धर्मनिरपेक्षता पर हमले का नया तरीका
भारतीय संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता एक सकारात्मक और क्रांतिकारी अवधारणा है जो पश्चिमी अवधारणा से काफी अलग है

- सर्वमित्रा सुरजन
भारतीय संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता एक सकारात्मक और क्रांतिकारी अवधारणा है जो पश्चिमी अवधारणा से काफी अलग है। श्री रवि जिस यूरोपीय धर्मनिरपेक्ष विचार की बात कर रहे थे, उसमें धर्म का राज्य से कोई संबंध नहीं है। जबकि भारत में धर्मनिरपेक्षता में अंतर-धार्मिक समानता या सर्वधर्म समभाव पर जोर दिया गया है। धर्मों के भीतर होने वाले भेदभाव और दो धर्मों के भीतर होने वाले मतभेदों को भी ध्यान में रखा गया है।
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने चार दिन पहले 22 सितंबर को कन्याकुमारी में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि 'धर्मनिरपेक्षता एक यूरोपीय अवधारणा' है और भारत को इसकी जरूरत नहीं है। श्री रवि ने कहा कि भारत के लोगों के साथ कई सारे फ्रॉड (धोखे) हुए हैं और उनमें से एक धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा है। उन्होंने कहा, 'ये अवधारणा यूरोप में चर्च और राजा के बीच झगड़े के कारण पैदा हुई थी। जबकि भारत एक धर्म केंद्रित राष्ट्र है और इसलिए ये संविधान का हिस्सा नहीं था। लेकिन एक 'असुरक्षित प्रधानमंत्री' ने आपातकाल के दौरान इसे संविधान में जुड़वाया।'
जाहिर है राज्यपाल का इशारा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर था। 1976 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही संविधान में संशोधन कर धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया था। तब देश में आपातकाल लागू था। राज्यपाल रवि ने कहा कि स्वतंत्रता के दौरान जब संविधान ड्राफ्ट किया जा रहा था, तब धर्मनिरपेक्षता की चर्चा आई थी। उनका दावा है कि संविधान सभा ने इसे ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि भारत एक धर्म केंद्रित राष्ट्र है और यहां यूरोप की तरह कोई झगड़ा नहीं है।
राज्यपाल रवि ने अपने भाषण में धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो कुछ कहा, उससे एक बार फिर जाहिर हो गया है कि देश में संविधान पर अब भी खतरे मंडरा रहे हैं।प्रधानमंत्री मोदी संविधान को सिर-माथे से लगाकर देश को यह दिखलाना चाहते हैं कि कांग्रेस ने संविधान को भाजपा से खतरे का जो मुद्दा खड़ा किया है, वह गलत है और भाजपा प्राणपण से संविधान की रक्षा करेगी। इसलिए एनडीए सरकार ने संविधान हत्या विरोधी दिवस मनाने का फैसला भी ले लिया है। लेकिन राज्यपाल आर एन रवि ने संविधान में पूरे नियमों के साथ किए गए एक संशोधन पर उंगली उठाकर साबित कर दिया है कि संविधान को बदलने की साजिशें अभी खत्म नहीं हुई हैं। इस भाषण के सामने आने के बाद भी केंद्र सरकार की तरफ से इस पर आलोचना की कोई टिप्पणी नहीं आई। सरकार के किसी नुमाइंदे ने यह नहीं कहा कि संविधान की प्रस्तावना में जो कुछ लिखा है, हम उसे उसी तरह अक्षुण्ण बनाए रखेंगे, उसमें कोई फेरबदल नहीं होगा, न उसके खिलाफ की जा रही टिप्पणियों को बर्दाश्त किया जाएगा।
वैसे आर एन रवि को यह स्पष्ट कर देना चाहिए था कि उन्हें असली तकलीफ किस बात से है, संविधान में धर्मनिरपेक्षता से, धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय अवधारणा से, इंदिरा गांधी से या इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए ऐसे संशोधन से, जिससे देश के करोड़ों लोगों को इस बात की राहत मिली कि वे किसी भी तरह से दोयम नहीं हैं। क्योंकि भारतीय संविधान जिस धर्मनिरपेक्षता की बात करता है, उसमें भारतीय संस्कृति की जरूरतों और विशेषताओं का ध्यान रखा गया है, यानी अनेकता में एकता और इसी वजह से हरेक नागरिक को समान होने का अधिकार है। इसके अलावा संविधान में धर्मनिरपेक्षता के जरिए विज्ञान और तर्कवाद को प्रोत्साहन और सरकार को धार्मिक दायित्वों से स्वतंत्र कर सभी धर्मों के प्रति एक सहिष्णु रवैया अपनाने पर जोर दिया गया है।
