हादसा और हकीकत
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में प्रचार का दौर अब खत्म हो गया है

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में प्रचार का दौर अब खत्म हो गया है। 28 नवंबर की शाम को मतदान के आखिरी दौर यानी तेलंगाना में चुनावों के पहले का प्रचार भी खत्म हो गया। इससे पहले मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में चुनाव हो चुके हैं। 30 तारीख को तेलंगाना में मतदान होगा और उसके बाद 3 दिसंबर को नतीजे आ जाएंगे। यानी 30 नवंबर से 3 दिसंबर तक प्रधानमंत्री के पास कम से कम चुनावों का कोई काम नहीं होगा। वर्ना वे साल में तीन चौथाई समय इसी में व्यस्त रहते हैं। बचा एक चौथाई वक्त, हरी झंडी दिखाने, मंदिरों में पूजा-पाठ, नियुक्ति पत्र वितरण या फिर मन की बात में निकल जाता है। अभी पांच राज्यों के चुनाव थे, तो श्री मोदी की व्यस्तता अत्यंत बढ़ गई थी।
आखिर सारे कामों में सबसे जरूरी उनके लिए भाजपा का प्रचार करना ही तो है। उन्हें भाजपा की खातिर विश्वकप क्रिकेट का फाइनल मुकाबला देखने अहमदाबाद जाना पड़ा, फिर बंगलुरू में तेजस में उड़ान भरनी पड़ी, इसके बाद तिरूपति जाकर बालाजी के दर्शन भी करने पड़े और इन सबके बीच 26 नवंबर को उन्होंने मन की बात भी की। भाजपा सही कहती है कि श्री मोदी 18 घंटे काम करते हैं। मात्र तीन घंटे सोने वाले श्री मोदी दिल्ली से ढाई हजार किलोमीटर दूर मणिपुर नहीं जा पाए। वे दिल्ली से 423 किमी दूर सिलक्यारा भी कम से कम इन पंक्तियों के लिखने तक नहीं पहुंच पाए।
उत्तरकाशी का सिलक्यारा 17 दिनों पहले तब सुर्खियों में आया, जब दीपावली के दिन खबर आई कि यहां बनाई जा रही साढ़े चार किमी की सुरंग में 41 मजदूर फंस गए हैं। कार्तिक अमावस्या की काली रात, जब देश का आसमान घुप्प स्याह हो गया था और लोग दीयों से अपनी जिंदगियों में रौशनी भरने में लगे थे, तब इन मजदूरों और इनके परिजनों के लिए रात और काली हो गई थी। अमावस्या से पूर्णिमा तक दिन गुजरते गए, इस दौरान इन मजदूरों के परिजन हर पल आस लगाए बैठे रहे कि किसी तरह उनके अपने अंधेरी सुरंग से बाहर निकल आएं। बचाव और राहत कार्य की कोशिशें जारी रहीं।
विदेशों से मशीन मंगाई गई, उससे काम नहीं बना तो दूसरे तरीके आजमाए गए। मजदूरों से किसी तरह संवाद कायम रखा गया, उनकी खैर-खबर ली जाती रही। किसी ने बताया कि दैवीय प्रकोप यानी देवता के रुष्ट होने के कारण यह हादसा हुआ तो सुरंग के मुहाने पर बाबा बौखनाग का मंदिर अस्थायी तौर पर बनाया गया। यहां के लोगों में से कुछ का कहना है कि सुरंग बनाने के लिए पहले बने यहां के मंदिर को हटाया गया था, इसलिए यह हादसा हुआ। अब यह सोचने वाली बात है कि प्रकोप का शिकार मजदूर ही क्यों बने। अगर उन्होंने मंदिर पहले तोड़ा भी था, तो वो किसी के आदेश पर ही किया था, और ऐसे में सारा दोष आदेश देने वाले का हुआ, मजदूरों का नहीं। लेकिन जब बात धार्मिक मान्यताओं की हो तो वहां तर्कों को खारिज कर दिया जाता है। मुख्यमंत्री धामी ने अपने ट्वीट में सबसे पहले बाबा बौखनाग की कृपा ही मानी है कि सभी मजदूरों के निकलने की आस बनी है।
