घमंड उनके शब्दकोश में था ही नहीं
आज से लगभग चार दशक पूर्व हमने बाबूजी को पहली बार संस्कारधानी जबलपुर में देखा था

- माता प्रसाद शुक्ल
आज से लगभग चार दशक पूर्व हमने बाबूजी को पहली बार संस्कारधानी जबलपुर में देखा था। जून का महीना था,सन था शायद 1981। मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रांतीय युवा कविता रचना शिविर का आयोजन था, जबलपुर में। उस वक़्त ग्वालियर इकाई के सर्वेसर्वा और ग्वालियर चंबल संभाग के अध्यक्ष डॉ कोमल सिंह सोलंकी हुआ करते थे। ग्वालियर से जिन युवा रचनाकारों को उन्होंने जबलपुर भेजा था, उनमें सबसे पहले मेरा ही नाम लिखा था। मेरे अलावा अपूर्व शिंदे ,अनघा शिंदे, रविंद्र झारखड़िया, नरेंद्र तोमर और भारती जैन भी मेरे साथ थे।
शिविर किसी स्कूल में लगा था। सुबह से शाम तक वहां विषय विशेषज्ञों के व्याख्यान होते थे। डॉ कमला प्रसाद, डॉ धनंजय वर्मा, भगवत रावत, राजेंद्र शर्मा ,डॉ मलय, राजेश जोशी, प्रो अक्षय कुमार जैन, भगवानदास सफड़िया, तार सप्तक के कवि व्यास जी वगैरह। वरिष्ठ रचनाकार अलग-अलग सत्रों में अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान देते थे। प्रश्नोत्तर भी होते थे और रात में सांस्कृतिक आयोजन भी। इस बीच गर्मी के कारण रविंद्र की तबीयत खराब हो गई। यूं भी वह दुबला पतला था और अब भी वैसा ही है। बाबूजी उसे डॉक्टर के यहां ले गए। वहां से लौटकर बाबूजी ने मुझसे कहा, घबराने की कोई बात नहीं है ,ठीक हो जाएगा। यहां की गर्मी उसे सहन नहीं हो रही थी। अंग्रेज़ी में कहावत है कि फ़र्स्ट इंप्रेशन इज़ द लास्ट इंप्रेशन। बाबूजी की इस आत्मीयता से मैं बहुत प्रभावित हुआ। वे अपने किसी अधीनस्थ को रविंद्र के साथ भेज सकते थे, लेकिन वे स्वयं गए। यह युवा पीढ़ी के प्रति बाबूजी की आत्मीयता का परिचायक था।
बाबूजी को पद का गुरुर नहीं था। घमंड शब्द तो उनकी डिक्शनरी में था ही नहीं। उनकी सहजता, सरलता, आत्मीयता और उदारता के दर्शन हम लोगों को अक्सर होते रहे। मध्यप्रदेश ही नहीं, देश के इतर प्रांतों के रचनाकारों की भी उनको चिंता रहती थी। कौन कहां है, कैसा है। अगर कोई बीमार है,तो उसको मदद पहुंचानी है, यह सब बाबूजी की दिनचर्या में शुमार हुआ करता था। मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि मुझे उनका आशीर्वाद हमेशा मिलता रहा। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अलग-अलग स्थानों में हुए अधिवेशनों में उनसे भेंट होती रही।
उड़ीसा का एक प्रसंग याद आ रहा है। कार्यक्रम समापन से थोड़ा पहले बाबूजी सभागार से बाहर निकले। मैं भी उनके पीछे छाया की तरह बाहर निकला। उन्होंने मुझे देख लिया था। गर्मी का मौसम था, शायद उन्हें प्यास लग रही थी। मुझसे उन्होंने कहा - यहां पानी मिलेगा ! मैं तुरंत उनके लिए पानी ले आया । बाबू जी ने खुश होकर कहा अरे तुम तो बहुत काम के आदमी हो। उस दिन शाम को भी मैं बाबूजी के साथ ही था। धर्मशाला के परिसर में हम लोग टहल रहे थे कि लाइट चली गई। हम लोग पास में ही एक चबूतरे पर पेड़ नीचे बैठ गए। लगभग डेढ़ घंटे तक बाबूजी मुझसे बातें करते रहे - साहित्य जगत की उठापटक और राजनीति के बारे में। जब मैंने महेश कटारे जी को बताया कि मैं बाबूजी से डेढ़ घंटा बात करता रहा, तो वो नाराज़ हो गए और मुझसे कहने लगे - तुमने इतने बड़े आदमी का डेढ़ घंटा खराब कर दिया।
आ. बाबूजी की जन्मशती पर मैं उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं।
अध्यक्ष,मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन
(ग्वालियर इकाई)
शिंदे की छावनी, लश्कर, ग्वालियर 474001


