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कला किसी की बपौती नहीं है

एक जमाने में 'धर्मयुग', 'सारिका', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'कादम्बिनी', 'रविवार' और 'मनोरमा' जैसी सुविख्यात पत्रिकाओं में राजकिशन नैन के सचित्र लेख और फोटो फीचर वर्षों तक निरंतर प्रकाशित हुए हैं

कला किसी की बपौती नहीं है
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छायाकार राजकिशन नैन से
अशोक बैरागी की बातचीत

एक जमाने में 'धर्मयुग', 'सारिका', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'कादम्बिनी', 'रविवार' और 'मनोरमा' जैसी सुविख्यात पत्रिकाओं में राजकिशन नैन के सचित्र लेख और फोटो फीचर वर्षों तक निरंतर प्रकाशित हुए हैं। गाँव की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन और कृषि संस्कृति की जड़े इनके भीतर में बहुत गहरे तक समाई हुई हैं। गाँव की नैसर्गिक संपदा से ओतप्रोत इनके अधिकांश चित्र लोग-बाग, पशु-पखेरू, बाग-बगीचों, खेत-खलिहान और पर्व-त्यौहार से जुड़े हैं। इनके खूबसूरत चित्र देखकर हर कोई आह्लाद से भर उठता है। प्रस्तुत है, उनकी फोटोग्राफी कला पर हुई बातचीत के संपादित अंश।

- अशोक बैरागी

  • अशोक बैरागी- गाँव-देहात और उसकी संस्कृति से जुड़े अनगिनत चित्र आपने खींचे हैं। एक सुन्दर चित्र को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

राजकिशन नैन - प्रकृति की गोद में बसे गँवई-गाँव के मनभावन सौंदर्य में जो अपूर्व कशिश है, उसे लाख चाहकर भी कैमरे की परिधि में नहीं लाया जा सकता। गँवई चित्रों में जो अनुपम लयात्मकता है, उसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। पर चूँकि बचपन से ही गाँव मेरे उपास्य रहे हैं, इसलिए मेरे चित्र वहीं की आँचलिक गरिमा को दर्शाते हैं। सुंदर चित्र को हमारे जीवन की तरह विराट और जीवंत होना चाहिए।

  • अशोक बैरागी - आप गाँव से होकर भी कला के इस मुकाम तक कैसे पहुँचे?

राजकिशन नैन - कला किसी की बपौती नहीं है। अपनी मेहनत और अभ्यास के बूते पर गाँव या शहर का कोई भी व्यक्ति कला के काम में पारंगत हो सकता है। छायांकन कला के प्रति गहन अभिरुचि, घुमक्कड़ी का चाव और देहाती दुनिया का अद्भुत, अनखुला और अनचीह्ना आकर्षण मुझे यहाँ तक खींच लाया है।

  • अशोक बैरागी - गाँव में शुरू-शुरू में आपने किन विषय के चित्रों पर हाथ आजमाया?

नैन साहब - जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कि अपना पहला चित्र मैंने गाँव की एक पनिहारी का खींचा था, जो हमारे गाँव के बूढ़े कुएँ के पारछे में खड़ी हुई डोल से पानी खींच रही थी। तदुपरांत मैंने एक ग्वाले का चित्र खींचा था, जो गाय का दूध दुहने के बाद बछड़े को उसकी माँ के थन चुँघा रहा था। उन्हीं दिनों मैंने हमारे गाँव के रौळी सरोवर में भैंस की पूँछ पकड़कर तैरते हुए कुछ बच्चों के चित्र भी खींचे थे।

  • अशोक बैरागी - आपने जीवन में पहली बार कैमरा कब पकड़ा? वह कौन-सा कैमरा था?

नैन साहब - सन् 1971 के जून माह में मैंने कैमरा पकड़ा। तब मैंने शिमला स्थित तारादेवी नामक जगह को बेस बनाकर पहाड़ी परिवेश के चित्र खींचे थे। कैमरा क्लिकथर्ड था

  • अशोक बैरागी - सुंदर चित्र खींचने के लिए किस तरह के कौशल की जरूरत पड़ती है?

नैन साहब - सच बात तो यह है कि अच्छे चित्र के लिए प्रकाश और छाया के अंतर को समझने और उनके अनुरूप खास अवसरों को पकड़ने का सतत अभ्यास करना पड़ता है। विद्या और हुनर की तरह फोटोकारी की कला भी संयोग, लगन और धैर्य से हमारे जेहन में आती है। जबकि जल्दबाजी से बना बनाया काम बिगड़ता है।
ठ्ठ अशोक बैरागी - आपने छायांकन के लिए गाँव को ही क्यों चुना? जबकि चित्रों से जुड़ी बहुत सारी बढ़िया चीजें तो नगरों और शहरों में भी खूब मिलती हैं?
नैन साहब - मैं बड़भागी हूँ कि मेरे जैसे गँवई व्यक्ति को सर्वोच्च सत्ता ने देहाती दुनिया की फोटोग्राफी के लिए चुना। जहाँ तक तुम्हारे सवाल की बात है, आँखें खोलने के बाद मैं गाँव की बेपनाह खूबसूरती, पुरखों के पारंपरिक और श्रमसिक्त संस्कारों की वजह से जिंदा हूँ। ग्रामधरा की सोहन संस्कृति के सुंदर चित्र उतारने की लालसा मुझमें बचपन से ही है। गाँव को बिसारकर मैं एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकता।

  • अशोक बैरागी - आपका खींचा हुआ पहला फोटो किस पत्रिका में छपा था और वह किसका चित्र था?

