बिना पैसे की खेती के काम की अच्छी परंपरा
हाल ही मुझे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच जाने और उन्हें करीब से देखने-समझने का मौका मिला

- बाबा मायाराम
आज जब दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों का संकट बढ़ते जा रहा है। टिकाऊ जीवन पद्धति, टिकाऊ खेती और कम ऊर्जा की खपत इत्यादि के बारे में रुझान बढ़ रहा है। आदिवासियों का प्रकृाति से एक विशेष लगाव रहा है और उन्होंने उसका संरक्षण भी किया है। जलवायु बदलाव में भी उनका कोई योगदान नहीं है। प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना यह पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। वे खुद को प्रकृति का हिस्सा समझते हैं, उससे ऊपर नहीं।
हाल ही मुझे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच जाने और उन्हें करीब से देखने-समझने का मौका मिला। उनकी कुछ अच्छी परंपराओं में से एक है एक- दूसरे की मदद करना। उनका जीवन अब भी कुछ हद तक अमौद्रिक तरीके से चलता है और वह जंगल पर निर्भर है। आपसी लेन-देन और एक-दूसरे की मदद उसमें शामिल है। आज के स्तंभ में इस पर चर्चा करना उचित होगा।
जशपुर जिले के एक गांव में मुझे कुछ दिन रहने का मौका मिला। यह उरांव आदिवासियों का गांव है। जिस घर में हम रुके थे, वह कच्चा मिट्टी का था, लेकिन सीमेंट व कांक्रीट के पक्के घरों से अपेक्षाकृत ठंडा था। वहां हर चीज सुघड़ता से रखी हुई थी। गोबर व काली मिट्टी से लिपा-पुता यह घर साफ-सुथरा था और अपना सौंदर्य बिखेर रहा था। ऊं ची दीवारों वाले खपरैल से ढंके इस हवादार घर के आगे-पीछे काफी खुली जगह थी। बच्चों के खेलने-कूदने और उठने-बैठने के हिसाब से पर्याप्त जगह थी।
इस गांव के अधिकांश घर मिट्टी के बने हैं, जिन्हें आदिवासी परिवारों ने खुद बनाया है। इन घरों की उम्र डेढ़ दो सौ साल की बताई जाती है। हर साल घऱ की थोड़ी बहुत मरम्मत व खपरैल की अदला-बदली करने की जरूरत होती है। यह सब स्थानीय लोग व कारीगर कर लेते हैं। इसमें न ज्यादा खर्च होता है और सीमेंट व गिट्टी जैसी महंगी चीजों की जरूरत होती है, जिसमें खनन की भी जरूरत होती है, जिससे प्रकृति को नुकसान पहुंचता है। इन घरों बिजली-पंखे के बिना भी रहा जा सकता है। हालांकि अब ज्यादातर घरों में बिजली है।
अंग्रेजी के यू आकार के बने इस घर के पीछे बड़ी बाड़ी थी, जहां से हरी सब्जियां व फलदार पेड़ लगाए गए हैं। सब्जियों में पानी देने के लिए कुआं होता है, जिसमें बांस की लकड़ी के एक सिरे पर बाल्टी बंधी रहती है और दूसरे सिरे पर पत्थर। बिल्कुल रेलवे गेट की तरह। इस लकड़ी के एक सिरे को पकड़कर ऊपर-नीचे करने से पानी खींचा जा सकता है। इसे स्थानीय भाषा में टेड़ा कहा जाता है। इसमें ट्यूबवेल व मोटर पंप की तरह पानी की बर्बादी नहीं होती। हालांकि अब यह टेड़ा पद्धति कम हो रही है। जबकि पहले छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में इसी टेड़ा पद्धति से सिंचाई की जाती थी, जो कुछ जगह अब भी होती है। यहां बाड़ियों में लगे हरे-भरे कटहल के पेड़ों को फलों से लदा देखकर कोई भी मोहित हो सकता है। इस गांव में आम का बगीचा है। अगर कोई मेहमान आता है तो उसे कटहल की सब्जी से उसका स्वागत होता है।
इन दिनों कोसम के फल पक रहे हैं। बच्चों की टोलियां कोसम खाने के लिए पेड़ों के आसपास घूमती रहती हैं। कोसम के पेड़ों में लाख होती है, जिसे बच्चे बीनते हैं और बेचकर उनका जेब खर्च निकालते हैं। जामुन भी खाने को मिलती है, जो अब खत्म होने लगी है। गांव की महिलाएं जंगल जाती हैं, और खुखड़ी ( मशरूम) बीनकर लाती है, जिसकी सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है साथ में हरी पत्तीदार भाजियां भी तोड़कर लाती हैं। ये कई तरह के औषधीय पौधों को भी जानती हैं, जिनसे वे छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज कर लेती हैं। इन दिनों बांस करील भी एक अच्छी सब्जी आ रही है। कुछ नौजवान आसपास के नालों, तालाबों और नदी में मछली पकड़ने जाते हैं और पकाकर खाते हैं।
इसके अलावा, चार ( चिरौंजी ) के जंगल में जाकर पेड़ों से पके चार को खाने का एक अलग ही मजा है। बरगद के फल, इमली, आंवला, इमली की पत्ती तोड़-तोड़कर बच्चे खाते रहते हैं। कुछ युवाओं ने बताया कि जंगल में सदैव ही कुछ न कुछ खाने को मिलता है। मौसमी फल, फूल, पत्ती, मशरूम मिलते ही रहते हैं। वहां की साफ हवा, साफ आसमान और हरियाली का आनंद ही अनूठा है।
