स्टार्टअप्स' के लिए जरूरी है, समझ की तब्दीली
टेक्नालॉजी में शोध की नींव कमज़ोर है तो स्टार्टअप हवा से प्रकट नहीं होंगे

- अरविंद सरदाना
टेक्नालॉजी में शोध की नींव कमज़ोर है तो स्टार्टअप हवा से प्रकट नहीं होंगे। शोध में निवेश करना सरकार का काम है। कई दशकों से चीन इस दिशा में बड़ी मात्र में निवेश कर रहा है। वर्तमान उदाहरण ही लें तो इस समय चीन का रिसर्च और डेवलपमेंट का बजट 715 अरब डॉलर है जो भारत से दस गुना अधिक और कई सुनियोजित प्लानिंग के साथ किया गया है।
हाल ही में केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने एक मीटिंग में भारत के स्टार्टअप्स को फटकार लगाते हुए कहा कि भारत के स्टार्टअप दुकानदारी-नुमा नवाचार कर रहे हैं। मेहनती हैं, किन्तु केवल बाज़ार व्यवस्था में खरीदने-बेचने के नए तरीके के ही प्रयोग कर रहे हैं। इसकी तुलना में चीन में अधिकांश स्टार्टअप तकनीकी क्षेत्र में प्रयोग करते हुए प्रगति की राह पर चल रहे हैं। मंत्री जी का यह कथन सही है, लेकिन क्या इसमें स्टार्टअप का दोष है या सरकारी नीतियों की कमी और उनकी दूरदृष्टि का अभाव?
भारत में किसी भी स्टार्टअप के मूल में दो बातें देखी जाती हैं – एक, नवाचार और दूसरी, बाज़ार में सफलता! नवाचार की दृष्टि से यह परखा जाता है कि उस विचार में कितना दम है, क्या यह प्रयोग करने योग्य है? साथ-ही-साथ यह प्रश्न भी पूछा जाता है कि क्या यह बाज़ार में चल पायेगा?
हम यह भूल रहे हैं कि बाज़ार का आकलन बहुत दूरदृष्टि का नहीं हो सकता। एक विचार जो पुख्ता है, लेकिन उसके बाज़ार में टिकने की सम्भावना नहीं है, ऐसे स्टार्टअप को वित्तीय मदद कौन करेगा? टेक्नालॉजी में अधिकांश नए विचार शोध के क्षेत्र में होते हैं जो विश्वविद्यालयों या विशेष शोध-संस्थानों में किए जाते हैं। इनमें से कई विचारों को बाजार में उतरने में कई बरस या दशक लग जाते हैं तब जाकर स्टार्टअप की कल्पना की जा सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान एवं टेक्नालॉजी में शोध करने वाले कई असफलताओं से गुज़रकर ज्ञान के भंडार को पुख्ता करते हैं।
यदि टेक्नालॉजी में शोध की नींव कमज़ोर है तो स्टार्टअप हवा से प्रकट नहीं होंगे। शोध में निवेश करना सरकार का काम है। कई दशकों से चीन इस दिशा में बड़ी मात्र में निवेश कर रहा है। वर्तमान उदाहरण ही लें तो इस समय चीन का रिसर्च और डेवलपमेंट का बजट 715 अरब डॉलर है जो भारत से दस गुना अधिक और कई सुनियोजित प्लानिंग के साथ किया गया है।
हमारे एक विज्ञान के साथी ने एक घटना सुनाई जो इस बात को दर्शाती है। दो दशक पहले जब वे जर्मनी के एक लैब में अपना पोस्ट-डॉक्टरेट काम कर रहे थे तो उनके जैसे कई स्टूडेंट चीन से थे, पर खास बात यह थी कि चीन के छात्रों के साथ उनकी मदद करने वाले एक सीनियर वैज्ञानिक भी थे जो इस बात का भी आकलन कर रहे थे कि हम यह लैब चीन में कैसे बना सकते हैं। उन्होंने चीन सरकार को इसकी रिपोर्ट पेश की और एक दशक बाद चीन की यूनिवर्सिटी से उस प्रकार के उच्चतम स्तर के शोधपत्र निकल रहे थे जो इस बात को सिद्ध करता था कि उनके देश में उस प्रकार के लैब बन गए थे।
