बदलते भारत का लेखा जोखा
प्रतिष्ठित पत्रकार एवं लेखक प्रियदर्शन की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'भारत की घड़ी'बदलते भारत का लेखा जोखा तो प्रस्तुत करती ही है

- रोहित कौशिक
प्रतिष्ठित पत्रकार एवं लेखक प्रियदर्शन की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'भारत की घड़ी'बदलते भारत का लेखा जोखा तो प्रस्तुत करती ही है, हमें इस दौर के ज्वलंत सवालों पर गंभीरता के साथ सोचने के लिए भी मजबूर करती है। इस पुस्तक में संकलित लेख समकालीन मुद्दों पर तार्किक बहस को जन्म देकर हमारे चेतना तंतुओं को झंकृत करते हैं। कटु सत्य तो यह है कि इस दौर में हमारी चेतना सोई हुई है। ऐसे माहौल में यदि कोई किताब हमारी चेतना को जगाने का काम करती है तो यह लेखक और किताब की एक बड़ी उपलब्धि है। लेखक का मानना है कि भारत की जो घड़ी बहुत तेजी के साथ आगे चल रही थी, वह अब कुछ उल्टी चल रही है।
सुविधा और सामग्री की दृष्टि से किताब को चार खंडों में विभाजित किया गया है-'राष्ट्रवाद की घड़ी और लेखक का देश', 'दलित होने का मतलब', 'विचार और विचारहीनता के संकट' तथा 'स्त्री होने का मतलब'। इस किताब में राष्ट्रवाद और धार्मिक पहचान के मुद्दे पर जरूरी विमर्श है तो लोकतंत्र और विविधता के अन्तर्सम्बन्धों पर तार्किक चिंतन भी है। लेखक ने भारतीयता को अपनी पहचान बताते हुए इंसान को धर्म, जाति या राष्ट्र के कठघरों में न बांधने की वकालत की है। निश्चित रूप से भारतीयता किसी प्रमाण पत्र की मोहताज नहीं है। हालांकि इस दौर में कुछ लोगों ने यह प्रमाण पत्र बांटने का ठेका ले लिया है। लेखक एक तरफ उन्माद से भरी झूठी देशभक्ति पर सवाल उठाता है तो दूसरी तरफ बहुसंख्यकवादी हेकड़ी को देश के लिए खतरनाक मानते हुए गांधी और आंबेडकर को याद करता है।
लेखक का मानना है कि आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने जो कई मंत्र विकसित किए, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था-'ईश्वर अल्ला तेरो नाम'लेकिन आज इस मंत्र पर खतरा मंडरा रहा है। दरअसल यह ऐसा दौर है जब कट्टर हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा जानबूझकर इस मंत्र को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कमजोर करने की कोशिश का हिस्सा है। इस कठिन समय में लेखक यह विचार भी करता है कि क्या हमारे समय में गांधी की कोई जगह है ? वह मानता है कि दुनिया के बहुत सारे संकट के बावजूद गांधी बने हुए हैं। हालांकि भारतीय संदर्भों में कई जगह गांधीवादी रणनीति विफल नजर आती है। इसके बावजूद आज गांधी हमें वास्तविक रोशनी दिखा रहे हैं और भविष्य में जो हालात बनते नजर आ रहे है, उसमें भी वे हमें वास्तविक रोशनी दिखाते रहेंगे। यह बात अलग है कि हम नकली रोशनी के सहारे लगातार अंधकार की चपेट में आ रहे हैं।
लेखक का मानना है कि आंबेडकर ने भारत के लोगों को उनकी उस भारतीयता की गारंटी दी जो आजादी की लड़ाई के दौर में विकसित हुई थी। आंबेडकर न होते तो सामाजिक बराबरी और न्याय की प्रतिज्ञा इतनी प्रबल न होती जितनी हमारे संविधान में दिखाई पड़ती है। लेखक यह सवाल भी उठाता है कि जिस समय हमें गांधी के तत्व और आंबेडकर के तर्क की सबसे ज्यादा जरूरत है, उस समय इनके अनुयायी इन्हें एक-दूसरे के खिलाफ क्यों खड़ा कर रहे हैं ? प्रियदर्शन व्यवस्था के गटर में मारे जाते दलितों के संबंध में भी सार्थक विमर्श करते हैं। हर साल नाले में उतर कर सफाई करने के दौरान कई लोगों की मौत हो जाती है। ये लगभग सभी लोग दलित होते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन सफाईकर्मियों की मौत पर कोई सवाल नहीं उठाता। लेखक आंबेडकर के नाम का दुरुपयोग होने के खतरे को बखूबी पहचान लेता है लेकिन साथ ही यह उम्मीद भी जताता है कि अपने सारे दुरुपयोग की कोशिश के बावजूद आंबेडकर बचे रहेंगे। लेखक आरक्षण मुद्दे पर चिंतन करते हुए यह मानता है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण या सामाजिक वैविध्य के सिद्धान्त को जगह दिलाने की मांग बरसों पुरानी है लेकिन सरकार यह काम नहीं कर रही।
प्रियदर्शन बहुत ही गंभीरता के साथ यह चिंतन करते हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी क्या यह समाज दलितों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को त्याग पाया है ? इन लेखों में वामपंथ की अपरिहार्यता और प्रासंगिकता पर विमर्श है तो अवैज्ञानिकता के बढ़ते हुए कचरे को लेकर चिंता भी है। सवाल यह भी है कि हम अभी तक स्त्री को सच्चा सम्मान क्यों नहीं दे पाए हैं ? इस किताब के माध्यम से हमारे चेतना तंतुओं में हलचल पैदा करने के लिए प्रियदर्शन बधाई के पात्र हैं।


