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भारत में कमजोर होने के बाद ईरान, इंग्लैंड में दक्षिणपंथियों की हार!

दुनिया को वापस पीछे नहीं खींचा जा सकता। सब देश यह मान रहे हैं और पीछे खींचने वाली ताकतों को पीछे कर रहे हैं

भारत में कमजोर होने के बाद ईरान, इंग्लैंड में दक्षिणपंथियों की हार!
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- शकील अख्तर

राहुल हिम्मत तो बहुत करते हैं। मोदी जी के खिलाफ हमेशा सीना तान कर खड़े रहते हैं। मगर अपनी पार्टी में हार जाते हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। अकेले दम पूरा चुनाव लड़ा। चुनाव के बाद फिर जगह-जगह घूम रहे हैं। राज मिस्त्रियों के पास, लोको पायलट के साथ, हाथरस अलीगढ़ में भगदढ़ में मारे गए लोगों के परिवार के पास, अहमदाबाद जहां बजरंग दल ने कांग्रेस के आफिस पर हमला किया वहां। हर जगह।

दुनिया को वापस पीछे नहीं खींचा जा सकता। सब देश यह मान रहे हैं और पीछे खींचने वाली ताकतों को पीछे कर रहे हैं। इंग्लैंड में 14 साल बाद कंजर्वेटिव हारे। 14 साल बहुत होते हैं। मगर यह बताते हैं कि प्रगतिशील ताकतों को हमेशा के लिए खत्म नहीं किया जा सकता।

जनता का मूल स्वभाव हमेशा और हर जगह आगे बढ़ने और बढ़ाने वाली ताकतों के साथ होता है। खुद उसके मन में कम या बदलाव का अंश न भी हो तो भी वह देश को रूका हुआ, पीछे जाता हुआ नहीं, आगे बढ़ता हुआ देखना चाहती है।

इंग्लैंड में कंजरवेटिव का मतलब वही है। जो हमारे यहां दक्षिणपंथियों का है। पहले हिन्दू महासभा इन ताकतों का प्रतिनिधित्व करती थी। अब भाजपा कर रही है। दस साल बाद वह भी कमजोर हुई है। और 303 से 240 पर आ गई है। साधारण बहुमत भी नहीं है उसके पास। अवसरवादी ताकतों के भरोसे सरकार बनाई है। नायडू और नीतीश को कब दूसरे पाले में ज्यादा संभावनाएं दिखने लगें किसी को नहीं मालूम। उनके लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना पहली प्राथमिकता है। दोनों की आखिरी पारी है। नायडू 74 साल के हैं और नीतीश 73 के। ऐसे में उनका सारा संघर्ष अब खुद को बनाए रखना है। और अगर कोई एक मौका मिल जाए चाहे कुछ ही समय के चरणसिंह, देवेगौड़ा जैसे तो वे उसे पकड़ने में चुकेंगे नहीं। मोदीजी का तीसरा कार्यकाल पूरी तरह इन दोनों की बैसाखियों पर ही टिका है। और बदलती दुनिया की खबर इन्हें भी है।

परिवर्तन केवल इंग्लैंड में ही नहीं हुआ है ईरान में भी हुआ है। वहां भी अपेक्षाकृत सुधारवादी जीते हैं। पीछे ले जानी वाली ताकतें हारी हैं। वहां राष्ट्रपति इब्राहिमी रईसी की पिछले दिनों हैलिकाप्टर हादसे में हुई मृत्यु के बाद नए राष्ट्रपति के चुनाव हुए थे। जीतने वाले मसूद पजेश्कियान प्रोफेशन से डाक्टर हैं। हार्ट सर्जन। सुधारवादी माने जाते हैं और मोरल पुलिसिंग के कड़े विरोधी। वे अन्तरराष्ट्रीय जगत में ईरान के अलग थलग पड़ने का सवाल हमेशा उठाते रहे हैं और मिलजुल कर रहने के हिमायती हैं। दूसरी तरफ हारने वाले सईद जलीली यथास्थितिवादी हैं।

