...अम्मा चलीं मदर ऑफ डैमोक्रेसी कहलाने
जहां तक भूख सूचकांक का ही सवाल है, पिछले एक साल में भारत चार अंक नीचे ही खिसका है

- राजेंद्र शर्मा
जहां तक भूख सूचकांक का ही सवाल है, पिछले एक साल में भारत चार अंक नीचे ही खिसका है। 2022 के सूचकांक में भारत, 107वें नंबर पर था। वास्तव में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मोदी राज में भूख सूचकांक पर भारत लगातार और वास्तव में तेजी से नीचे ही खिसकता रहा है। फिर भी, 2006 से शुरू हुए इस सूचकांक में शामिल भूख के मारे देशों की संख्या चूंकि लगातार बढ़ती रही है।
नरेंद्र मोदी राज के गरीबों का कल्याण करने के अति-प्रचार पर पानी फेरते हुए, एक बार फिर वैश्विक भूख सूचकांक तैयार करने वाले प्रतिष्ठिïत संगठनों ने दिखाया है कि मौजूदा निजाम में गरीबों की हालत, वास्तव में बद से बदतर होना जारी है। कहने की जरूरत नहीं है कि भूख का पैमाना, आम जनता की दशा का न्यूनतम से न्यूनतम पैमाना है, जो दिखाता है कि पेट भर जरूरी आहार हासिल करने की न्यूनतम जरूरत पूरी कर पाने से भी गरीब कितनी दूर हैं। और इस न्यूनतम पैमाने पर भारत, जो जीडीपी के लिहाज से दुनिया की पांचवीं बल्कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दम भरता है और जल्द ही तीसरे स्थान पर पहुंच जाने की शेखी मारता है, 2023 के लिए की गई गणना में, दुनिया के उल्लेखनीय रूप से भूख से प्रभावित 125 देशों में, 111वें नंबर पर निकला है। पड़ौसी देशों में लंबे पश्चिमी कब्जे तथा उसके खिलाफ युद्घ से तबाह अफगानिस्तान और अफ्रीकी गरीब देशों में सोमालिया समेत, कुछ चौदह देश ही हैं, जहां की जनता भारत से भी ज्यादा भूख की मारी हुई है। याद रखने की बात है कि बांंग्लादेश की तो बात छोड़ ही दें, पड़ौसी देशों में उस पाकिस्तान में भी हालात भारत से बेहतर हैं, जहां आटे के ऊंचे दाम और भूख के चलते दंगों की खबरें भारत का गोदी मीडिया बड़े चटखारे लेकर प्रसारित करता है। और उस श्रीलंका से भी, जहां पिछले साल भूख की मारी जनता बगावत पर उतर आई थी और राष्टï्रपति, प्रधानमंत्री समेत सरकार को एक मौके पर तो देश छोड़कर ही भागना पड़ा था!
जहां तक भूख सूचकांक का ही सवाल है, पिछले एक साल में भारत चार अंक नीचे ही खिसका है। 2022 के सूचकांक में भारत, 107वें नंबर पर था। वास्तव में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मोदी राज में भूख सूचकांक पर भारत लगातार और वास्तव में तेजी से नीचे ही खिसकता रहा है। फिर भी, 2006 से शुरू हुए इस सूचकांक में शामिल भूख के मारे देशों की संख्या चूंकि लगातार बढ़ती रही है, देशों की भूख की स्थिति की शुद्घ गणना का पैमाना मानने के बजाय, इसे भूख के पहलू से देशों की तुलनात्मक स्थिति का पैमाना मानना ही ज्यादा सटीक होगा। मिसाल के तौर पर पिछले साल भारत, 121 देशों में से 107वें नंबर पर था, जबकि इस बार इस सूचकांक में शामिल देशों की संख्या, चार देशों के और जुड़ने के साथ, 125 हो गई है और भारत 111वें अंक पर खिसक गया है। ऐसे में मुश्किल होते हुए भी सैद्घांतिक रूप से यह असंभव नहीं है कि सभी चार देश, भारत से कम भूख वाले जुड़े हों और इसलिए, भारत का पिछले साल से चार अंक नीचे खिसक जाना, अपने पीछे उसके जहां के तहां बने रहने की ही सच्चाई छुपाए हो। बहरहाल, भारत किसी भी तरह से पिछले साल की अपनी स्थिति के मुकाबले, दूसरे देशों की तुलना में भी रत्तीभर सुधार का भी दावा नहीं कर सकता है।
