कविता जहां दुख भी सुख की तरह बोलता है
श्रुति कुशवाहा का दूसरा कविता संग्रह 'सुख को भी दुख होता है' (राजकमल प्रकाशन) समकालीन हिंदी कविता की भीड़ में एक ऐसी आवाज़ है जो चुपचाप, बिना किसी शोर-शराबे के, बेहद मारक ढंग से अपनी बात कहती है

- मालिनी गौतम
श्रुति कुशवाहा का दूसरा कविता संग्रह 'सुख को भी दुख होता है' (राजकमल प्रकाशन) समकालीन हिंदी कविता की भीड़ में एक ऐसी आवाज़ है जो चुपचाप, बिना किसी शोर-शराबे के, बेहद मारक ढंग से अपनी बात कहती है। यह संग्रह किसी विशेष विचारधारा के प्रदर्शन की कोशिश नहीं करता लेकिन विचारों की परतों से भरा है। इसमें एक ऐसी दृष्टि है जो किसी भी स्थूल प्रतिरोध से ज़्यादा भीतर के सन्नाटे, संबंधों की जटिलता, भाषा के अवचेतन और सत्ता की महीन बुनावट को पहचानने की जि़द करती है।
इस संग्रह को पढ़ते हुए यह जल्दी समझ में आने लगता है कि श्रुति की कविताएँ 'अर्थ देने' की जल्दी में नहीं हैं। वे अनुभव के स्तर पर भाषा को जीती हैं, उसे उसकी मूल संवेदना में पकड़ती हैं। संग्रह की पहली कविता में ही भाषा के जन्म की जो कल्पना रची गई है वह न तो लिंग से ग्रस्त है न ही किसी पूर्वग्रह से-बल्कि वह भाषा को स्मृति, ध्वनि, स्पर्श और बाल-संवेदना से जोड़ती है। श्रुति के लिए भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि एक जीवित अनुभव है, जिसमें माँ की लोरी, पिता की आवाज़, मि_ुओं की चहचहाहट और मिट्टी की गंध शामिल होती है।
श्रुति की कविताओं में विचार किसी घोषणापत्र की तरह नहीं आते बल्कि एकदम किनारे से दाख़िल होते हैं। 'सुख को भी दुख होता है' शीर्षक कविता को अगर पढ़ा जाए, तो वहाँ कवयित्री 'सुख' की उस आभासी संरचना को सामने लाती हैं जिसे हम रोज़ अपने जीवन में 'प्राप्त' मानते हैं- संगीत, बारिश, चाय, नींद, किताबें, बच्चों की मुस्कान। लेकिन क्या सुख सिर्फ सजावटी वस्त्रों का नाम है? नहीं, बल्कि यह एक ऐसा अनुभव भी हो सकता है जो अपनी ही छवि में कैद होकर घुटने लगे। सुख के भीतर छुपे भय, असुरक्षा और खो जाने का डर इस कविता को सिर्फ एक भावनात्मक रचना नहीं रहने देते, बल्कि यह कविता सत्ता और पूंजी के उन तंतुओं को छूती है जो 'खुशी' और 'संपन्नता' को भी बाज़ार का उत्पाद बना देते हैं। सुख का फफककर रो पड़ना एक चौंकाने वाला लेकिन बेहद मार्मिक क्षण है जो हमें हमारे अपने आत्मप्रवंचन से टकरा देता है।
इस संग्रह में प्रेम और स्त्री की उपस्थिति विशिष्ट है। प्रेम के विचार से शुरू करें, तो श्रुति की कविताएँ इस संग्रह में प्रेम को एक स्थिर, अपरिवर्तनीय भावना के रूप में नहीं देखतीं। कविता में प्रेम के विभिन्न रूप हैं, लेकिन यह केवल एक आकर्षण या भटकाव तक सीमित नहीं है। प्रेम की अनुभूति संग्रह में बहुत जटिल और बहुआयामी रूप में प्रस्तुत होती है। एक कविता में वे कहती हैं: 'देह का नमक भात की गंध में सानकर खाना/आँख मीचकर देखना प्रियतम का स्पर्श/ध्वनी को पोरों से टटोलना/प्रेम में गिरना नहीं...