शुरुआत
कुछ महीनों बाद मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ। दीपक की खुशी जैसे सातों आसमान पार कर गई

- महेन्द्र तिवारी
कुछ महीनों बाद मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ। दीपक की खुशी जैसे सातों आसमान पार कर गई, उनके चेहरे पर एक ऐसी अलौकिक चमक थी जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। उन्होंने उस दिन मेरे हाथ को अपने हाथ में कसकर थाम लिया और कहा, 'अब हमारी जिंदगी में एक नया, सुनहरा सूरज उगेगा।' परिवार का हर सदस्य मेरे चारों ओर स्नेह का घेरा बना चुका था। दीपक तो हर वक्त बस मेरे पास रहना चाहते,मेरी हर छोटी ज़रूरत, हर ख्वाहिश को पूरा करने में उन्हें एक परम आनंद मिलता। वह हर रात मेरे पेट पर हाथ फेरकर, आने वाले शिशु से बातें करते, अपनी आवाज़ में उसे दुनिया के सारे प्यार का आश्वासन देते।
लेकिन किसे पता था कि उसी अथाह खुशी के बीच, भाग्य एक निर्दयी और क्रूर मोड़ लेने वाला है। एक दिन हम डॉक्टर के पास नियमित जांच के लिए गए थे। रिपोर्ट बिल्कुल सामान्य थी, हमारे चेहरे पर भविष्य के सुनहरे सपनों की चमक थी।
व ह स्त्री थी जो शीशे में अपनी परछाई नहीं, बल्कि सदियों पुराने संस्कारों की मुहर देखती थी। मेरे लिए, एक पत्नी का अस्तित्व उस अदृश्य लक्ष्मण रेखा से परिभाषित होता था, जिसे 'लज्जा' और 'मर्यादा' नाम दिया गया था। हमारे विवाह को दो वर्ष हो चुके थे, पर मेरी आत्मा पर अभी भी सदियों पुराने संस्कारों का पहरा था।
मेरा ससुराल में भी यही सिखाया गया था कि एक पत्नी को अपने 'धर्म' की सीमाओं में रहकर हर रिश्ते को निभाना चाहिए-चुपचाप और समर्पित। पर इन सब मान्यताओं के बीच दीपक एक अपवाद थे। उनके लिए मैं कोई जिम्मेदारी, कोई 'धर्म' निभाने वाली बहू नहीं, बल्कि उनकी संपूर्ण 'जीवन-संगिनी' थी। उन्होंने मुझे सिर्फ अपनाया नहीं, समझा भी। उनके साथ रहते हुए मैंने जाना कि प्रेम का मतलब केवल साथ जीना नहीं, बल्कि हर परिस्थिति में एक-दूसरे की ढाल बन कर खड़ा रहना है।
हमारी शादीशुदा जि़न्दगी किसी मधुर संगीत की तरह, सामंजस्य और विश्वास से भरी हुई थी। दीपक सुबह की पहली चाय से लेकर रात के आखिरी संवाद तक, मेरे हर पल का हिस्सा थे। वह मेरे चेहरे की थकान को शब्दों से नहीं, अपने सहज स्पर्श से मिटा देते। हफ्ते में एक दिन वह मेरे लिए विशेष पकवान बनाते,कहते, 'प्यार में मेहनत की खुशबू होनी चाहिए, रीना।' धीरे-धीरे हम एक-दूसरे के इतने अभ्यस्त हो गए कि एक की चुप्पी भी दूसरे के दिल में गूंज उठती, और एक का अधूरापन दूसरे के बिना पूर्ण नहीं होता। यह प्रेम सिर्फ दो शरीरों का नहीं, बल्कि दो आत्माओं का गहरा मिलन था।