कल ही यहां पूर्व सेनाध्यक्ष और केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री वी के सिंह पूजा करते भी दिखे। एक टीवी चैनल ने ये भी दिखाया कि मंदिर के पास ही चट्टान पर एक आकृति उभरी है, जो शिवजी की तरह लग रही है। अमूमन आम लोग इस तरह की बातें करते हैं कि किसी पेड़ पर, फल को बीच में या चट्टान पर किसी देवता या देवी की आकृति नजर आई। यह विशुद्ध आस्था की बातें होती हैं और इनका कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं होता। जिस आकृति में एक धर्म के लोगों को अपने ईष्ट नजर आ सकते हैं, वही आकृति दूसरे धर्म के लोगों के लिए महज एक डिजाइन हो सकती है। पत्रकारिता में ऐसी बातों का जरा भी स्थान नहीं होना चाहिए। क्योंकि इनसे हम किसी न किसी तरह अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं।
कहने को तो 21 सितंबर 1995 को पूरे देश में भगवान गणेश की प्रतिमाओं ने दूध पीना शुरु कर दिया था, यह खबर दुनिया भर के देशों में भी फैली थी और वहां भी कई भारतीयों ने मूर्ति को दूध पिलाने की कोशिश की थी। अफवाह फैलाने का एक सफल प्रयोग सिद्ध हुआ था और यह तय हो गया था कि भारतीयों के पास अगर चांद तक पहुंच रखने वाला दिमाग है, तो अंधविश्वासों को खुद पर हावी होने देने वाला दिल भी है। इस दिल और दिमाग के बीच जुगलबंदी बिठाते हुए सत्ता का खेल बखूबी खेला जा रहा है।
बहरहाल, जिसकी जो निजी आस्था है, वो उसे अपने तक सीमित रखे, उसका सार्वजनिक बखान बिल्कुल नहीं होना चाहिए। मगर अब न पत्रकारिता में ऐसे मूल्यों को महत्व दिया जा रहा है, न राजनीति में। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर ये है कि सिलक्यारा की सुरंग में बस दो मीटर की खुदाई और करना है, फिर मजदूरों को बाहर निकाला जा सकता है। मजदूर आज की रात खुली हवा में सांस ले पाएंगे और कल का सूरज देख पाएंगे। उनका हौसला बना रहे, इसके लिए एक दूसरे पाइप के जरिए एंबुलेंस और भोजन-पानी पहुंचाया जा चुका है। बाहर निकलते ही मजदूरों के स्वास्थ्य की देखभाल का इंतजाम किया गया है। सुरंग में ये बचाव कार्य भारत का अब तक सबसे बड़ा ऑपरेशन माना जा रहा है। और इस ऑपरेशन में लगे तमाम लोगों की पहचान उनकी योग्यता और काम से हो सकती है, कपड़ों से नहीं।
अगर पहचान करनी ही है तो अब उन कारणों को पहचानना चाहिए, जिसकी वजह से ये हादसा हुआ और 41 जिंदगियां खतरे में पड़ गई। चारधाम यात्रा को साल भर करने की जिद पहाड़ों पर भारी पड़ रही है। हिमालय नया पहाड़ है और इस पर पड़ने वाले दबाव का अंजाम केदारनाथ हादसे में देश भुगत चुका है। प्रकृति और विज्ञान दोनों की चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए पहाड़ में सुरंग खोदी जा रही है। आश्चर्य नहीं होगा, अगर कुछ दिनों की शांति के बाद यहां फिर से काम शुरु हो जाए। और सुरंग बनने के बाद प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री उसका उद्घाटन करते दिखें।


