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नगालैंड का एक आत्मनिर्भर गांव

कुछ समय पहले मुझे नगालैंड के एक गांव में करीब सप्ताह भर रहने का मौका मिला

नगालैंड का एक आत्मनिर्भर गांव
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- बाबा मायाराम

इसका एक उद्देश्य नई पीढ़ी को परंपरागत हस्तकला का कौशल हस्तांतरित करना है। नई युवा पीढ़ी को इस हुनर को सिखाना है, उन्हें प्रशिक्षित करना है। चिजामी के बुनाई सिलाई केन्द्र में आसपास के गांवों व कस्बों की युवतियां प्रशिक्षण लेती हैं। महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं जिससे उनके परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। बच्चों की शिक्षा बेहतर हुई है। उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास हुआ है। युवाओं की बेरोजगारी कम हुई है। यह चिजामी का माडल सराहनीय होने के साथ साथ अनुकरणीय भी है।

कुछ समय पहले मुझे नगालैंड के एक गांव में करीब सप्ताह भर रहने का मौका मिला। वहां जंगल था, खूबसूरत पहाड़ थे, पीने के पानी के जलस्रोत के झरने थे, पौष्टिक अनाजों की खेती थी। अच्छा स्कूल था। समृद्ध पुस्तकालय था। परंपरागत हस्तकला थी। यहां परंपरा के साथ आधुनिक जीवनशैली की झलक दिखाई देती थी। इस कॉलम में नगालैंड के इस अनूठे अनुभव को साझा करना चाहूंगा, जिससे अल्पज्ञात इस इलाके की एक झलक मिल सके।

दक्षिणी नगालैंड का एक छोटा गांव है चिजामी। यह गांव वैसे तो आम गांवों की तरह है, लेकिन यहां होने वाले सामाजिक-आर्थिक बदलावों ने इसे खास बना दिया है। महिला अधिकारों से लेकर टिकाऊ खेती और पारंपरिक आजीविका के कामों ने इसे एक आदर्श गांव बना दिया है। बुनाई-सिलाई जैसी पारंपरिक हस्तकला को पुनर्जीवित किया है।

उत्तर पूर्व का यह इलाका कई विविधताओं व प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर है। यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता के लिए भी जाना जाता है। इसकी झलक इस गांव में भी दिखाई दी। यहां खान-पान,रंग बिरंगी पोशाक व सादगीपूर्ण जीवनशैली की भी अनूठी संस्कृति है।

देश-दुनिया में इस गांव की पर्यावरण संरक्षण और आत्मनिर्भर के मामले में मिसाल दी जाती है। यहां की महिलाएं बुनकरी के माध्यम से आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं। पौष्टिक अनाजों की खेती को पुनर्जीवित भी किया जा रहा है। और यहां की पारंपरिक बुनकरी का कोई जोड़ नहीं है। यहां के डिजाइन वाले कपड़ों की काफी मांग है।

फेक जिले के अंतर्गत आता है चिजामी। यहां 600 घर हैं और आबादी 3000 के आसपास है। यह गांव पहाड़ और जंगल के बीच स्थित है। चिजामी, नागालैंड की राजधानी कोहिमा से 88 किलोमीटर दूर है।

मैं यहां इस गांव की बदलाव की कहानी देखने-समझने गया था। इस दौरान मैं कई लोगों व गांव के समूहों से मिला। यहां की खेतों में गया, किसानों से मिला। यहां देसी बीज बैंकों को देखा और युवाओं से बात की। प्राकृतिक खेती भी देखी, जिसमें हल नहीं चलाया जाता। झूम खेती में भी हल नहीं चलाया जाता।

लेकिन प्राकृतिक खेती, कुछ मत करो, के सिद्धांत पर की जाती है। जबकि झूम खेती में बारिश के पूर्व पत्तियों व छोटी टहनियों को जलाकर उसकी राख में बीज छिड़क दिए जाते हैं, जो बारिश होने पर उग आते हैं और बाद में फसलें पक जाती हैं। इसमें मिश्रित फसलें बोई जाती हैं।