नैन साहब - मेरा पहला फोटो दो वृद्धों का चित्र था, जो 'जूम फोटो' नामक अंग्रेजी पत्रिका में 15 जून, सन् 1981 में छपा था। इस पत्रिका का संपादन अपने जमाने की मशहूर शख्सियत सादिया देहलवी करती थी।

  • अशोक बैरागी - आजकल डिजिटल और मिरर लैस कैमरों का बोलबाला है। बाजार में उनके आने से फोटोग्राफी की विधा में क्या बदलाव आए हैं?

नैन साहब - डिजिटल कैमरों के आने से तकनीक के बदलाव में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। वक्त के साथ कैमरे बदलते रहे हैं। सबसे पहले इंग्लैंड से कैमरे आए। इसके बाद कैमरे जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका से आयातित होने लगे। इस तरह एक के बाद एक बदलाव होते रहे। नयी तकनीक और नए कैमरे फोटोग्राफी की विधा के लिए बेहद अनुकूल और उपयोगी हैं। इस विधि से फोटो का जटिल काम बहुत सहज और सुगम हो गया है। इस विज्ञान के आने से एक सेकंड के हजारवें हिस्से में फोटों खींचकर दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचायी जा सकती है। हमारे रोजमर्रा के कार्यों में इस प्रविधि का जो प्रसार हुआ है, वह स्वागत योग्य है।

  • अशोक बैरागी - आपने तस्वीरें खींचते समय किस तरह के जोखिम उठाए हैं?

नैन साहब - देखिए, सुंदर चित्रों के लालच में मुझे कई बार मौत तक के जोखिम उठाने पड़े हैं। फोटोग्राफी मेरी अस्मिता और मेरे अस्तित्व की सबसे बड़ी पूँजी है। सुंदर चित्रों की चाह में मुझे कदम-कदम पर विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ता है। डीग (भरतपुर) राजस्थान के किले की फोटोग्राफी करते हुए मैं साठ फुट गहरे कुएँ में जा गिरा था। एक बार फूलों की घाटी की ओर जाते हुए एक ग्लेशियर से फिसलकर मैं अलकनंदा नदी में डूबते-डूबते बचा था। सांपों, बिच्छुओं, कानखजूरों, कछुओं, मधुमक्खियों, भिरड़ों और तत्तियों आदि से भी मेरा सामना होता रहता है। बाहरी प्रदेशों में काम करते समय कई ऐसे डरावने हादसों से गुजरना पड़ा है, जिन्हें याद करके आज भी शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। मेरी दिली इच्छा है कि इस संसार से जाते समय मेरे हाथ में कैमरा हो तथा घर से दूर कहीं चित्र खींचते हुए मौत एकाएक मुझे अपने आगोश में ले ले।

  • अशोक बैरागी - कला का काम करने की एवज में जो सम्मान-पुरस्कार वगैरह मिलते हैं, उनके बारे में आपकी क्या राय है?

नैन साहब - किसी भी सम्मान की बनिस्पत मेरे काम की अहमियत ज्यादा है। पुरस्कारों की अपनी राजनीति है। मूल्यहीन राजनीति के इस दौर में सच्चे कलाकार को अपने काम की एवज में सम्मान की इच्छा रखना बेमानी है। कलाकारों से सम्मान के लिए फार्म भरवाने जैसी कागजी औपचारिकताएँ पूरी करवाना उनका और उनकी कला का गला घोटने के समान है। मेरा मानना है कि कला से जुड़े खास लोगों के काम को भावी पीढ़ियों के लिए संग्रहित, संरक्षित और प्रदर्शित करके भी उनका कद बढ़ाया जा सकता है।

  • अशोक बैरागी - आजकल अखबारों और पत्रिकाओं में कलात्मक चित्रों के लिए कितनी गुंजाइश है?

नैन साहब - पहले तमाम अखबारों में चित्रों के लिए भरपूर जगह रहती थी लेकिन अब अखबारों में वैसे चित्र नहीं छपते। चित्रों को अधिकाधिक स्थान देने वाली तमाम पत्रिकाएँ कभी की बंद हो गई। मोबाइल में कैमरे आने के बाद कला छायांकन का काम संकट में पड़ गया है। मोबाइल फोटोग्राफी के अनियंत्रित विस्तार ने उत्कृष्ट एवं कलात्मक छायांकन को एक बारगी ही हाशिये पर धकेल दिया है। अब कला मिशन न होकर व्यवसाय बन गई है किंतु मेरी दृष्टि में कला व्यवसाय की वस्तु नहीं है। दरअसल यह हमारी सांस्कृतिक आवश्यकताओं और आत्मिक सुख के लिए है।


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