उठना सखी।' यह पंक्ति प्रेम के स्थायित्व और अस्थायित्व दोनों को व्यक्त करती है, जिसमें समय और स्मृति के साथ प्रेम की ध्वनियाँ बदल जाती हैं। इस तरह प्रेम की मानसिक स्थिति, उसके बदलते रंग और उसका हर रूप अंतत: संज्ञा और अभिव्यक्ति से परे एक अनुभव बन जाता है। यह न केवल व्यक्तिगत प्रेम की परिभाषा प्रस्तुत करता है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में भी प्रेम के रूप में होने वाले बदलाव को दर्शाता है। कविता की भाषा में एक सादगी है, लेकिन वही सादगी इंद्रियों के गहन अनुभवों को एक आत्मीय विस्तार देती है। 'देह का नमक', 'भात की गंध', 'प्रियतम का स्पर्श', 'ध्वनि को पोरों से टटोलना' ये सारे बिंब प्रेम को केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण इन्द्रियबोध में बदल देते हैं। कवयित्री प्रेम को गिरने की नहीं, उठने की क्रिया मानती है। एक ऐसी स्थिति जिसमें स्त्री अपनी चेतना, इच्छाओं और स्मृतियों के साथ पूर्ण रूप से उपस्थित रहती है।
प्रेम की संपूर्णता को कविता में इस तरह चित्रित किया गया है कि उसमें न केवल आत्मविलयन है, बल्कि आत्मरक्षा और आत्मसम्मान की भावना भी अंतर्निहित है। कविता का अंत विशेष रूप से मार्मिक है, जहाँ वह प्रेम की विदाई को भी एक सुंदर अनुभव बनाकर प्रस्तुत करती है-वह जो अपने प्रिय की नाभि पर स्मृतियों का अमृत छिड़क सकती है, और उसके अपराधों को अपनी नदी में बहा सकती है।
कविता प्रेम को नई दृष्टि से देखने का अवसर देती है। ऐसी दृष्टि जिसमें करुणा है, आत्मबल है, और सबसे बढ़कर एक उदात्त भाव है। यह केवल प्रेम की नहीं, प्रेम में संपूर्ण नारी अस्मिता की कविता है।
प्रेम को लेकर प्रचलित धारणा रही है कि वह व्यक्ति को विह्वल करता है, भीतर से तोड़ता है, और अक्सर उसे निर्बल बना देता है। लेकिन श्रुति की प्रेम कविताएँ इस धारणा का संवेदनशील प्रतिवाद हैं। वह प्रेम को एक सजग, सशक्त और गरिमामय अनुभव के रूप में रेखांकित करती है, जहाँ स्त्री न केवल प्रेम करती है, बल्कि उसमें आत्मनिर्भर भी होती है।
'प्रेमिकाएँ' कविता उन भावनात्मक श्रमों का लेखा-जोखा है जिन्हें सामान्यत: स्त्रियाँ निभाती हैं-बिना नाम, बिना अधिकार, बिना मांग के। यह कविता प्रेमिका की उस सामाजिक स्थिति को उजागर करती है जहाँ वह सिर्फ एक आश्रयस्थल है-पुरुष की हार, थकान, विफलता के समय की ठौर। यह प्रेम नहीं, एक व्यवस्था है-जहाँ स्त्री का प्रेम उसकी अपनी अस्मिता का विसर्जन बन जाता है। कवयित्री यहाँ न तो कोई भावुक करुणा रचती हैं, न कोई प्रत्यक्ष गुस्सा व्यक्त करती हैं, बल्कि वह बहुत सधे हुए शब्दों में उस अन्याय की गहराई को छूती हैं जो दिखने में सहज है पर भीतर से खोखला करता है।
स्त्री के संदर्भ में श्रुति की कविताएँ केवल लिंग आधारित पीड़ाओं की पुनरावृत्ति नहीं करतीं, बल्कि वे उन सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दबावों को उद्घाटित करती हैं जहाँ स्त्री हर भूमिका में 'प्राप्त वस्तु' की तरह दिखती है-घर में, प्रेम में, इतिहास में। ये कविताएँ स्त्री के अनुभव को पुन: परिभाषित करती हैं, लेकिन एक स्थूल दृष्टिकोण से नहीं। कविता 'आलू' एक नज़र में हम सबके प्रिय भोजन आलू पर लिखी गयी एक मनोरंजक कविता लग सकती है लेकिन वहाँ बिना कहे ही एक रूपक साथ-साथ चलता रहता है। आलू, जो सबका पोषण करता है लेकिन कभी अपने स्वाद, अपनी अस्मिता का गौरव नहीं पाता, वह स्त्री की स्थिति का एक ज़रूरी, सूक्ष्म और गहरा प्रतीक है।
