टूट रहे हैं मठ और गढ़ सब
पहलवानों ने नरेश टिकैत, राकेश टिकैत की बात मान ली, अच्छा किया। लेकिन पांच दिन के अल्टीमेटम से सरकार की मर्जी बदलेगी, ये खुशफहमी नहीं पालना चाहिए

- सर्वमित्रा सुरजन
पहलवानों ने नरेश टिकैत, राकेश टिकैत की बात मान ली, अच्छा किया। लेकिन पांच दिन के अल्टीमेटम से सरकार की मर्जी बदलेगी, ये खुशफहमी नहीं पालना चाहिए। खुद किसानों ने एमएसपी के वादे में आकर साल भर से ऊपर चला आंदोलन खत्म किया था और अपने घरों-खेतों को लौट गए थे। मोदीजी की तरह वो ये भी नहीं कह सकते कि हम जिंदा लौट गए।
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
मुक्तिबोध की इन पंक्तियों को पत्रकार तो गंभीरता से नहीं ले रहे। वे तो गढ़ और मठों के निर्माण में सत्ता के साझेदार बन रहे हैं। लेकिन प्रकृति ने इन पंक्तियों को व्यवहार में उतारने का फैसला कर लिया। पिछले दिनों उज्जैन में कुछ देर की आंधी में महाकाल लोक में सप्तऋ षियों की छह प्रतिमाएं धराशायी और खंडित हो गईं। कांग्रेस इसे भाजपा के भ्रष्टाचार का नमूना बता रही है, भाजपा इसे प्राकृतिक आपदा बता रही है। लगता है अब भाजपा के शासन में प्राकृतिक आपदाओं की परिभाषा भी बदली जाएगी। भाजपा ये भी बता दे कि क्या मोरबी में पुल भी प्राकृतिक आपदा के कारण ही गिरा था। वैसे भाजपा जिसे प्राकृतिक आपदा बता रही है, दरअसल वो प्रकृति का जवाब है, वो गढ़ और मठ तोड़ रही है। गुजरात के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में बारिश के बाद बना झरना भी भाजपा की परिभाषा के अनुसार स्टेडियम को प्रकृति की देन हो सकता है। मगर ये झरना सब्र का प्याला भर जाने की निशानी है। आखिर कोई कितनी लफ्फाज़ी बर्दाश्त कर सकता है।
सरदार पटेल से स्टेडियम का नाम नरेन्द्र मोदी स्टेडियम हो गया, तो क्या खेल और प्रकृति के नियम बदल जाएंगे। नियम तो वही रहेंगे, जो पहले से चले आ रहे हैं। स्टेडियम हजारों दर्शकों का बोझ, उनके शोर को बर्दाश्त कर लेता, लेकिन ये बात उससे भी सहन नहीं हुई कि स्टेडियम बनाएं अपने नाम पर और खिलाड़ियों के अपमान पर मोदीजी मौन रहें। लिहाजा बारिश आते ही स्टेडियम भी फूट-फूट कर रो पड़ा। स्टेडियम ने ये ध्यान भी नहीं रखा कि आईपीएल का बाराती शोर है। उसके रोने से दहेज की राशि बर्बाद हो जाती। लेकिन बात संभल गई, आईपीएल फाइनल में जिसे, जैसा जीतना था, जीत ही गया। उधर नुकसान तो नहीं हुआ, लेकिन मोदीजी की साख पर पानी फिरने का डर बढ़ गया है। जोड़-तोड़ से सत्ता चलाने वालों की बुद्धि ने पानी से भरे स्टेडियम को सुखाने का भी जुगाड़ लगाया। स्पंज से पानी सोखने लगे। थोड़ी और बुद्धि लगाते तो चैनल पर ब्लैक और व्हाइट सबका हिसाब करने वाले चौधरीजी को बुला लेते, उनके (कु)तर्कों के आगे ही स्टेडियम का गला सूख जाता। या फिर संसद में बैठे उन (कु)ख्यात नेताओं को बुला लेना चाहिए था, जिनके आगे न्याय की स्याही भी सूख गई है।
न किसानों को कुचलने पर न्याय मिला, न गोडसे का महिमामंडन करने वालों को सजा हुई, न यौन शोषण के आरोपी पर कोई कार्रवाई हुई। उनके अट्टहास से संसद का नया भवन गूंज रहा है और लोकतंत्र उसके आगे थर्रा रहा है। उस अट्टहास का लाइव शो स्टेडियम में कराना चाहिए था, सब कुछ ऐसा सूखता कि हरी घास पर पपड़ी जम जाती। फिर उस पपड़ी को हटाने के लिए टेंडर निकलते, घास हरी करने के लिए रंगरेजों को काम मिलता, मोदीजी इसके नियुक्ति पत्र भी बांटते और सरकार बताती कि किस तरह व्यापारियों को काम और बेरोजगारों को रोजगार दिया जा रहा है। लेकिन स्पंज के जुगाड़ ने इन संभावनाओं पर भी पानी फेर दिया। भाजपा की व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी को शोध करवाना चाहिए कि भारत में स्पंज के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में नेहरूजी की क्या भूमिका है। नेहरूजी का नाम स्पंजकारों में किसी तरह जुड़ जाए, तो मोदीजी का काम आसान हो जाएगा।