इसे एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है। चीन के बाद भारत मोबाइल फ़ोन का सब से बड़ा निर्यातक है, पर दोनों में खास अंतर है। चीन में जब मोबाइल फ़ोन बनता है तो उसका लगभग 90 फीसदी तकनीकी हिस्सा चीन में ही बनाया जाता है। भारत में बनने वाले मोबाइल फ़ोनों के 75 फीसदी तकनीकी पार्ट्स बाहर से आयात किए जाते हैं। इस प्रकार के तकनीकी उद्योग जो मोबाइल फ़ोन के अलग-अलग खास पार्ट्स बना पाएं, उनको भारत सरकार एक इको-सिस्टम में नहीं ढाल पाई। तकनीकी उद्योग की नींव में जो शोध होना चाहिए वह भी नहीं बन पाया है।
इसका एक कारण है कि हमने इंफ्रास्ट्रक्चर को केवल सड़क, पानी और बिजली तक सीमित रखा है। ये सब उपलब्ध हों तो निजी उद्यमी अपने आप उद्योग का निर्माण करेंगे, किन्तु आज के समय के लिए यह समझ अधूरी है। इंफ्रास्ट्रक्चर का अहम हिस्सा है तकनीकी ज्ञान भंडार और उसमें कुशल मानव संसाधन। यदि यह देश में उपलब्ध नहीं है तो सरकार का काम है उसे उपलब्ध करवाए। इसमें सरकार की कई भूमिकाएं हैं - खुद कारखानों में निवेश करना व चलाना, शोध के लिए विशेष कदम उठाना और उन विदेशी कम्पनियों को लाना जिनके पास यह टेक्नालॉजी है। इन क़दमों के बिना इस प्रकार के उद्योग नहीं लग सकते। तकनीकी ज्ञान आपको आसानी से कोई नहीं देगा।
हम 'मेक इन इंडिया' करना चाहते हैं। नारा सही है, पर उसकी कारगर नीति नज़र नहीं आती। उद्योग के लिए ज़रूरी है नए कारखाने लगें और एक तरह का जाल या आपसी सम्बन्ध बने जहां एक का सामान दूसरा उपयोग करता हो। देश के लिए औद्योगीकरण में गहराई तभी बनती है, जब किसी भी सामान को बनाने के अधिकांश पार्ट्स हम देश में बना सकते हैं। यहां विस्तृत योजना की ज़रूरत है। कुछ क्षेत्रों में सरकार को खुद निवेश करना होगा।
वर्तमान समय के अध्ययन बताते हैं कि हम कारखानों के लिए ज़रूरी सामान का बड़ा हिस्सा आयात कर रहे हैं। अधिकांश चीन पर निर्भर हैं। प्राइवेट सेक्टर को जब तक सस्ता आयात करने का अवसर रहेगा तब तक वह इस दिशा में निवेश नहीं करेगा। उसकी सोच 'दुकानदारी' की होती है, दूरगामी नहीं। उदाहरण के लिए हम दवा उद्योग के क्षेत्र में अव्वल हैं, परन्तु इसका बहुत सारा ज़रूरी सामान चीन से आयात होता है। यदि यही सामान देश में बनाना है तो सरकार को खुद निवेश करना होगा और उसका तकनीकी ज्ञान हासिल करना होगा। हम इस नारे में फंस गए हैं कि सरकार को कारखाने नहीं लगाने चाहिए। नतीजे में ज़रूरी बुनियादी उद्योग की अवधारणा को भूलकर नेहरूवादी आद्योगिकीकरण को नकारा बताने की निरर्थक बहस में मशगूल हो गए हैं।
इन सभी कारणों को मिलाकर देखें तो दुकानदारी-नुमा स्टार्टअप का बनना हमारे वातावरण की उपज है। हमने ऐसा माहौल तैयार नहीं किया है जहां सरकार तकनीकी शोध में अधिक निवेश करती हो, जहाँ 'सार्वजनिक क्षेत्र' के उद्योगों द्वारा बुनियादी क्षेत्र में निवेश किया जा रहा हो या फिर विशेष कम्पनियों को टेक्नालॉजी ट्रान्सफर के लिए सरकारी कम्पनी के साथ अनुबंध किया जाए। हमारी नीतियां बाज़ार व्यवस्था में प्रोत्साहन देने पर टिकी हैं जिससे वातावरण बन जायेगा और निजी क्षेत्र स्वाभाविक रूप से तकनीकी ज्ञान की भरपाई कर लेगा। इस सोच को बदलने की ज़रूरत है।
(लेखक 'एकलव्य फॉउन्डेशन' के पूर्व-निदेशक हैं।)