ईरान के चुनाव एक बड़ा बदलाव दिखाते हैं। दुनिया और खास तौर से इस्लामिक मुल्कों के लिए कि उदारवादी ताकतों को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता। हालांकि ईरान की शासन व्यवस्था बहुत जटिल है। धार्मिक और लोकतांत्रिक दोनों पावर में होते हैं। वहां सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खोमेनई हैं और वे धार्मिक शख्सियत हैं। खोमेनेई दूसरे सर्वोच्च शासक हैं। पहले इस्लामिक क्रान्ति करने वाले खोमेनी हुए थे। जो 1971 से अपनी मृत्यु 1989 तक इस पद पर रहे। और तब से खोमेनेई हैं। वे अभी 85 साल के हैं। उनके उत्तराधिकारी का भी नाम घोषित होने वाला है। इसके लिए एक बड़ी समिति होती है विशेषज्ञ सभा जो नाम तय करती है। तो इन जटिल और धार्मिक लोकतांत्रिक मिलीजुली व्यवस्था में उदारवाद का जीतना एक बड़ी घटना है। जो यह बताती है कि किसी भी देश में सुधारों को रोकना और उदारवाद को नहीं आने देना संभव नहीं है।

इंग्लैंड में जिस बड़ी ताकत के तौर पर चार सौ पार लेबर पार्टी आई है वह बताती है कि जैसे ईरान में धार्मिक ताकतों के खिलाफ मसूद की जीत हुई वैसे अभी भी दुनिया के सबसे परंपरावादी देश इंग्लैंड में आधुनिक विचार वालों की। यहां एक रोचक तथ्य है कि भारत के लिए आजादी की घोषणा लेबर पार्टी के शासनकाल में ही हुई थी। जबकि कंजरवेटिव जिनकी अभी 14 साल बाद हार हुई। वे भारत की आजादी के घोर विरोधी थे। उनके नेता चर्चिल तो कहते थे कि भारतीय इस योग्य ही नहीं हैं कि उन्हें खुद अपनी सरकार चलाने के लिए सौंपी जाए। इसलिए हमारे यहां मिथ्या धारणाओं के कारण लोग चाहे कंजरवेटिव पार्टी के नेताओं का समर्थन करने लगें मगर सच्चाई यह है कि भारत के सच्चे दोस्त हमेशा लेबर पार्टी वाले ही रहे। इसी तरह रूस रहा। अमेरिका नहीं। मगर हमारे हुक्मरानों को अमेरिका इतना प्रिय है कि वहां उनके चुनाव में प्रचार कर आते हैं। हार गए थे। ट्रंप। फिर लड़ रहे हैं। मगर इस बार शायद वह अपने स्टार प्रचारक मोदीजी को नहीं बुलाएं।

दुनिया भर में ट्रेंड बदल रहा है। ब्राजील में दक्षिणपंथी हारे। वहां लूला दा सिल्वा ने वापसी की। मेक्सिको में दक्षिणपंथी हारे। पिछले कई सालों से केवल भाषण देने वाले और जनता में मिथ्या धारणाएं पैदा करके मूल समस्याओं से उनका ध्यान हटाने वाले जीत रहे थे। मगर अमेरिका में ट्रंप की हार फिर दूसरे बड़े देश इंग्लैंड में कंजर्वेटिव और ईरान में बड़बोलों की हार और भारत में उनका कमजोर होना वापस जनता की राजनीति का मजबूत होना माना जा रहा है।

