इतिहास से कटने और अलग दिखने की कवायद
देश के ऐतिहासिक संसद भवन में बुलाये गये अंतिम सत्र का पहला व आखिरी दिन अनुमानों के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 'वन मैन शो' ही रहा

देश के ऐतिहासिक संसद भवन में बुलाये गये अंतिम सत्र का पहला व आखिरी दिन अनुमानों के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 'वन मैन शो' ही रहा। सत्र प्रारम्भ होने के पहले मीडिया के समक्ष जिस प्रकार से मोदी ने सकारात्मक नोट से अपनी बातें प्रारम्भ कीं तथा लोकसभा के भीतर अपने उद्बोधन में भी कुछ अच्छी बातें करके लोगों को कुछ समय के लिये चकित किया, उससे लगा कि मोदी भारतीय लोकतंत्र की गौरवशाली परम्परा का निर्वहन करते हुए यहां से बिदाई चाहते हैं। होना वही चाहिये था परन्तु अपनी तासीर के मुताबिक उन्होंने वे नकारात्मक बातें भी आखिरकार कह ही डालीं जो कम से कम ऐसे मौकों पर नहीं कहनी चाहिये थीं।
बहरहाल, करीब 100 वर्ष पुराना यह संसद भवन, जो महान नेताओं के भाषणों, चर्चाओं, आरोप-प्रत्यारोपों, स्पष्टीकरणों, बयानों, अविश्वास प्रस्ताव लाने और विश्वास मत जीतने, प्रधानमंत्री समेत विभिन्न मतों की सरकारों के बनने व गिरने की अनेकानेक गाथाएं लेकर हमेशा के लिये बन्द हो रहा है। यह भी देखना होगा कि आगे इस भवन का इस्तेमाल किस तरह से मोदी सरकार करती है क्योंकि उनकी विचारधारा के विपरीत वैचारिकी व सैद्धांतिकी का प्रवर्तन करने वाली सारी इमारतों को वे ऐसा रूप देना चाहते हैं कि इतिहास उनका पीछा छोड़ दे।
यहां का सारा माल-असबाब अब नये संसद भवन में तो चला जायेगा लेकिन देखना होगा कि क्या नया संसद भवन लोकतंत्र को वैसा ही मजबूती प्रदान करेगा, जैसा इस भवन के दोनों सदनों- लोकसभा व राज्यसभा ने किया है? देखना यह भी होगा कि क्या प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित असहमति के भी सम्मान की उज्ज्वल परम्परा का निर्वाह नयी संसद कर पायेगी? हालांकि पिछले 9 वर्षों से अधिक समय से देश तो असहमति के कुचलने के ही दृष्टांतों का साक्षी रहा है- संसद के भीतर ही नहीं बल्कि बाहर भी।
लोकसभा का चुनाव अगले साल के मध्य में निर्धारित है। मोदी इसके पहले ऐसा भवन बनवा लेना चाहते थे जिस पर उनका नाम ऐसा लिखा हो जो मिटाया न जा सके। सम्भवत: इसलिये कोरोना के वक्त इसका शिलान्यास हुआ और ढाई-तीन वर्षों की रिकार्ड गति से इसे पूरा कर लिया गया। यह वही समय था जब असंख्य लोग कोविड-19 की पहली और दूसरी लहर की चपेट में आकर आक्सीजन, एंबुलेंसों, अस्पताल में बिस्तरों की कमी से परेशान थे। श्मशान घाटों में लम्बी कतारें लगी थीं और मृत शरीर या तो नदियों में बहाये जा रहे थे अथवा नदी किनारे रेतों में दबाये जा रहे थे। दुनिया भर में जब सारी सरकारें अपने सारे वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल लोगों के बचाने में कर रही