इस सिलसिले में यह भी गौरतलब है कि आयरलैंड तथा जर्मनी की दो गैर-सरकारी संस्थाओं—कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्ट हंगरहिल्फ—द्वारा हर साल तैयार की जाने वाली विश्व में भूख की स्थिति पर यह प्रतिष्ठिïत रिपोर्ट, महज आहार और पोषण की उपलब्धता पर ही आधारित नहीं होती है। इस रिपोर्ट में कुल चार पैमानों को लिया जाता है यानी आहार गत स्थिति के अलावा, पांच वर्ष तक की आयु के बच्चों की अल्पविकास या वेस्टिंग यानी लंबाई के अनुपात में वजन के कम रहने का दर्जा। तीसरा पैमाना है, बच्चों का ठिग्गापन या स्टंटिंग यानी उम्र के अनुपात में, लंबाई कम रहने का दर्जा। और आखिरी पैमाना है, पांच वर्ष तक के बच्चों के लिए मृत्यु दर। भूख की दशा के इस माप में, आहार या पोषण की आम स्थिति के अलावा, बच्चों से संबंधित तीन पैमाने जोड़े जाना, विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह इस माप को बच्चों के विकास पर पड़ रहे प्रभाव का माप करने के जरिए, सिर्फ तात्कालिक भूख से बढ़कर, भूख के टिकाऊ रुझान का माप बना देता है। और यह माप, किसी भी देश के भविष्य के लिए परिप्रेक्ष्य के रूप में भूख को सामने लाता है, यह तो खैर स्वत:स्पष्टï ही है।
यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में 18.7 फीसद बच्चे वेस्टिंग के शिकार हैं। यह अनुपात, दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। इस अनुपात का 15 फीसद से ज्यादा होना ही 'अत्याधिक' चिंताजनक की श्रेणी में आता है और भारत में यह अनुपात इस श्रेणी में भी कहीं ज्यादा है। भारत, भूख के मारे इन 125 देशों भी इकलौता है, जहां चाइल्ड वेस्टिंग को 'अत्याधिक' चिंता की श्रेणी में रखा गया है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसे ही कुपोषण का सबसे बुरा रूप तथा खराब संकेतक माना जाता है। जहां तक बच्चों की ही स्थिति से जुड़े दूसरे पैमाने, ठिग्गेपन या स्टंटिंग का सवाल है, भारत में 35 फीसद बच्चे अपनी उम्र के अनुपात में कम लंबे हैं। इस मामले में भी भारत की स्थिति को 'अत्यधिक' जोखिम की स्थिति की श्रेणी में रखा गया है, हालांकि इस मामले में भारत की ही स्थिति सबसे बुरी नहीं है।
कई अफ्रीकी तथा पूर्वी एशिया के भी कुछ देशों की स्थिति, इस मामले में भारत से भी बदतर है। तीसरे पैमाने पर, जो कि पांच वर्ष तक आयु के बच्चों की मौत का पैमाना है, भारत में करीब 3.1 फीसद बच्चे पांच वर्ष तक नहीं जीते हैं और इस मामले में भारत को 'कम जोखिम' की श्रेणी में रखा गया है। रही बात आबादी के कुपोषण या अल्पपोषण की तो, 16.6 फीसद अल्पपोषित आबादी के साथ, भारत की स्थिति को 'मध्यम' जोखिम की स्थिति की श्रेणी में रखा गया है। और कुल मिलाकर, भारत का ग्लोबल हंगर इंडैक्स स्कोर 28.7 है, जो भूख की 'गंभीर' स्थिति को दिखाता है। इस सूचकांक में शामिल किए गए 125 देशों में से भी सिर्फ 40 देश ही 'गंभीर' भूख की श्रेणी में आते हैं और दुनिया का सबसे तेजी से विकास कर रहा देश होने का दावा करने वाला भारत, इसी श्रेणी में शामिल है।