श्रुति की राजनीतिक चेतना किसी नारेबाज़ी में नहीं, बल्कि प्रतीकों और भाषा की पुनर्रचना में प्रकट होती है। 'रामराज' कविता उदाहरण है कि किस तरह भाषा सत्ता की सहयोगी बन सकती है। वहाँ 'रोटी' भूख की जगह नहीं लेती, 'लोकतंत्र' तानाशाही का नया नाम हो जाता है। यह कविता स्पष्ट करती है कि किस तरह शब्दों के अर्थ बदलकर पूरी दुनिया की संरचना को नियंत्रित किया जाता है। 'अब वहाँ दिन का नाम रात है/कोयले का नाम फूल/चीख़ का नाम संगीत/भूख का नाम रोटी/भय का नाम भक्ति और तानाशाही का नाम लोकतंत्र'। यह कविता स्पष्ट रूप से सत्ता के उस खेल को दर्शाती है, जहाँ धर्म और राजनीति के बीच समझौता किया जाता है और सत्ताधारी अपनी शक्ति को धार्मिक प्रतीकों के सहारे मज़बूत करते हैं। इस कविता में कोई आक्रोश या गुस्सा नहीं है, बल्कि एक गहरी चिंतनशीलता है जो पाठक को स्थिति के प्रति सचेत करती है। यह राजनीति और सत्ता के नाम पर होने वाली नैतिक लूट का एक साफ संकेत देती है।
इसी तरह 'बयान' कविता का नैतिक बल इस बात में है कि वह एक ऐसे समय में लिखी गई है जब चुप रहना ही सबसे अधिक पुरस्कृत गुण माना जाता है। यह कविता चुप्पी के अपराधबोध को उजागर करती है और यह बताती है कि कविता भी एक बयान है-एक गवाही, एक हस्तक्षेप।
कविता श्रुति के यहाँ सिर्फ महसूस करने का माध्यम नहीं, बल्कि जानने का, समझने का औजार है। संग्रह की 'खोना' जैसी कविताएँ दर्शाती हैं कि आधुनिकता ने मनुष्य से उसकी जड़ों को किस तरह काट दिया है-सपनों का नींद से, स्मृतियों का रिश्तों से और भाषा का संवेदना से खो जाना, एक सभ्य लेकिन शून्य में जीते हुए समाज की तस्वीर है। यह खोना किसी निजी क्षति का अनुभव नहीं, बल्कि समय की विडम्बना है जिसमें मनुष्य अपनी ही बनायी हुई व्यवस्था में विस्थापित होता चला गया है।
कवयित्री की तेज नज़र सि$र्फ स्त्री या राजनीति तक सीमित नहीं है। वह समाज के हर उस व्यक्ति तक पहुँचती है जो शोषित है, उपेक्षित है, जो हमारे सामाजिक नियमों, कायदों या प्रचलित परंपराओं में जगह न बना सकने के कारण व्यथित है, उदास है और खुद को हारा हुआ महसूस करता है।
'हारे हुए लोग' एक ऐसी कविता है जो आधुनिक समाज की उस भीतरी परत को उजागर करती है, जहाँ हार केवल एक परिणाम नहीं, बल्कि एक पहचान बन जाती है। यह कविता उन असंख्य व्यक्तियों की कहानी है, जो जीवन की निरंतर स्पर्धा में पीछे रह जाते हैं-कभी एक नौकरी में, कभी एक रिश्ते में, कभी स्वयं अपने अस्तित्व में।
कविता की सबसे बड़ी विशेषता इसकी संवेदनशील और गहराई से पगी दृष्टि है। यह नायकों की नहीं, आम और अनदेखे लोगों की बात करती है। यह उनकी बात करती है जो सबसे कोने में बैठते हैं, जिन्हें प्रमोशन कभी नहीं मिला, जो बच्चों से किए वादे पूरे नहीं कर पाए, जिनकी जि़न्दगी में 'चुपचाप' एक स्थायी भाव बन गया है। यह कविता हमें याद दिलाती है कि हार केवल करियर या पैसे से जुड़ी नहीं होती, बल्कि संबंधों, आत्मसम्मान और स्वीकृति के स्तर पर भी उतनी ही गहरी और मारक हो सकती है।
कविता की भाषा सरल है, पर उसका असर असाधारण। इसमें बिंब नहीं, सीधे जीवन की ठोस छवियाँ हैं। ठंडा खाना, अंधेरा कमरा, पसंद की सब्ज़ी का न मिलना, ये सब प्रतीक नहीं, बल्कि यथार्थ हैं, जो पाठक को भीतर तक झकझोरते हैं। 'खोटे सिक्के' और 'गुमशुदा' जैसे शब्द न केवल सामाजिक उपेक्षा को उजागर करते हैं, बल्कि हमारे मूल्यांकन के तरीकों पर भी सवाल उठाते हैं।