थीं, मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट सेंट्रल विस्टा निर्बाध रूप से साकार हो रहा था। संसद लोगों के लिये होती है परन्तु यह भवन लोगों की जान की परवाह किये बगैर पूरा हो रहा है जिसमें प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में बैठने का गौरव मोदी मंगलवार को प्राप्त करेंगे। एक धर्मनिरपेक्ष देश की सर्वोच्च पंचाय़त का उद्घाटन एक धर्म विशेष के आराध्य की पूजा-अर्चना के साथ होना साफ संदेश है कि मोदी एक धर्म विशेष को वरीयता देते हैं। सबसे अच्छी बात यह होती कि इसमें सभी धर्मगुरु आमंत्रित होते। ऐसा हो तो बहुत अच्छा है।
मोदी ने आश्चर्यजनक ढंग से ऐसे अनेक नामों का उल्लेख किया जिनका उच्चारण करने से वे कतराते हैं या उनकी सार्वजनिक आलोचना करते हैं। ऐसे लोगों में कांग्रेस के प्रधानमंत्रीगण नेहरू व लालबहादुर शास्त्री से लेकर मनमोहन सिंह तक शामिल हैं। उन्होंने संसद भवन की महत्ता व शक्ति को अनेक सन्दर्भों एवं उदाहरणों से स्थापित तो किया परन्तु यह समझाने में वे असफल रहे कि अगर यह भवन इतना महत्वपूर्ण है तो उसे छोड़कर नया भवन क्यों अपनाया जा रहा है जबकि सच्चे लोकतांत्रिक देशों के सांसद अपनी ऐतिहासिक इमारतों में ही बैठकर जनसेवा करते हैं। उनका बार-बार यह कहना कि नये भवन में नयी ऊर्जा, नये संकल्पों और नये विश्वास के साथ काम होगा, कहीं से इतने बड़े निर्णय को तर्कसंगत नहीं ठहराता क्योंकि ऊर्जा, संकल्प और विश्वास का सम्बन्ध तो मन से है। भला सीमेंट और सरियों से बनी इमारत से उसका क्या लेना-देना है? आखिरकार वर्ष 1947 में 14 व 15 अगस्त की रात को नेहरू ने जो अपना महान भाषण 'नियति से साक्षात्कारÓ (ट्रिस्ट विद डेस्टिनी) को पढ़ा था, वह भी तो अंग्रेजों की बनवाई इसी इमारत के इसी हाल में पढ़ा था जहां खुद मोदी ने 9 वर्षों से अधिक शासन किया और कई फैसले लिये हैं। यह अलग बात है कि वे सारे असफल सिद्ध हुए जिन्होंने देश को बदहाल व विभाजित ही किया है।
सम्भवत: अपनी इन्हीं नाकामियों से पीछा छुड़ाने के अलावा इतिहास से खुद के साथ तमाम भावी पीढ़ियों को काटने के लिये मोदी नयी इमारत का रुख कर रहे हैं। शायद यह भवन उन्हें उदात्त लोकतांत्रिक मूल्यों और संसदीय मर्यादाओं की बारम्बार याद दिलाता होगा। भारत के जिन महान आदर्श पुरुषों की वे आलोचना करते हुए भी उनके समकक्ष होना चाहते हैं, उन्होंने मोदी को इस भवन की चारदीवारियों के बीच सहज नहीं होने दिया होगा। इतिहास से वे अलग दिखना चाहते हैं, इसलिये वे इससे बचकर अपने लिये अलग शरणस्थली निर्मित कर चुके हैं, जहां दूसरे दिन की कार्रवाई होगी, इस सत्र के तहत 22 सितम्बर तक होगी और आगे भी होती रहेगी। शायद मोदी सोचते होंगे कि नये भवन में जाने से इतिहास नये सिरे से लिखा जायेगा जिसमें उनकी नापंसदगी के लोग व घटनाएं नहीं होंगीं और अकेले वे ही होंगे, तो वे भूल कर रहे हैं। पते बदल जाने से इतिहास नहीं बदलता।


