क्या वे अभी भी ज़िंदा हैं!
इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच छिड़ी जंग में तबाही का दर्दनाक मंजर देखने को मिल रहा है

इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच छिड़ी जंग में तबाही का दर्दनाक मंजर देखने को मिल रहा है। चारों तरफ मलबे के ढेर और उनके बीच पड़ी लाशें, जैसे तैसे अपने-आपको बचाते लोग, अपने बच्चों को गोद में लेकर भागते या एक दूसरे को तलाशते घायल मां-बाप, कफ़न में लिपटे अपने बच्चे को गोद में लिये बैठी मां, घायलों का इलाज करते-करते अचानक अपने बेटे की लाश देखकर काठ बन जानेवाला डॉक्टर - इस तरह की हजारों तस्वीरें और वीडियो रोज़ हमारी आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं। ऐसे ही एक वीडियो एक बच्चा दिखाई दे रहा है जिसका चेहरा बमबारी से उठे गुबार से सना हुआ है, जिसकी गर्दन की चमड़ी निकल चुकी है और वह किसी से पूछ रहा है- 'क्या मैं अभी भी ज़िंदा हूँ !'
सामान्य परिस्थितियों में इसे एक मासूम सवाल माना जा सकता था, इस पर हंसा भी जा सकता था। लेकिन किसी भी संवेदनशील इंसान का कलेजा इस सवाल पर मुंह को आ सकता है। अफ़सोस कि एक समुदाय विशेष के लोगों को मरते हुए देखकर खुश होने वाले कट्टरपंथियों और नफ़रत फैलाकर टीआरपी बटोरने वाले हमारे खबरिया चैनलों को ऐसे सवालों से, ऐसे नज़ारों से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है। जिन चैनलों में इतना साहस नहीं है कि ज़मीनी हक़ीक़त जानने-बताने के लिए वे अपने संवाददाताओं को मणिपुर भेज सकें, उन्होंने इज़राइल में अपने एंकरों और सम्पादकों को तैनात कर दिया है। युद्ध को लेकर भारत सरकार भले ही तटस्थ हो गयी हो, चैनलों पर मनगढ़ंत कार्यक्रमों का प्रसारण तो जारी है।
दूसरी तरफ इज़राइल के समर्थन में उठ खड़ी होने वाली वाली बिरादरी है, जिसके तथाकथित नेताओं में से एक यति नरसिंहानंद हैं। गाज़ियाबाद के डासना मंदिर के इन महंत ने कहा है कि वे खुद एक हज़ार सन्यासियों के साथ इज़रायली दूतावास जाकर वहां की सरकार को लिखित सुझाव देंगे और इस युद्ध में इजराइल की तरफ से लड़ने की अनुमति मांगेंगे। यति नरसिंहानंद ने यह मांग करते हुए अपना एक वीडियो जारी किया है। ऐसा ही एक वीडियो मेरठ के किसी सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी का है, जो एक छोटे से समूह के साथ इज़रायली दूतावास पर पहुंचा और मीडिया के सामने कहा कि लड़ाई के लिये इज़राइल को जितने भी लोगों की ज़रुरत है, वह ले जाने को तैयार है।
जब भारत समेत सारी दुनिया में इज़राइल-फिलिस्तीन युद्ध रोकने की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं, खुद इज़राइल की जनता सड़कों पर उतर कर अपने प्रधानमंत्री से युद्ध विराम करने को कह रही है, तब हमारे यहां सिरफिरों की जमात अपनी जांघ उघाड़कर दिखा रही है। एक मशहूर डच अभिनेता रामसे नासर एक लोकप्रिय टीवी शो में जब ये भावुक कर देने वाली अपील कर रहा है कि गाज़ा में रह रहे, घायल हो रहे और मर रहे लोगों को संख्या नहीं, इंसान माना जाये, तब हमारे यहां एक चैनल का स्वनाम धन्य सम्पादक बहुत ही हास्यास्पद तरीके से यहूदियों का सम्बन्ध यादवों से जोड़ रहा है। हिन्दी के एक प्रतिष्ठित लेखक और चिन्तक ने ठीक ही कहा है कि 'हम भारतीय अपनी मूर्खता का उत्सव मना रहे हैं।'
इस सन्दर्भ में अमेरिकी/बेल्जियम/ब्रिटिश पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता एंड्रयू स्ट्रोहेलिन का कथन बिलकुल सटीक बैठता है कि 'जब मैं लोगों से कहता हूँ कि बच्चे मारे जा रहे हैं तो गुस्सा ज़ाहिर करें या हत्याओं को जायज़ ठहरायें - ये तय करने के लिए वे जानना चाहते हैं कौनसे बच्चे! बच्चों की पहचान पूछकर जागने वाली इंसानियत ही दरअसल सबसे बड़ी समस्या है।' दुखद है कि बड़ी संख्या में भारतीय भी इसी मानसिकता के शिकार हो गये हैं। कभी उन्हें मणिपुर में एक समुदाय को प्रताड़ित होते देख मज़ा आता है तो कभी देश के भीतर-बाहर दूसरे समुदाय के लोगों को मरते देख तालियां बजाते हैं। मानवता-जो एक स्वाभाविक गुण होना चाहिये, उनके लिये धर्म, जाति या नस्ल देखकर जागने वाला भाव बन गया है।
ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिये - क्या वे अभी भी ज़िंदा हैं!