वैसे स्टेडियम का पानी सुखाने में इसरो की मदद भी ली जा सकती थी। कुछ दिन पहले ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के अध्यक्ष एस. सोमनाथ ने कहा है कि बीजगणित, वर्गमूल, समय की अवधारणा, वास्तुकला, ब्रह्मांड की संरचना, धातु विज्ञान और यहां तक कि विमानन जैसी वैज्ञानिक अवधारणाएं सबसे पहले वेदों में पाई गई थीं। ये भारतीय खोजें अरब देशों के माध्यम से यूरोप पहुंचीं और फिर पश्चिमी अवधारणाओं के रूप में सामने आईं। इसरो के मौजूदा अध्यक्ष ने ये भी बताया कि खगोल विज्ञान, चिकित्सा, विज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान और वैमानिकी विज्ञान में निष्कर्ष संस्कृत में लिखे गए थे, लेकिन उनका पूरी तरह से शोध नहीं किया गया था। डा. विक्रम साराभाई आज होते तो ये सब सुनकर कितना खुश होते। उन्हें अफसोस भी होता कि नाहक ही वे केंब्रिज तक पढ़ने गए, यहीं भारत में रहकर वेद-पुराण पर शोध कर लेते तो अंतरिक्ष कार्यक्रम को कितना उछाल मिल जाता। हम अभी तक चांद और मंगल पर बस्तियां भी बसा चुके होते। भाजपा को अपने खुफिया सूत्रों से पता करना चाहिए कि एलन मस्क ट्विटर के जरिए वेदों के गूढ़ रहस्य तो हासिल नहीं कर रहे हैं। खैर, नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में स्पंज के इस्तेमाल से पानी सुखाने वालों को इसरो अध्यक्ष श्री सोमनाथ से आग्रह करना चाहिए था कि वे उस मंत्र और तकनीक को साझा करें, जिसके बूते ऋ षि अगस्त्य ने समुद्र का सारा जल पीकर उसे सुखा दिया था।
पानी सुखाने का यह मंत्र अब भी बड़े काम का है। पहलवानों ने अभी तो टिकैत बंधुओं के कहने पर गंगाजी में पदक बहाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया है। लेकिन सरकार को फिर से पांच दिन का अल्टीमेटम भी दे दिया है। यानी सरकार से दुखी पहलवान फिर से गंगाजी की शरण में जा सकते हैं। मान लें उन्होंने पदक बहा दिए तो भाजपा तुरंत मंत्र की शक्ति से गंगाजी के पानी को सुखाकर उन पदकों को हासिल कर सकती है। फिर सेंट्रल विस्टा या राजशाही की प्रतीक बन गई इमारतों में से कहीं भी इनका प्रदर्शन किया जा सकता है। जैसे मन की बात पर नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट पर कला प्रदर्शनी लगा दी गई, वैसी ही प्रदर्शनियां और भी लगाई जा सकती हैं। सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान लखनऊ की सड़कों पर लगे प्रदर्शनकारियों के पोस्टर, किसान आंदोलन में इस्तेमाल किए गए झंडे, बुलडोजर का मिनिएचर मॉडल, काले रंग के कपड़े, 5 सौ, हजार, दो हजार के नोट और खिलाड़ियों के पदक ऐसी तमाम चीजों की लोकतंत्र के स्मारक के तौर पर प्रदर्शनी लगाई जा सकती है। वैसे भी जब देश में राजदंड ले आया गया है, तो फिर लोकतंत्र को संग्रहालय में ही शरण लेनी पड़ेगी।
पहलवानों ने नरेश टिकैत, राकेश टिकैत की बात मान ली, अच्छा किया। लेकिन पांच दिन के अल्टीमेटम से सरकार की मर्जी बदलेगी, ये खुशफहमी नहीं पालना चाहिए। खुद किसानों ने एमएसपी के वादे में आकर साल भर से ऊपर चला आंदोलन खत्म किया था और अपने घरों-खेतों को लौट गए थे। मोदीजी की तरह वो ये भी नहीं कह सकते कि हम जिंदा लौट गए। किसान बीच-बीच में सरकार को एमएसपी की याद दिलाते रहते हैं। ऐसे ही पहलवान जंतर-मंतर से इंडिया गेट होते हुए कहां जाएंगे और सरकार को क्या-क्या याद दिलाएंगे, ये आने वाले दिनों में दिख ही जाएगा। सरकार ने तो अब नयी आरामगाह बना ली है, और मान लिया है कि राजदंड उसकी रक्षा करेगा। लेकिन अगर जनता ने कहीं मुक्तिबोध की बातों का मर्म समझ लिया और अभिव्यक्ति के खतरे उठाने को तत्पर हो गई, तो फिर गढ़ों और मठों की रक्षा राजदंड से भी नहीं हो पाएगी। तब छह नहीं कई मूर्तियां खंडित होंगी और आरामगाहों में झरने नहीं जलप्रपात नजर आएंगे।