कुछ महीनों बाद मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ। दीपक की खुशी जैसे सातों आसमान पार कर गई, उनके चेहरे पर एक ऐसी अलौकिक चमक थी जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। उन्होंने उस दिन मेरे हाथ को अपने हाथ में कसकर थाम लिया और कहा, 'अब हमारी जिंदगी में एक नया, सुनहरा सूरज उगेगा।' परिवार का हर सदस्य मेरे चारों ओर स्नेह का घेरा बना चुका था। दीपक तो हर वक्त बस मेरे पास रहना चाहते,मेरी हर छोटी ज़रूरत, हर ख्वाहिश को पूरा करने में उन्हें एक परम आनंद मिलता। वह हर रात मेरे पेट पर हाथ फेरकर, आने वाले शिशु से बातें करते, अपनी आवाज़ में उसे दुनिया के सारे प्यार का आश्वासन देते।
लेकिन किसे पता था कि उसी अथाह खुशी के बीच, भाग्य एक निर्दयी और क्रूर मोड़ लेने वाला है। एक दिन हम डॉक्टर के पास नियमित जांच के लिए गए थे। रिपोर्ट बिल्कुल सामान्य थी, हमारे चेहरे पर भविष्य के सुनहरे सपनों की चमक थी। लेकिन घर लौटते समय जिस ई-रिक्शा ने हमें टक्कर मारी, उसने उन सपनों को पलभर में बिखेर दिया। मैं सड़क पर पेट के बल गिरी थी, मेरे कानों में दीपक की दर्द भरी आवाज़ गूंज रही थी, 'रीना, आँखें खोलो! आँखें खोलो रीना...' दर्द असहनीय था, मेरी नस-नस चीख उठी थी। लोग इक_े हो गए, कोई एम्बुलेंस बुला रहा था। सब कुछ धुंधला होता चला गया, और फिर केवल घना अंधेरा शेष रहा।
जब आँख खुली, अस्पताल की सफेद, नीरव दीवारें मेरे चारों ओर थीं। दीपक पास ही बैठे थे, उनकी आँखों में थकान थी, पर उससे कहीं अधिक गहरी एक अथाह बेचैनी और अपराध-बोध था। मैंने बोलने की कोशिश की, पर कुछ अनकहे, भारी शब्दों ने मेरा गला रोक लिया। डॉक्टरों ने आकर बताया कि मेरी रीढ़ की हड्डी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई है। शायद पैरों का पूरा सहारा फिर कभी न मिल पाए, शायद चलने-फिरने के लिए मुझे एक बाहरी सहारे की आवश्यकता होगी,शायद एक व्हीलचेयर की।
तीन दिन बाद दीपक ने एक और खबर दी,हमारा बच्चा अब नहीं रहा। उस क्षण मेरी दुनिया केवल टूटी नहीं, बल्कि पूरी तरह बिखर गई। मेरी आत्मा ने चीखना चाहा, लेकिन होंठ केवल सिसकते रहे। दीपक ने बस मेरा सिर अपने सीने से लगा लिया। वह कुछ नहीं बोले,उनका मौन ही सबसे बड़ा, सबसे मजबूत सहारा था। उस मौन में उन्होंने मुझे अपनी सारी हिम्मत, सारा दर्द और सारा प्रेम सौंप दिया था।
घर लौटने पर मेरी जि़न्दगी पूरी तरह से बदल गई थी। अब मेरा दिन व्हीलचेयर, कड़वी दवाइयों और शरीर को तोड़ देने वाली थकान के बीच सिमटने लगा था। मेरी स्वतंत्रता, मेरा आत्म-सम्मान, सब उस हादसे की भेंट चढ़ गए थे। दीपक हर सुबह मेरे कॉलेज के पुराने नोट्स पढ़कर सुनाते, ताकि मेरा मन उन दुखद विचारों से हटकर कहीं और बहले। कई बार वो मुझे बाहर धूप में बैठाकर, फूलों की खुशबू सूँघने को कहते, 'देखो, रीना, ये जीवन अब भी महकता है, तुम्हें बस इसकी खुशबू पहचानने की ज़रूरत है। '
