ने के आदी हैं।
पुस्तक : बस, तुम (कविता संग्रह)
कवि : सुधीर सक्सेना
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकुला


