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एक अकेला सब पर भारी के बाद अब साथ लाने की मजबूरी

भारतीय राजनीति इस समय दिलचस्प मोड़ पर है। बीते नौ वर्षों में ऐसा पहली बार हो रहा है कि सत्ताधारी अब प्रतिपक्ष की कदम ताल पर थिरक रहा है

एक अकेला सब पर भारी के बाद अब साथ लाने की मजबूरी
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- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

इस सप्ताह राजनीति में जो साझा रणनीति का आगाज़ हुआ है वह देश की दिशा बदलने वाला साबित हो सकता है। विभाजनकारी मानसिकता की राजनीति ने देश और समाज को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि व्यक्ति बंटा हुआ महसूस करता है। यह भी किस कदर अजीब है कि तबाही के प्रतीक बुलडोज़र को प्रचार का हथियार बना दिया गया है। ऐसा कर्नाटक के चुनाव प्रचार में भी किया गया था।

भारतीय राजनीति इस समय दिलचस्प मोड़ पर है। बीते नौ वर्षों में ऐसा पहली बार हो रहा है कि सत्ताधारी अब प्रतिपक्ष की कदम ताल पर थिरक रहा है। हाल ही में ऐसे तीन वाकये सामने आए हैं जिनसे लगा कि बेहद लोकप्रिय और वाकपटु भी अपने राजमार्ग को छोड़ पगडंडी पर आ सकते हैं। पहला, जब बीकानेर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राहुल गांधी के नारे नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान को बदलते हुए कहा- 'कांग्रेस झूठ के बाज़ार में लूट की दुकान है। ये झूठों के राजा हैं और आपस में ठेकों के लिए लड़ रहे हैं।' इससे पहले शायद ही राहुल गांधी की किसी बात को यूं तवज्जो दी गई हो। पप्पू घोषित करने के बाद यही सुनियोजित रणनीति भी थी जो अब बदली-बदली सी नज़र आती है। लग तो यही रहा था कि इसका कोई नोटिस नहीं लिया जाएगा लेकिन नारे में कोई दम था जो प्रतिक्रिया भी आई।

दूसरा मामला है पुराने वाले एनडीए (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन) को अचानक धो-पोंछकर एक मंच पर लाना। जून में हुई पटना बैठक में 16 विपक्षी दलों की अगली बैठक बैंगलुरु में होने की घोषणा क्या हुई, टूटे-बिखरे एनडीए की जाजम भी बिछ गई। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने एनडीए के बड़े घटक अकाली दल और शिवसेना की कोई परवाह नहीं की। उलटे शिवसेना और राकांपा के टुकड़े कर फिर एनडीए में मिलाया गया। आज सियासत को ऐसी ही साख पार्टी ने बख़्शी है। बहुजन समाज पार्टी, जेडीएस भी एनडीए में शामिल नहीं हैं या यूं कहें कि दहलीज़ पर खड़े हैं। कभी भी निकल सकते हैं। बहरहाल बैंगलुरु में 26 विपक्षी दल एक मंच पर आए तो दिल्ली में 38 पार्टियां। इनकी ताकत पर बात करेंगे लेकिन 26 के मुकाबले 38 ने हैडलाइन मैनेजमेंट पर चलने वाले मीडिया को ज़रूर राहत की सांस दी। अब एक अकेला सब पर भारी के नैरेटिव के बजाय 38 दलों की भारी-भरकम माला प्रधानमंत्री के गले में थी।

तीसरा मामला जब सत्ता पक्ष विपक्ष की खींची लीक पर चला जो और भी दिलचस्प है। यह एनडीए की व्याख्या से जुड़ा है। इधर विपक्षी दलों की एकता का नया नाम 'इंडिया' (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायन्स) आया, प्रधानमंत्री ने एनडीए की व्याख्या ही नए सिरे से कर दी। एक बार फिर वे विपक्ष की पिच पर खेलते हुए दिखे। उन्होंने कहा कि-'एन 'न्यू इंडिया' के लिए, डी 'डेवलप्ड नेशन' के लिए और ए से एस्पिरशन ऑफ़ पीपल एंड रीजन के लिए है।' नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स के इस विस्तार की क्या वाकई कोई ज़रूरत थी या ये इंडिया का प्रत्युत्तर था। एनडीए को सभी नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स के तौर पर ही जानते हैं।