एक शाम जब वह मुझे बहुत प्यार से खाना खिला रहे थे, अचानक मेरे शरीर पर मेरा नियंत्रण पूरी तरह से खो गया और व्हीलचेयर पर ही पेशाब निकल गया। शर्म, ग्लानि और आत्म-घृणा के आँसू मेरे चेहरे पर बह निकले। पर दीपक ने पल भर की भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई। उन्होंने बिना कुछ कहे, बड़ी सहजता से मुझे साफ किया, कपड़े बदले और सिर्फ इतना कहा, 'तुम्हें तकलीफ हो रही होगी न, रीना? क्या दर्द ज्यादा है?' वह क्षण मेरे आत्मगौरव की सबसे बड़ी, सबसे कठिन परीक्षा थी, लेकिन दीपक ने इसे प्रेम की पराकाष्ठा बना दिया। उन्होंने मुझे एहसास कराया कि मेरे शरीर की यह अपूर्णता उन्हें मुझसे दूर नहीं कर सकती।
मैंने अगली सुबह अपनी सास से कहा कि किसी नर्स को रख लेते हैं, मुझे दीपक से यह सब करवाते हुए बहुत ग्लानि महसूस होती है। उनका चेहरा कठोर हो गया। उन्होंने कहा, 'मुझे शर्म आती है, रीना, जो तुम अपने पति से ये सब करवाती हो। तुम मेरी बहू हो, और बहू को अपनी सीमाओं का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।' उनके ये शब्द मेरे टूटते आत्म-विश्वास पर एक और प्रहार थे। मैं चुप रही, लेकिन मन भीतर तक गहरे घावों से भर गया।
शाम को जब दीपक आए, मैंने उनसे टूटी हुई आवाज़ में कहा, 'दीपक, मुझे यह सब तुमसे करवाना ठीक नहीं लगता। माँ जी भी यही कह रही थीं।' उन्होंने शांत, गहरी आँखों से मेरी ओर देखा और बोले, 'अगर मेरी जगह तुम होतीं तो क्या मुझे दूर कर देतीं? क्या तुम मुझे किसी नर्स के हवाले कर देतीं?' मैंने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि मैं जानती थी कि मैं ऐसा कभी नहीं कर पाती। 'रीना,' उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा, 'शर्म तब होती है जब हम पराये हों। मैंने तुम्हें अपनी पत्नी, अपनी जीवन-संगिनी के हर रूप में अपनाया है, अब तुम्हारा यह दर्द मेरा हिस्सा है, मेरे जीवन का सत्य है। अगर तुम्हें लगता है कि मैं इन छोटी-छोटी ज़रूरतों को पूरा करते हुए कमज़ोर हो जाऊँगा, तो समझ लेना हमारा रिश्ता बस नाम का रह गया है। यह सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, यह प्रेम है। '
उनके ये शब्द एक दिव्य सत्य की तरह मेरे भीतर गूंजते रहे। उसी रात पहली बार मुझे एहसास हुआ कि असली प्रेम दया या सहानुभूति नहीं होता, बल्कि समानता, आत्मा का जुड़ाव और एक-दूसरे की अपूर्णताओं को स्वीकार करने का साहस होता है।
दिन बीतते रहे। दीपक ने हार नहीं मानी। उन्होंने मेरी फिजियोथेरेपी शुरू करवाई। वह हर सुबह, बिना किसी नागा के मेरे साथ अभ्यास करते। कभी मेरी उंगलियों को पकड़कर कहते, 'चलो, मेरी रानी, आज एक इंच और।' पहले मैं अभ्यास के दौरान सिर्फ मुस्कुराती, फिर धीरे-धीरे वह बेबस मुस्कान एक दृढ़ संकल्प में बदलने लगी। मुझे लगने लगा कि मैं फिर से चल पाऊँगी। पर डॉक्टरों ने उम्मीदें कम बताईं। मगर दीपक ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने ऑफिस का समय घटाया, अपनी कई मीटिंग्स को रद्द किया और मेरी दवाइयों से लेकर एक्सरसाइज तक सब पर ध्यान दिया। वह खुद भी मेरी व्हीलचेयर को धकेलते हुए लम्बी सैर करते, ताकि मुझे अकेलापन महसूस न हो। कभी कहते, 'ये लड़ाई हमारी है, रीना, तुम्हारी अकेले की नहीं। '