दरअसल जनता प्रगति मेल-मिलाप भाईचारा चाहती तो है। मगर उसके लंबे रास्ते के मुकाबले कई बार उसे भाषणों के जरिए रातों रात जग बदल देने के दावे करने वाले लुभा जाते हैं। दस साल में हमारे यहां क्या हुआ। यह खुद मोदी जी नहीं बता पाए। पूरे चुनाव में केवल मुसलमान और कांग्रेस ने यह नहीं किया वह नहीं किया ही कहते रहे। उन्हें जिताया मीडिया ने। गोदी मीडिया इसीलिए कहा जाता है उसने चार सौ पार की हवा बना दी। पूरे चुनाव के दौरान और फिर एक्जिट पोल में वह चार सौ पार दिखाता रहा। अगर एक बार भी वह कह देता जो हकीकत थी कि मुकाबला कांटे का है तो मोदीजी को 240 सीटें 140 पर रह जातीं। जनता हवा के प्रभाव में आ जाती है। इसलिए मीडिया कितना बड़ा अपराधी है यह कांग्रेस नहीं समझती। वह अभी भी उसके आसपास घूमती रहती है।

मीडिया कांग्रेस को सिर्फ टुकड़ा डालती है। अपनी पसंद के नेताओं के इंटरव्यू, बाइट चेहरे दिखाती है। उसके बदले में राहुल गांधी को ब्लैक आउट करती है। राहुल के खिलाफ निंदा अभियान चलाती है। राहुल के प्रभाव को कम करने में लगी रहती है। मोदी जी जो कांग्रेस मुक्त भारत कहते हैं। उसे मीडिया अच्छी तरह समझती है। कांग्रेस के नेता नहीं समझते। उसका मतलब है राहुल मुक्त कांग्रेस। मीडिया उसी प्रयास में लगी रहती है और कांग्रेस के नेता इसमें सहयोग करते हैं। आखिर लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिषाषण पर बोलते हुए राहुल के मुंह से जी 23 निकल ही गया। जी-23 मतलब राहुल को कांग्रेस से निकालने में लगा कांग्रेसियों का ग्रुप।

राहुल हिम्मत तो बहुत करते हैं। मोदी जी के खिलाफ हमेशा सीना तान कर खड़े रहते हैं। मगर अपनी पार्टी में हार जाते हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। अकेले दम पूरा चुनाव लड़ा। चुनाव के बाद फिर जगह-जगह घूम रहे हैं। राज मिस्त्रियों के पास, लोको पायलट के साथ, हाथरस अलीगढ़ में भगदढ़ में मारे गए लोगों के परिवार के पास, अहमदाबाद जहां बजरंग दल ने कांग्रेस के आफिस पर हमला किया वहां। हर जगह।

मगर यह सारा परिश्रम इसलिए अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाता पीछे से उन्हें कोई सहायता नहीं मिलती। पार्टी का संगठन बहुत कमजोर है और नेता बहुत ताकतवर मगर सेल्फ प्रमोशन वाले। राहुल के आगे-पीछे घूमकर नंबर बना लो।

अभी हरियाणा में चुनाव है। जीता हुआ प्रदेश। मगर भारी गुटबाजी से ग्रस्त। इन गुटों में सबसे ज्यादा राहुल के नजदीक होने का दावा करने वाले पार्टी का नुकसान करते हैं। तीन लोगों ने एक ग्रुप बना रखा था। एसआरके। इसमें से-के. यानी किरण चौधरी भाजपा में चली गई। बाकी दो-एस यानि शैलजा और आर यानि रणदीप सुरजेवाला कांग्रेस में रहकर किरण चौधरी का समर्थन कर रहे हैं। दोनों पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं।

अब यह राहुल को सोचना है। वे तीन साल बाद 2027 में होने वाले गुजरात चुनाव जीतने की बात कर रहे हैं मगर तीन महीने बाद हरियाणा में क्या होगा इस पर शायद ध्यान नहीं है। अभी इस तरह ध्यान न देने पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ हारे। अगर वह तीनों जीते होते जो जीत सकते थे तो लोकसभा के नतीजे भी कुछ और होते।

राहुल भागते तो बहुत हैं। लेकिन नतीजे उनके अनुरूप नहीं आते। थोड़ा कार्य पद्धति (वर्किंर्ग स्टाइल) पर सोचने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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