इंडिया के नाम को मास्टर स्ट्रोक कहा जा सकता है क्योंकि यूपीए का यह नया नाम कुछ ही देर में ट्रेंड करने लगा था जबकि सच कहा जाए तो इसका पूरा नाम बड़ा ही जटिल है और तुरंत ज़बान पर चढ़ता भी नहीं है। हिंदी तर्जुमा भी आसान नहीं है। शायद इसीलिए शिवसेना (उद्धव) ने बैठक में इसे हिंदी में करने पर ज़ोर दिया था। हिंदी व मराठी दोनों की लिपि देवनागरी ही है और यही परेशानी कमोबेश नीतीश कुमार के लिए बिहार में रही हो। फिर भी इस नाम में विपक्ष को वो ताकत मिल सकती है जो राष्ट्रवाद के नाम पर उनकी थाली से छिन गई थी। इंडिया ने कहा- 'इंडिया यहां से इस उम्मीदवार को टिकट देगी', 'इंडिया का मत है कि'... जैसे ये तमाम वक्तव्य स्वत: ही राष्ट्रवाद के परचम को लहराते हुए मालूम होंगे। शेक्सपीयर ने ज़रूर कहा था कि 'नाम में क्या रखा है। गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो वह गुलाब ही रहेगा' लेकिन भारतीय विपक्ष के इस नए नाम से मिली चर्चा से शायद वे भी अपनी राय बदलना चाहें।

एनडीए बनाम इंडिया के साथ 24 के चुनाव का बिगुल तो नहीं बजा है लेकिन कुरुक्षेत्र के समर में कौन किस तरफ है, यह नज़र आने लगा है। इंडिया वाले गठजोड़ की ताकत की बात करें तो इसकी 11 राज्यों में सरकारें हैं और 12 राज्यों में इसके घटक प्रमुख विपक्षी दल हैं। एनडीए नौ राज्यों में सरकार में और ग्यारह में विपक्ष में है। 23 के मुकाबले 20 से इंडिया फिलहाल आगे है। एनडीए की 38 पार्टियों में से नौ ऐसी हैं जिन्होंने कभी लोकसभा का चुनाव ही नहीं लड़ा और सोलह के पास एक भी लोकसभा सीट नहीं है। इनमें से सात के पास अवश्य एक-एक लोकसभा सीट है। इस तरह से भाजपा की 303, एकनाथ शिंदे की शिवसेना की 13, अपना दल की दो और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की छह सीटें मिलाकर कुल 329 का आंकड़ा है। अकेले बिहार से पांच दल जुड़े हैं। दिल्ली की इस बैठक में लोजपा के चिराग पासवान ने मोदी के चरण छू लिए। बदले में उन्होंने चिराग को गले लगा लिया। वैसे 29 सीटों के इस गठजोड़ के साथ 7 फीसदी का मत प्रतिशत जुड़ा है। छोटे-छोटे दलों की अपनी ताकत होती है और उनका वोट बैंक डगमगाता नहीं इसलिए वह गठजोड़ में महत्वपूर्ण हो सकता है।

उत्तर-पूर्व के कई छोटे दल एनडीए में शामिल हैं। फिलहाल शिंदे गुट की शिवसेना ही भाजपा का बड़ा सहयोगी दल है लेकिन 'सकाल' दैनिक के मत सर्वेक्षण के मुताबिक भले ही शिंदे की शिवसेना को नाम और चुनाव चिन्ह मिल गया हो, मतदाता की संवेदनाएं उद्धव की शिवसेना के साथ हैं। अपने वोट बैंक की भरपाई फिर भाजपा ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से अजित पवार को अलग करके करने की कोशिश की है। मंशा थी कि शरद पवार विपक्ष का दामन न थामें लेकिन वे बैंगलुरु गए। उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र में सर्वाधिक 48 सीटें लोकसभा की हैं। महाराष्ट्र में अलग ही पोलिटिकल थिएटर आकार लेता रहता है। अजित पवार ने पहले दिल्ली में बैठक की और फिर वे उद्धव ठाकरे से भी मिले।

