नदी से एक संवाद
क्यों इतना इतराती हो तुम नदी

- बसंत राघव
''क्यों इतना इतराती हो तुम नदी
क्यों इतना बलखाती हो तुम
क्या इस बात का है तुम्हें अभिमान
कि जीवन- रेखा कहलाती हो तुम नदी
क्यों नहीं तुम अपनी मर्यादा में बहती हो?
क्यों नहीं तुम अपनी सीमाओं में रहती ?
इस तरह उच्छृंखल होना उचित है क्या?
भुल गए तुमको सारी दुनिया जीवनदायिनी
है कहती!
आज तुम जीवन रेखा नहीं
अपितु बन गई हो मृत्यु रेखा
सच हतभागों की व्यथाओं का लेखा
एक ही पल में तुम हो जाती हो विकराल
कुछ तो बोलो नदी , तुमसे पूछ रहा है जमाना
आखिर क्यों धरा तुमने यह विध्वंसक- बाना?
तारिणी तुम कैसे हो गई हो मारणहार ,
कहो छोड़कर सृजन
महाविनाश का यह पथ तुमने क्यों चुना?
हिमाचल,उत्तराखंड को श्रीहीन करके तुमको क्या मिला ?
बहुत हुआ , बंद करो, बंद करो, बंद करो
यह वीभत्स विनाश लीला,
बोलो ब्यास बोलो रावी , बोलो यमुना
उत्तर दो मेरे प्रश्नों का
आखिर कब तक चलता रहेगा
यह जल प्रलय का अंतहीन सिलसिला।''
विकट वेगवती नदी सामान्य हो गई अचानक
सौम्य हो गया रौद्ररूप जो था अत्यंत भयानक
यद्यपि उसके पीछे के दृश्य थे हृदय विदारक।
प्रश्न ही प्रश्न उठ खड़े थे,
आखिर क्यों हुआ ये सब ?
अरे ओ माटी के पुतले,
घुल गल जावोगे
गर मुझसे तुम टकराओगे,
पल भर में मिट जावोगे
सारे विनाश के मूल में क्या तुम ही नहीं हो?
यदि मैं अपने पर आ जाऊं तो क्या संभल पावोगे ???
बोलो, मेरे मुहाने में किसने नगर बसाया
छीनकर हक मेरा
किसने अपना साम्राज्य बढ़ाया
सौ- सौ अश्रुधार रुलाया है किसने मुझको
अरे मूर्खों, इस महाविनाश को किसने है बुलाया?
सबको मिलता है इस जग में
अपनी - अपनी करनी का फल
तुमने ही खड़ी की है विकट समस्या,
तो तुम ही ढूढ़ो इसका कोई कारगर हल
फैसला कुदरत का कभी गलत नहीं होता
जो भी होता है वही हो जाता है अटल।'
प्रवहमान थी नदी, अपनी मन्थर गति से
यक्ष - प्रश्न उलझा रहा मेरी ही अपनी मति में
नदी कह रही थी
बोलो मनुष्य
क्या तुम ही जिम्मेदार नहीं हो
अपनी इस क्षति के लिए
अपनी इस दुर्गति के लिए