हैरानी की बात नहीं है कि मोदी राज ने पिछले कई वर्षों की तरह, एक बार फिर विश्व भूख सूचकांक को सिरे से खारिज कर दिया है। वास्तव में मोदी राज का यह तरीका ही बन गया है कि जो भी सूचकांक, उसके शानदार प्रदर्शन की गवाही नहीं देता है, उसे गैर-तथ्यपूर्ण से लेकर, दुर्भावनापूर्ण तक कहकर खारिज ही कर दिया जाता है। मिसाल के तौर पर, प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर भारत, 2023 में दुनिया के 180 देशों में खिसक कर 161वें स्थान पर पहुंच गया है, जबकि पिछले साल वह 151वें स्थान पर था। कहने की जरूरत नहीं है कि भूख सूचकांक की ही तरह, प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर भी भारत तेजी से रसातल की ही ओर ही बढ़ता जा रहा है और मोदी राज इस सूचकांक को भी उतनी ही हिकारत के साथ खारिज करता आया है। ऐसा ही किस्सा, धार्मिक स्वतंत्रता आदि से संबंधित रिपोर्टों का भी है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों को ही नहीं, देश के स्तर पर भी मोदी राज ने अप्रिय वास्तविकताओं को छुपाने के लिए, आंकड़ों और सूचकांकों को दबाने को ही नियम बना लिया है। लेकिन, इस मामले में तो मोदी सरकार, भूख की सच्चाइयों को झुठलाने के लिए यह दलील देने की हद तक चली गई है कि भारत में बच्चों की स्टंटिंग तथा वेस्टिंग को, भूख के साथ जोड़ना ही गलत है और पांच साल से कम की आयु में मौतों का भी भूख से संबंध नहीं जोड़ा जा सकता है, आदि। यानी मोदी सरकार सच को छुपाने के लिए यह दलील देने तक के लिए तैयार है कि बच्चों के स्वास्थ्य पर, जिसमें उनका जीवन भी शामिल है, भूख के प्रभाव को, भूख का संकेतक नहीं माना जा सकता है! लेकिन, यह सिर्फ भूख का नहीं, ऐसी भूख का मामला है, जो देश के भविष्य को, अगली पीढ़ी को ही कमजोर कर रही है।
लेकिन, जैसा कि मोदी राज ने नियम ही बना लिया है, वह सौ बार झूठ बोलकर, सच को ही नकारने में लगा है। भूख सूचकांक पर देश के दयनीय प्रदर्शन को झुठलाने की कोशिश में, प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में उत्तराखंड के अपने सरकारी दौरे पर जोर-शोर से इसकी डींग हांकी कि उनके राज में पिछले पांच साल में साढ़े तेरह करोड़ लोगों को गरीबी से ऊपर उठाया गया है! यह दावा, गरीबी के ऐसे झूठे मापों की तुलना के आधार पर किया जा रहा है, जिनके आधार ही अलग-अलग होने की वजह से, जिनकी तुलना की ही नहीं जा सकती है।
सच्चाई यह है कि भारत में स्वतंत्रता के बाद से, गरीबी को ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2200 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी आहार तक पहुंच के जिस मानक से परिभाषित किया जाता था, उसे ही पिछले ही अनेक वर्षों में धीरे-धीरे त्याग दिया गया। नतीजा यह हुआ कि वास्तव में आहार की स्थिति दरिद्र से दरिद्रतर होती गई, फिर भी सरकारी आंकड़ों में गरीबी घटती गई। और अब तो मोदी राज ने गरीबी के माप के उस दिखावे को भी त्याग दिया है और मनमाने संकेतकों के बल पर, मनचाहे दावे किए जा रहे हैं। नतीजा यह कि सरकारी दावों में गरीबी जितनी तेजी से घट रही है, जनता के बीच भूख उतनी ही तेजी से फैल रही है। और वह शासन जो अस्सी करोड़ लोगों को पांच किलो मुफ्त राशन बांटने का इतना ढोल पीटने के बावजूद, देश को 'गंभीर' भूख के चंगुल तक से निकाल नहीं पा रहा है, खुद ही अपने मुंह से मदर ऑफ डैमोक्रेसी के दावे कर रहा है।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