एक दिन उन्होंने मुझे ज़ोर देकर बाहर पार्क में व्हीलचेयर से उठकर, वॉकर के सहारे चलने को कहा। मैं डर गई, 'दीपक, अगर गिर गई तो? मैं नहीं चाहती कि तुम फिर से दुखी हो।' उन्होंने गहरी, आश्वस्त करने वाली मुस्कान के साथ कहा, 'मैं पकड़ लूँगा, रीना, जैसे उस दिन नहीं पकड़ पाया था।' वह पहली बार था जब उन्होंने उस भयानक हादसे का जि़क्र किया। उनकी आवाज़ में दर्द था, पर उसके भीतर एक अटूट दृढ़ता की जड़ें थीं। मैंने हिम्मत जुटाई और धीरे से वॉकर को थाम लिया।
मैंने जैसे ही अपना पहला कदम जमीन पर रखा, मेरे पैरों में एक हल्की सी, लेकिन स्पष्ट हलचल महसूस हुई। मैं चिल्ला पड़ी, मेरी आँखों में खुशी के आँसू भर आए, 'दीपक, मुझे लगता है कुछ हिल रहा है!' उन्होंने मुझे अपनी बाहों में कस लिया और कहा, 'तब तो सुबह का सूरज हमारे लिए फिर से उग आया, रीना। '
अब उस घटना को पूरे दो साल और बीत चुके हैं। मैं अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई हूँ, लेकिन वॉकर के सहारे अपने पैरों पर खड़ी होने का सपना अब असंभव नहीं लगता, यह एक प्राप्त किया जा सकने वाला लक्ष्य बन चुका है। दीपक रोज़ रात मेरी पीठ पर मालिश करते हुए कहते हैं, 'जिस दिन तुम बिना सहारे अपने पैरों पर चलोगी, रीना, वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा पुरस्कार होगा। उस दिन मैं तुम्हें अपने हाथों से तुम्हारा पसंदीदा गुलाब जामुन खिलाऊँगा। '
मैं अब समझ चुकी हूँ कि शरीर का चलना-फिरना जीवन नहीं होता; जीवन तो वह है जो आत्मा के भीतर एक शाश्वत लौ की तरह जलता रहे। दीपक ने प्रेम और विश्वास का वह दीपक मेरे भीतर जला दिया है जो किसी भी तूफान से नहीं बुझ सकता।
आज जब आईने में खुद को देखती हूँ तो मुझे वह लज्जा और मर्यादा की बेड़ियों में बंधी रीना नहीं दिखती जो हादसे से पहले थी। अब मैं वो स्त्री हूँ जिसने अपने पति के निस्वार्थ प्रेम में आत्मबल और नई पहचान पाई है। मैं अक्सर दीपक से कहती हूँ, 'तुमने मुझे फिर से जीवन दिया।' वह हमेशा मुस्कुराकर जवाब देते, 'नहीं रीना, मैंने सिर्फ तुम्हारा हाथ थामने का साहस किया था, चलना तो तुमने खुद सीखा है। और हाँ, अगर हम सच्चे जीवन साथी हैं, तो हमें एक-दूसरे को सहारे के लिए धन्यवाद नहीं देना चाहिए। '
उनका यह जवाब मुझे बार-बार एहसास कराता है कि हमारी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है, बल्कि प्रेम के एक नए अध्याय की बस शुरुआत हुई है, जहाँ हम दोनों एक-दूसरे के लिए प्रेम और आत्म-सम्मान की नींव हैं।