यहां एक महिला अधिकारों पर काम करने वाली संस्था है, जिसका नाम नार्थ ईस्ट नेटवर्क है। यह महिला स्वास्थ्य, पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और पर्यावरण शिक्षा पर काम करती है।

यह संस्था 1995 के आसपास से कार्यरत है। तीन राज्यों- असम, मेघालय और नागालैंड में काम करती है। संस्था ने महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम किए हैं, जिनमें से एक है चिजामी की पारंपरिक बुनाई। चिजामी में एनईएन ( नार्थ ईस्ट नेटवर्क) का मुख्य कार्यालय है और बुनाई-सिलाई प्रशिक्षण केन्द्र भी है।

यह पूरा इलाका पहाड़ों से घिरा बहुत खूबसूरत है। यहां झूम खेती होती है। लेकिन खेती के काम के बाद भी काफी खाली समय होता है, उसमें महिलाएं घरों में बुनाई का काम करती थीं। आम तौर पर अप्रैल से अक्टूबर तक महिलाओं का काम खेती-किसानी में होता है। और इसके बाद वे नवंबर से मार्च तक बुनाई का काम करती हैं।

यहां विशेष नागा हथकरघे पर जिसे अंग्रेजी में लोइन लूम कहते हैं, पर बुनाई की जाती है। पारंपरिक पोशाकों की बुनाई पहले भी होती थी, लेकिन वह परिवार और त्यौहारों की जरूरत के लिए महिलाएं करती थीं। पारंपरिक परिधानों से लेकर अब घर की सजावट के लिए फैशनपरस्त सामान और पोशाक सामग्री के कई उत्पाद बनाती हैं।

साल 2008 में 7 महिलाओं के साथ शुरू हुई इस यात्रा में आज सैकड़ों महिलाएं जुड़ चुकी हैं। फेंक जिले के करीब दर्जन भर से ज्यादा गांवों में इसका नेटवर्क है। यहां के विशेष हथकरघे से बने उत्पादों को बढ़ावा दिया गया है। जिसमें परंपरागत नागा शाल और मेखला प्रमुख हैं। इसके अलावा, बेल्ट, झोला, मफलर, बटुआ, टेबल रनर,शाल, कुशन कवर आदि शामिल हैं। इनमें ये सभी उत्पाद कई तरह की डिजाइन में उपलब्ध हैं।

इन उत्पादों को प्रदर्शनियों में, मेलों में और एनईएन के चिजामी, कोहिमा और गुवाहाटी कार्यालयों से खरीदा जा सकता है। इसके साथ ही मुंबई, दिल्ली, गोवा और गुवाहाटी की चुनिंदा दुकानों में भी उपलब्ध हैं।

बुनाई घरों में होती है और उत्पाद बनाकर एनईएन केन्द्र में देते हैं। इन केन्द्रों में उत्पादों की गुणवत्ता की जांच कर निर्धारित राशि का भुगतान किया जाता है।
इस काम से जुड़ी एक महिला बताती है कि वे इस काम से 10 साल से जुड़ी हैं और यह कई तरह से मददगार है। उनकी बेटी की पढ़ाई में मदद मिली। उनका कई कार्यक्रमों से आत्मविश्वास बढ़ा। आगे वे कहती हैं कि शुरूआत में इस काम को परिवार में पसंद नहीं किया जाता था, लेकिन जब इससे आय बढ़ने लगी तो इसे मान्यता मिलने लगी।

इस कार्यक्रम से जुड़ी एक अन्य कार्यकर्ता ने बताया कि हमने पुराने परंपरागत घर की बुनाई को पुनर्जीवित किया। इसके लिए मुंबई और दिल्ली से विशेषज्ञों व डिजाइनरों की मदद ली गई। और कई तरह के उत्पाद विकसित किए। और लाल, काले और सफेद के अलावा दूसरे रंग भी आजमाए हैं।

