विलुप्त होते जा रहा ग्रामीण अंचलों का पारंपरिक सुवा नृत्य
सुआ नृत्य और गीत की परंपरा धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर;
खरोरा। सुआ नृत्य और गीत की परंपरा धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर है। दशहरा पर्व के बाद से ही घरों-घरों सुआ नर्तक दलों की दस्तक शुरू हो जाती थी, जो अब नहीं दिखाई दे रही है। हालांकि पुरानी परंपरा और सभ्यता के अनुसार बड़ों की जगह बच्चों को सुआ नृत्य के लिए घर-दुकानों में घुमते देखा जा सकता हैं। किंतु यह परंपरिक सुवा नृत्य विलुप्त होती जा रही है।
उल्लेखनीय है कि गाँवो में दशहरा के बाद से ही सुआ नर्तक दलों की मौजूदगी नजर आती थी, लोग स्वयं होकर नर्तक दलों को घर के सामने और आंगन में नचाते थे। त्योहार की खुशी जाहिर करने की यह एक परंपरा है। नर्तक दलों को लोग अपनी क्षमतानुसार रुपए-पैसे, अनाज देते थे। बुजुर्गों का यह भी कहना है कि पृथक राज्य बनने के बाद जहां छत्तीसगढ़ी लोक-कला संस्कृति को प्रोत्साहन मिलना था, वहां अब अन्य प्रांत के लोक-कला, संस्कृति का अधिक महत्व देखा जा रहा है।
नवरात्र पर दुर्गा पूजन की परंपरा है। अब इसमें गरबा उत्सव भी देखा जा रहा है। लगातार इसका प्रचलन बढ़ रहा है, हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन ऐसे आयोजनों पर जैसी भव्यता होती है, खर्च किए जाते हैं। उस तरह से सुआ नृत्य पर फोकस नहीं किया जाता।
बुजुर्गों के अनुसार पहले महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में सुआ नृत्य के लिए बड़ी संख्या में पहुंचती थीं। लेकिन कुछ अर्से से अब यह परंपरा बच्चियों तक सीमित देखी जा रही है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्र में सुआ नृत्य के लिए बच्चियों के अलावा महिलाओं का समूह निकलता है। गीत गाकर और ताली बजाकर नृत्य करते हैं। लेकिन गाँवो में यह प्रथा अब कम नजर आती है।