इस सप्ताह राजनीति में जो साझा रणनीति का आगाज़ हुआ है वह देश की दिशा बदलने वाला साबित हो सकता है। विभाजनकारी मानसिकता की राजनीति ने देश और समाज को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि व्यक्ति बंटा हुआ महसूस करता है। यह भी किस कदर अजीब है कि तबाही के प्रतीक बुलडोज़र को प्रचार का हथियार बना दिया गया है। ऐसा कर्नाटक के चुनाव प्रचार में भी किया गया था। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने ढोल नगाड़े भी बुलडोज़र से जोड़ दिए हैं। महिला पहलवानों के शोषण के खिलाफ़ उठी आवाज़ को दबाने की कोशिश तकलीफ देती है।

मणिपुर पर मोदीजी की चुप्पी भी बहुत देर से टूटी। विश्वास का यह अभाव व्यापार-व्यवसाय तक पहुंच गया है। विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री महंगाई की एक वजह इस सामाजिक स्थिति को भी मानते हैं। इंडिया में 'इंक्लूसिव' शब्द की व्याख्या इसी तरह की गई है जिसमें, अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित और आखिरी व्यक्ति तक विकास को पहुंचाने की बात की गई है। कांग्रेस की सरकारें अपने-अपने राज्यों में इस समय लोक कल्याणकारी नीतियों पर काम करती हुई दिख रही है। राजस्थान सरकार ने बुधवार को रोजगार की गारंटी से जुड़ा बिल पास कर दिया जिसके तहत राज्य की वयस्क आबादी न्यूनतम 125 दिन के रोज़गार या पेंशन की हकदार होगी। राजस्थान में बढ़ते अपराध पर भी सरकार को नियंत्रण करना चाहिए।

बहरहाल,पटना से बैंगलुरु तक चला विपक्ष का यह सिलसिला अब अगस्त के मध्य में मुंबई में जुटेगा। यहां शिवसेना मेज़बानी में होगी। इंडिया नाम की धमक ने खासा असर पैदा किया है। असम के बड़बोले मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने इंडिया नाम अपनाने को गुलाम मानसिकता का बता दिया है और खुद के ट्विटर हैंडल में अपने नाम के साथ लिखे इंडिया को भारत कर दिया है। ये तो वाकई बड़ी रोचक दिक्कत हो गई है, क्योंकि बीजेपी के ट्विटर हैंडल में भी इंडिया है। स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया समेत कई योजनाओं में इंडिया शब्द है। दरअसल अब इंडिया किसी औपनिवेशिक सोच से जुड़ा ना होकर हमारी भाषा में रच-बस गया शब्द है।

एक शिकायत भी इस नाम के इस्तेमाल के खिलाफ दिल्ली पुलिस से की गई है। खैर, पीएम ने इस जोड़ को परिवारवाद से जुड़ा अवसरवादी गठजोड़ बताते हुए कहा है कि ये साथ आए हैं, पास नहीं। इसके तोड़ में कांग्रेस ने कहा है कि वे प्रधानमंत्री पद के अभिलाषी नहीं हैं। सोनिया गांधी यहां सुनने की भूमिका में हैं और सबके लिए उपलब्ध रहेंगी। राहुल गांधी ने भी प्रेस वार्ता में स्पष्ट किया कि वे ज़्यादा से ज़्यादा दलों को जोड़ना चाहते हैं और आखिर में जब लड़ाई एनडीए बनाम इंडिया की होगी तो आप जानते हैं कौन जीतता है।

सच कहा जाए तो जीत कतई आसान नहीं है। पटना-बैंगलुरु से मुंबई पहुंचने से पहले पटकथा दृढ़ता के साथ लिखनी होगी। ईडी, सीबीआई का डर नहीं, देश की जनता को राहत पहुंचना लक्ष्य होना चाहिए। भारतीय राजनीति में मत तो भावना के आधार पर पड़ता है लेकिन सरकारें गणित से बनती हैं। भाजपा प्रणीत एनडीए इन दोनों को साधने का हुनर रखता है। बंदों को तौलने का सलीक़ा लोकतंत्र में पूरी तरह गिनने के हुनर में बदल चुका है। दोनों ही पाले में इसी की जंग है। अल्लामा इक़बाल बहुत पहले ही लिख गए 'जम्हूरियत वह तज़र् ए हुकूमत है कि जिसमें बन्दों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।'

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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