कोविड महामारी के दौरान यहां की महिलाओं ने सामाजिक जागरूकता अभियान चलाया था। साथ ही लोगों की मदद भी की थी। उन्हें वैकल्पिक रोजगारों से भी जोड़ा था। बाजारों में महिलाओं ने भी दुकानें लगाई थी, जिससे उनके जीविकोपार्जन में दिक्कत न आए। महिलाओं के साथ युवाओं ने मोबाइल व सोशल नेटवर्किंग की मदद से लोगों का सहयोग किया।

महामारी के दौरान इससे स्वास्थ्य और भोजन पर एक नई चेतना पैदा हुई है। इसी तरह, महिलाओं, बच्चों और युवाओं ने इस बात को दिखाया है कि किस तरह स्थानीय स्तर पर जैविक उत्पाद उगाए जा सकते हैं, भोजन की जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। रोजगार में भी आत्मनिर्भर बना जा सकता है।

इसके अलावा, इस गांव में खेल मैदान, पुस्तकालय, देसी बीज बैंक और स्थानीय सामग्री से बने लकड़ी के घर हैं। यह काफी साफ-सुथरा गांव है। यहां हर वर्ग के लोगों के लिए उनके कार्यालय हैं। जैसे महिला समूहों का एक कार्यालय है, युवाओं का भी है। यह एक आदर्श गांव की तरह है।

अगर हम इसे आदर्श मानें, तो हमें आदर्श गांव में क्या क्या चाहिए, इसकी फेहरिस्त बन सकती है। जैसे एक गांव में अच्छा होने के लिए जंगल चाहिए या पेड़-पौधे से हरा—भरा गांव होना चाहिए, जिससे जल का संरक्षण हो। ऐसी खेती चाहिए, जिससे मिट्टी-पानी का संरक्षण हो। यानी रासायनिक खादों व कीटनाशकों से बचा जाए, जो हमारी खेती को प्रदूषित कर रहे हैं दस्तकारी के कामों से परंपरागत कला व हुनर भी बचेंगे और आजीविका भी मिलेगी।

इस पूरे कार्यक्रम का एक पहलू युवाओं को आत्मनिर्भर बनाना भी है। उन्हें पारंपरिक कौशलों से जोड़ना है। उन्हें पर्यावरण व पारिस्थितिकीय से जोड़ना, न्यायसंगत और टिकाऊ खाद्य प्रणालियों को समझाना, सकारात्मक व रचनात्मक कामों से जोड़ना भी है। उन्हें इसके लिए खेतों व जंगलों का भ्रमण, जैव विविधता की सैर, खेती के तौर-तरीके सिखाना, पौधे लगाना और उनकी परवरिश करना सिखाना भी है। मिट्टी, पानी, बीज प्रणाली, कीटों के बारे में भी जानकारी दी जाती है। पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जाता है। इसके लिए समय समय पर प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं।

कुल मिलाकर, इस पूरे काम से कुछ बातें कही जा सकती हैं। चिजामी में आदर्श गांव है। यहां महिलाओं ने इसे स्वावलंबी बनाने की दिशा में काफी काम किया है। चिजामी की बुनाई का यह काम टिकाऊ आजीविका है, विशेषकर उन महिलाओं के लिए जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं। इससे नगालैंड की पारंपरिक हस्तकला का संरक्षण हुआ है। नागाओं के विशेष हथकरघे से बने उत्पादों को देश-दुनिया के बाजारों में पहुंचाया गया है।

इसका एक उद्देश्य नई पीढ़ी को परंपरागत हस्तकला का कौशल हस्तांतरित करना है। नई युवा पीढ़ी को इस हुनर को सिखाना है, उन्हें प्रशिक्षित करना है। चिजामी के बुनाई सिलाई केन्द्र में आसपास के गांवों व कस्बों की युवतियां प्रशिक्षण लेती हैं। महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं जिससे उनके परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। बच्चों की शिक्षा बेहतर हुई है। उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास हुआ है। युवाओं की बेरोजगारी कम हुई है। यह चिजामी का माडल सराहनीय होने के साथ साथ अनुकरणीय भी है। लेकिन क्या हम आत्मनिर्भर गांवों बनाने की दिशा में सचमुच कुछ करने के लिए तैयार हैं?


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