प्रभाकर चौबे की कविताओं ने किया भाव-विभोर

सुप्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार एवं कवि प्रभाकर चौबे ने अपनी कविताओं के माध्यम से आज के समाज में व्याप्त विषमताओं को उजागर किया;

Update: 2017-07-10 16:26 GMT

रायपुर। सुप्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार एवं कवि प्रभाकर चौबे ने अपनी कविताओं के माध्यम से आज के समाज में व्याप्त विषमताओं को उजागर किया। उनके एकल कविता पाठ का आयोजन छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने रविवार को किया।

इस अवसर पर उन्होंने अपनी कविताओं को दो चरणों में सुनाया। पहले चरण में पूर्व में लिखी गयी कविताएं जैसे शुभ लाभ, 15 मार्च 2002, बार-बार वही, स्त्री विमर्श, गांव का नाला आदि थी। दूसरे चरण में वर्तमान में लिखी गयी कविताएं - बेईमान कहीं के, स्त्री व कहो भाई श्रीकांत शामिल थी।

उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुये डॉ. उर्मिला शुक्ल ने नाले वाली कविता को हतप्रभ करने वाली कहा। उनकी स्त्री विमर्श वाली कविताएं आज के स्त्री विमर्श से काफी आगे है। आज का स्त्री विमर्श कटघरे में कैद है जिसे उन्होंने बाहर निकाला। इसी तरह तेजिन्दर सिंह गगन ने कहा कि उनकी कविताओं ने उन्हें भाव-विभोर कर दिया तथा वे अभिभूत हुये। उनकी कविताएं मन के भीतर उतर गयी। विद्या गुप्ता, भिलाई ने उनकी इस बात को कि वे स्त्री के सामने अपने-आपको छोटा पाते हैं की सराहना की। स्त्री ने सदियों से लड़ाई लड़ी है। आज हमारी यह यात्रा पूरी हो गयी।

प्रो. रामकृष्ण भावे ने कहा कि कविता में दंभ होता है। थोड़े समय में अधिक बात कहने की क्षमता कविता में होती है। जैसे रेल अनेक जगहों को जोड़ती है उसी प्रकार श्री चौबे  ने अपने गांव के नाले के माध्यम से समुद्र को जोड़ते हुये पूरे विश्व से जुडऩा बताया। विनोद साव ने श्री चौबे  को स्थापित व्यंग्यकार बताया। व्यंग्य की चेतना उनकी सारी विधाओं में दिखती है। उन्हें गांव की विरासत मिली है तथा उनकी कविताओं में ग्रामीण पात्र विद्यमान है। डॉ. गणेश पांडेय के अनुसार श्री चौबे की कविताएं जीवन को जीने की प्रेरणा देती हैं। कविताओं के माध्यम से उन्होंने सूक्ष्म संसार को रचा है। उनकी कविताएं 'देखन में छोटे लागे भाव लगे गंभीर जैसी हैं।

प्रारंभ में सम्मेलन के अध्यक्ष ललित सुरजन ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने अपने स्वागत उद्बोधन में इस बात की चिंता व्यक्त की कि आज देश भयावह विचार शून्यता से गुजर रहा है। हमने सोचना बंद कर दिया है। जो चर्चाएं होती हैं वह फर्जी किस्म की लगती है। हर व्यक्ति आतंकित महसूस कर रहा है। एक समय था जब हम दुनिया की बातें करते थे। एशिया में कितने सारे देश गुलामी की जंजीर में जकड़े हुये थे। 1947 में आजादी के बाद आत्मनिर्भरता पर बातचीत होती रही। आज की इस स्थिति में साहित्यकार का दायित्व क्या है यह न सिर्फ सोचने की बल्कि गंभीरतापूर्वक चिंतन करने की बात है।

कौन हमारा दोस्त है व कौन हमारा दुश्मन है यह पहचानना मुश्किल है। जो टीवी में दिखाया जाता है उसे ही हम सच मान लेते हैं। ऐसे समय में प्रभाकर चौबे की कविताओं का पाठ सामयिक है।

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से डॉ. सुशील त्रिवेदी, डॉ. राकेश तिवारी, प्रकाश मंगलेश सोहनी, अनुज शर्मा, जमालुद़दीन, शोभा यादव, सुधीर शर्मा, सुशील यदु, जी.आर. नायक, राजेश गनौदवाले, छबीराम वर्मा, माया सुरजन, राजेन्द्र ओझा, नंद कंसारी, आलोक वर्मा, निसार अली, डॉ. सत्यभामा आडिल, शिव टावरी, एम.बी. चौरपगार, अरूणकांत शुक्ला, चेतन भारती, तुहीन देब सहित दुर्ग, भिलाई, महासमुंद, धमतरी, खैरागढ़, अंबिकापुर, जगदलपुर के साहित्यकार उपस्थित थे। 

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