गौरतलब है कि दुनिया में जितने प्रमुख धर्म हैं, वे सब भारत में भी हैं, और हर धर्म का व्यक्ति अपनी पहचान के प्रति संवेदनशील होता है। उसकी धार्मिक पहचान सुरक्षित रहे, यह जिम्मेदारी केवल धर्मनिरपेक्ष राज्य ही पूरी कर सकता है। इसके साथ ही जो नागरिक नास्तिक होते हैं, उन्हें भी अपनी सोच के साथ सुरक्षित जीवन मिले, यह जिम्मा भी सरकार का ही है। भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा इन्हीं जिम्मेदारियों की अपेक्षा सरकार से करती है।
भारतीय संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता एक सकारात्मक और क्रांतिकारी अवधारणा है जो पश्चिमी अवधारणा से काफी अलग है। श्री रवि जिस यूरोपीय धर्मनिरपेक्ष विचार की बात कर रहे थे, उसमें धर्म का राज्य से कोई संबंध नहीं है। जबकि भारत में धर्मनिरपेक्षता में अंतर-धार्मिक समानता या सर्वधर्म समभाव पर जोर दिया गया है। धर्मों के भीतर होने वाले भेदभाव और दो धर्मों के भीतर होने वाले मतभेदों को भी ध्यान में रखा गया है। इसलिए दलित या महिला उत्पीड़न या जातिगत भेदभाव पर सरकार अंकुश लगाती है। पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्ष सरकारें और अदालतें तब भी हस्तक्षेप नहीं करतीं, जब कोई धार्मिक संस्था किसी समुदाय या महिला के लिये कोई निर्देश देती है। लेकिन धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक स्थलों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर राज्य और न्यायालय दखल दे सकते हैं।
इसलिए धर्मनिरपेक्ष को यूरोपीय अवधारणा बताकर उसे भारतीयों के साथ धोखा कहना, असल में संविधानविरोधी बात है, जिस पर मोदी सरकार संज्ञान ले या न ले, अदालत को संज्ञान लेना ही चाहिए। दरअसल भाजपा कई तरीकों से ऐतिहासिक संदर्भों या फैसलों को तोड़-मरोड़ कर जनता के सामने पेश करती है, जिससे भ्रम की स्थिति बनती है। नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनावों में मुसलमानों को ज्यादा हक देने या मंगलसूत्र चोरी हो जाने जैसे डर जनता में इसी तरीके से फैलाने की कोशिश थी। हालांकि यह कोशिश कामयाब नहीं हुई। क्योंकि कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के बाकी दलों ने जनता को यह समझा दिया कि ये सारी बातें संविधान बदलने की रणनीति से ध्यान भटकाने की कोशिश हैं। अब आर एन रवि के इस बयान के बाद संविधान में धर्मनिरपेक्षता के विचार का पुन:पाठ कर लेने का अवसर बन गया है।
संविधान निर्माण के समय से ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा इसमें मौजूद थी, संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) इसका प्रमाण है। 1976 में धर्मनिरपेक्षता शब्द को जोड़कर इस अधिकार को और विस्तार दिया गया। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नहीं होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी। धर्मनिरपेक्षता से यह सुनिश्चित होता है कि राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न कर प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है।
अब विचारणीय बात यह है कि आखिर श्री रवि को धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से तकलीफ क्यों हुई। संविधान हर व्यक्ति को उसका धर्म मानने और अपनी मर्जी से उपासना का अधिकार दे रहा है, किसी से कुछ छीन नहीं रहा है, फिर किस बात का डर। और जहां तक यूरोपीय अवधारणा की बात है, तो भारत में अब भी बहुत कुछ ऐसा है जो ब्रिटिश सरकार की देन है। आर एन रवि खुद भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं और भारत का संघ लोकसेवा आयोग ब्रिटिश राज की सिविल सेवा से ही प्रेरित है। गर्वनर जैसे पद भी अंग्रेजी राज की उपज हैं।
हमारे संविधान को दुनिया के कई संविधानों के अध्ययन के बाद बनाया गया है। तो हम यूरोपीय या पश्चिमी या आयातित के नाम पर आखिर क्या-क्या चीजें छोड़ेंगे और सबसे बड़ा सवाल क्यों छोड़ेंगे। क्या सिर्फ इसलिए कि स्वदेशी, भारतीयता, राष्ट्रवाद जैसे शब्दों की जुगाली करके भाजपा देश को फिर से मध्ययुग में लौटाना चाहती है। और तब भी सब कुछ विशुद्ध भारतीय कहां था। अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलेगा कि भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा खुले दिमाग और खुली बांहों से लोगों का, विचारों का, परंपराओं और संस्कृतियों का स्वागत किया गया है। इसलिए भारत सारे जहां से अच्छा बना रहा। भारत की यह पहचान अब भी केवल संविधान के कारण बची हुई है, लेकिन भाजपा किसी न किसी तरह संविधान पर आपत्ति दर्ज करा ही रही है।