यह कविता प्रश्न करती है कि हारे हुए लोग आख़िर कहाँ जाते हैं? और यही प्रश्न इसकी शक्ति है। यह पाठक को उदास नहीं, जागरूक बनाती है। यह कविता एक सामाजिक दस्तावेज़ की तरह है, जो बाजारू सफलता के पीछे छूट गए चेहरों की ओर हमारी दृष्टि मोड़ती है। यह आज के समय की उन अनसुनी आवाज़ों को शब्द देती है, जिन्हें पहचान और करुणा दोनों की दरकार है।
लेकिन हताशा, उदासी या निष्कर्षहीनता इस संग्रह की कविताओं का मूल स्वर या केन्द्रीय भाव नहीं है। यहाँ अगर निराशा है तो उम्मीद भी है। 'उम्मीद' कविता, जो संभवत: संग्रह की सबसे सादगीपूर्ण लेकिन गहरी कविताओं में से है, हमें यह भरोसा दिलाती है कि तमाम विफलताओं, अकेलेपन और टूटन के बावजूद जीवन में उम्मीद का एक कोना हमेशा सुरक्षित रहता है। यह उम्मीद किसी उत्साही उद्घोष की तरह नहीं आती, बल्कि एक मौन सहमति की तरह आती है कि जीने का अर्थ केवल सहना नहीं, बल्कि उम्मीद के साथ टिके रहना भी है।
श्रुति की कविताएँ सत्ता की विडंबनाओं के साथ-साथ समाज के भीतर छिपी उन असमानताओं को भी खोलती हैं, जो अक्सर अदेखी रह जाती हैं। श्रुति के काव्य-विश्व में भाषा का प्रयोग बेहद सूक्ष्म और तीव्र है। उनकी कविता में शब्दों की गति, उनका प्रवाह, और उनकी अंतरंगता बहुत प्रभावी रूप से पाठक से जुड़ती है। कविता में एक घरेलू-सी सहजता होती है, लेकिन उसी भाषा में सत्ता की आलोचना और समाज के विरोधाभासों की खुलकर व्याख्या भी होती है।
श्रुति की कविताएँ शोर नहीं करतीं, लेकिन वे अपने भीतर गहरी शांति और प्रतिबद्धता से भरी होती हैं। वे अपने शब्दों में विचारों को इस तरह छिपा देती हैं कि वे धीरे-धीरे पाठक के भीतर पैठ जाते हैं। इस संग्रह की हर कविता को पढ़ते समय यह महसूस होता है कि कवि ने अपने शब्दों को पूरी जिम्मेदारी से चुना है। उनका कोई भी शब्द बिना किसी उद्देश्य के नहीं होता, और यही संग्रह की सबसे बड़ी ताकत है।
'सुख को भी दुख होता है' संग्रह के माध्यम से श्रुति ने जो काव्य-रचना प्रस्तुत की है, वह न केवल समकालीन समाज, राजनीति और स्त्री के संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़ है, बल्कि यह जीवन के समग्र अनुभवों का गहरा और सूक्ष्म विश्लेषण भी है। उनके शब्दों में न केवल गहरी संवेदनशीलता है, बल्कि एक गहरी विचारशीलता और सामाजिक जागरूकता भी है, जो इसे एक सशक्त संग्रह बनाती है।
इन कविताओं में विचार और संवेदना के बीच कोई युद्ध नहीं, बल्कि एक गहन संवाद है। यह संवाद भाषा को पॉलिश नहीं करता, वह उसकी धूल झाड़ता है, उसे स्मृति में डुबोता है, और फिर उस पर एक नया प्रश्नचिह्न रखता है। ये कविताएँ पाठक को एक निष्कर्ष नहीं देतीं, बल्कि उन्हें अपने भीतर झाँकने को विवश करती हैं। वे प्रश्न करती हैं धीरे से लेकिन अटल मजबूती से। और शायद कविता का सबसे गहरा प्रभाव भी यही होता है कि वह समय के विरुद्ध खड़ी होकर हमें सोचने, पहचानने, और संदेह करने की ताकत दे।
प्रिय श्रुति का यह कविता संग्रह हिन्दी काव्य जगत में एक विशेष स्थान बनाए यही शुभकामनाएँ!