गांव के छोटे बच्चे जंगल के पेड़ों के नाम, जंगली जानवरों व फल-फूलों के नाम और पहाड़ों के बारे में ढेरों बातें जानते हैं, जिसे सुनकर सुखद आश्चर्य होता है। इसी प्रकार यहां के बुजुर्गों से बात कर जंगलों में मौजूद सैकड़ों जड़ी-बूटियों के बारे में जाना जा सकता है। भूख के दिनों में काम आने-वाले कंद-मूल, फल-फूलों के बारे में वे सहज ही बता देते हैं, जो यहां के जंगल और पहाड़ मेमौजूद हैं।
यहां उरांव आदिवासी हैं। महिलाएं पुरुषों से अधिक काम करती हैं। लेकिन महिलाओं पर उतनी पाबंदी नहीं है, जितनी अन्य जगहों में होती है। यहां की लड़कियां साइकिल चलाती हैं, जो उनकी आजादी की प्रतीक बन गई है। वे साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाती हैं। खेत और हाट-बाजार जाती हैं। वे गांव से दूसरे गांव अकेले ही साइकिल से जा सकती हैं।
यहां का जीवन हमें कठिन लग सकता है, पर यहां के लोगों के लिए सहज है। यहां बहुत जल्दी 4 बजे सुबह लोग जाग जाते हैं। हमारी तरह 8 बजे तक सोना इनकी आदत में नहीं है। सबसे पहले मुंह हाथ धोकर उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है। महिलाएं साफ-सफाई का काम करती हैं। पानी भरती हैं, हैंडपंप नजदीक नहीं होने के कारण कई महिलाओं को दूर-दूर से सिर पर पानी भरे बर्तन ढोना पड़ता है। झाडू लगाना भी बड़ी मशक्कत का काम है। यहां शहरों की तरह एक-दो चिकने कमरों की सफाई नहीं करनी पड़ती बल्कि अपने घरों की सफाई के साथ मवेशियों को बांधने की लंबी-चौड़ी जगह को साफ करना पड़ता है। वहां के कचरे को उठाकर बाहर फेंकना पड़ता है। दोपहर में छींद के पत्तों से चटाई बनाने और झाडू बनाने जैसे काम करते हैं।
महिलाओं की तरह भी पुरुष भी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। खेत-खलिहान से लेकर जंगल से वनोपज संग्रह के काम में लगातार करते रहते हैं। इन दिनों खेतों की जुताई हो रही है। खेती के औजार भी आदिवासी खुद ही बनाते हैं।
कुल मिलाकर, यहां की ग्रामीण जीवनशैली काफी हद तक अमौद्रिक है, यानी बिना पैसे के काफी जरूरत पूरी हो जाती हैं। इसके साथ ही एक दूसरे से मदद व सहयोग है। इसी तरह, यहां की शादियों में उपहार स्वरूप कीमतें वस्तुएं देने का चलन ज्यादा नहीं है, बल्कि उनकी जगह दाल, चावल, सब्जियां देते हैं। मुझे एक परिवार के मुखिया ने बताया कि उनके बेटे की शादी में काफी चावल एकत्र हो गया था, जिससे शादी तो अच्छे से हो गई, बल्कि उसमें से तीन बोरा चावल बच गया, जिससे उनकी महीनों तक भोजन की जरूरत पूरी हो जाएगी। महंगी व खर्चीली शादियों का चलन नहीं है, सादगी अब देखी जा सकती है।
इसी प्रकार, यहां खेती के कामों में भी बारी-बारी से एक दूसरे की मदद करने की परंपरा है। एक किसान के खेत में पड़ोसी जुताई करने जाते हैं, तो काम खत्म होने के बाद वह किसान पड़ोसी के खेत में काम करने में मदद करेगा। कई बार काम के बदले भोजन कराया जाता है, नकद पैसे देने की जरूरत नहीं होती। इसे संगत व सहयोग भी कहते हैं। जबकि छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में बैठिया परंपरा है, वह भी इसी तरह होती है। जिसमें खेती-किसानी, मकान निर्माण व मरम्मत, शादी-विवाह में एक दूसरे की मदद की जाती है, और उसके बदले नकद पैसे नहीं लिए जाते। हालांकि यह परंपराएं समय के साथ कुछ कमजोर हुई हैं, पर अब भी किसी न किसी रूप मेें कायम हैं।
यहां दूर-दूर मकानों में रहने वाले लोगों में एक-दूसरे के साथ बहुत नजदीक रिश्ता है। सामूहिकता है, आपसी भाईचारा, आत्मीय रिश्ता और पारंपरिक मेल-जोल है। उन्हें उनकी संस्कृति आपस में सब को जोड़े हुए हैं। जोड़ने वाली संस्कृति के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं।
आज जब दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों का संकट बढ़ते जा रहा है। टिकाऊ जीवन पद्धति, टिकाऊ खेती और कम ऊर्जा की खपत इत्यादि के बारे में रुझान बढ़ रहा है। आदिवासियों का प्रकृाति से एक विशेष लगाव रहा है और उन्होंने उसका संरक्षण भी किया है। जलवायु बदलाव में भी उनका कोई योगदान नहीं है। प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना यह पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं। वे खुद को प्रकृति का हिस्सा समझते हैं, उससे ऊपर नहीं। क्या उनकी अच्छी परंपराओं से हम कुछ सीख सकते हैं। लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार हैं?


