अस्वच्छ मानसिकता से स्वच्छ भारत?
हकीकत यह है कि हमारा समाज, ज्ञान, विज्ञान और सभ्यता के क्षेत्र में कबीलाई और 'ई' विकृत मानसिकता में जी रहा है;
हकीकत यह है कि हमारा समाज, ज्ञान, विज्ञान और सभ्यता के क्षेत्र में कबीलाई और 'ई' विकृत मानसिकता में जी रहा है। शिक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। टॉपरों के ज्ञानबोध की झलक हम देख रहे हैं? मूर्खता परोसने के सारे संजाल बुन लिए गए हैं । फर्जी देशभक्ति की बातें की जा रही हैं और मनुष्यता की ईंट से ईंट बजाने के बीज रोपे जा रहे हैं।
दलित, अल्पसंख्यकों और निर्बल समाज पर जुल्म बढ़ रहे हैं। साक्षर होने का मतलब हमने महज अक्षर ज्ञान मान लिया है। ऐसे में हमारा समाज बर्बर और असभ्य बना रहेगा। प्रवचनों से समाज सभ्य नहीं बनता। जरूरत यह है कि अपने समाज को सभ्य और सुसंकृत बनाने की दिशा में काम हो जिससे स्वस्थ मानसिकता का विकास हों।
राजधानी दिल्ली में विगत हफ्ते गुरु तेग बहादुर मेट्रो स्टेशन के पास दो युवकों ने एक बत्तीस साल के ई-रिक्शा चालक की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी । ई-रिक्शा चालक ने उन्हें मेट्रो स्टेशन परिसर में पेशाब करने से रोका थायानी कि उसने अपने सामाजिक दायित्व को निभाया था और युवकों को दायित्व से चूकने का बोध कराया था।
उसका यह कृत्य प्रशंसा अैर गर्व करने वाला होना चाहिए था मगर जिन्हें वह मना किया था, वे रात तकरीबन 8.30 बजे पच्चीस युवकों के साथ फिर आये और रिक्शा चालक को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। जाहिर है युवक पढ़े-लिखे थे मगर उनकी मानसिकता विकृत थी।
हमारे यहां दायित्वबोध कराने का यही पुरस्कार मिलेगा तो समाज की दशा और दिशा, दोनों पतन की ओर जायेगी। रिक्शा चालक अपने परिवार का कमाऊ सदस्य था। उसके चले जाने से पूरा परिवार लाचार हो गया। हमने हमेशा के लिए यह संदेश दे दिया कि 'मूंदौं आंख कतौ कुछ नांहीं' । अर्थात जो भी बुरा हो रहा है, उसे होने दिया जाये। उसे रोकना और टोकना, जान की कीमत पर बन आयेगी ? स्वच्छ मानसिकता के निर्माण के लिए राष्ट्रगान गाना ही पर्याप्त नहीं है? विकृत मानसिकता के फैलाव को रोकना जरूरी है।
विकृत मानसिकता को मजबूती से फैलाया जा रहा है कि अपने काम से काम रखो ? अनावश्यक समाज सुधारक न बनो? अपना रास्ता नापो, आदि-आदि। राजनीति अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए और विभिन्न तंत्र अपने हितों के दुरुपयोग के लिए इसी नजरिये से काम कर रहे हैं । हमने ऐसा ही भारत बनाया है।
गांव, शहर और महानगरों की, हर कहीं, साफ-सफाई का सीधा रिश्ता हमारे जीवन, जीवन की गुणवत्ता और देश की पहचान से जुड़ा है। जब देश की राजधानी में स्वस्थता के प्रति हमारी यह मानसिकता है तो अविकसित क्षेत्रों की मानसिकता की कल्पना की जा सकती है। अस्वच्छता के कारण पूरी दुनिया में हमारी भद्द पिटती है। खुले में थूकना, शौच या पेशाब करने की प्रवृत्ति, असभ्यता है। यह समग्र और सही शिक्षा न मिलने का मसला है। यह समाज के निम्नस्तर औरआर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक गरीबी का सूचकांक है। समाज का विकास किए बिना और उचित वैज्ञानिक शिक्षा दिए बिना, अस्वच्छ मानसिकता में बदलाव संभव नहीं है।
रिक्शा चालक या उसके परिवार को अकारण जो सजा मिली है, उसकी पृष्ठभूमि समाज की अस्वस्थ मानसिकता में ही छिपी है। कैसी बिडंबना है कि मेट्रो स्टेशन सहित, किसी भी सार्वजनिक स्थल का उपयोग करने वाला, उसकी सुरक्षा और सफाई की जिम्मेदारी नहीं निभायेगा तो एक अरब चालीस करोड़ के इस देश में स्वच्छ भारत का निर्माण कैसे संभव है? आखिर हमारी तैयार हो रही पीढ़ी के अंदर यह दायित्व बोध क्यों नहीं आया?
अंग्रेजों के जाने के बाद हमने समाज के सामाजिक दायित्वों की क्या परिभाषा तय की? क्या हमने तैयार हो रही युवा पीढ़ी को देशहित या समाजहित में स्वयं आगे आने, अपना योगदान देने का कोई रास्ता सुझाया या उन्हें अपने राजनैतिक हितों के लिए इस्तेमाल करने, उन्हें भटकाने और कुलबर्गी, पनासरे जैसे विद्वानों को प्रतिद्वंदी मानने, उन्हें खत्म करने की शिक्षा दी? अगर हमारी नीति इतनी संकीर्ण रही तो कैसे हम उम्मीद कर सकते हैं कि लम्पट हो रही युवा पीढ़ी को उचित और अनुचित का बोध होगा?
यह पीढ़ी, कैसे ई-रिक्शा चालक के उचित सलाह को सहज स्वीकार कर, उसके दायित्वबोध को सराहेगी ? युवा पीढ़ी में अगर दायित्व बोध नहीं आया है तो इसके लिए जिम्मेदार हमारी नीतियां और संस्कृतियां हैं ।
राष्ट्र के प्रति हमारी पहली और वास्तविक जिम्मेदारी क्या होनी चाहिए? मनुष्यता की हिफाजत से इतर अगर युवकों को अपराध की हिफ ाजत का अपरोक्ष बढ़ावा दिया जायेगा तो वे उचित सलाह को भी बुरा मानेंगे और अपराध के साथ जीवन बिताते रहेंगे। हकीकत यह है कि हमारा समाज, ज्ञान, विज्ञान और सभ्यता के क्षेत्र में कबीलाई और 'ई' विकृत मानसिकता में जी रहा है। शिक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है।
टॉपरों के ज्ञानबोध की झलक हम देख रहे हैं? मूर्खता परोसने के सारे संजाल बुन लिए गए हैं । फ र्जी देशभक्ति की बातें की जा रही हैं और मनुष्यता की ईंट से ईंट बजाने के बीज रोपे जा रहे हैं। दलित, अल्पसंख्यकों और निर्बल समाज पर जुल्म बढ़ रहे हैं। साक्षर होने का मतलब हमने महज अक्षर ज्ञान मान लिया है। ऐसे में हमारा समाज बर्बर और असभ्य बना रहेगा।
प्रवचनों से समाज सभ्य नहीं बनता। जरूरत यह है कि अपने समाज को सभ्य और सुसंकृत बनाने की दिशा में काम हो जिससे स्वस्थ मानसिकता का विकास हों। बिना स्वस्थ मानसिकता के स्वस्थ समाज और स्वच्छ भारत की कल्पना संभव कहां ?
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा