9 साल का हासिल 'सुपारी का लेन-देन' और 'कब्र की खुदाई' ही है
आखिर मोदी जैसे व्यक्ति को, जो चमत्कारिक गति से देश का विकास करने का दावा करते हुए सारी समस्याओं को किसी जादू की छड़ी से गायब करने के तरीके बतलाया करते थे

- डॉ. दीपक पाचपोर
आखिर मोदी जैसे व्यक्ति को, जो चमत्कारिक गति से देश का विकास करने का दावा करते हुए सारी समस्याओं को किसी जादू की छड़ी से गायब करने के तरीके बतलाया करते थे; और देश को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले जाने की बातें करते थे, आज अपनी एक भी उपलब्धि क्यों नहीं गिना पा रहे हैं? आखिर क्यों आज भी वे पिछली सरकारों को कोसते फिरते हैं?
देश को पूरी तरह से बदलने का दावा कर केन्द्र की सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कार्यकाल 9 वर्षों के दौरान इसी मुकाम तक पहुंच पाया है कि आज भी वे जनसरोकार के ठोस मुद्दों एवं अपने कामों की रिपोर्ट पेश करने की बजाय भावनात्मक मसलों पर ही बातें करते हुए अपने आप को निरीह, गरीब व प्रताड़ित बतलाते रहे हैं। 'विक्टिम कार्ड' खेलने की प्रक्रिया में वे पूरे देश को भी बेबस व बेचारा साबित करने पर आमादा हैं। बेशक, हर कोई जानता है कि यह उनकी चुनावी रणनीति का हिस्सा है लेकिन वे इसकी आड़ में महत्वहीन विमर्श को ऐसा मजबूती से पेश कर रहे हैं कि सत्ता पाने की गारंटी बनी रहे। दुखद तो यह है कि वे जब भावनात्मक मुद्दों पर आधारित आसमानी आदर्श गढ़ते हैं तो उसे अतिरिक्त बल देने के लिये सामाजिक विभाजन का ही सहारा लेते हैं जो देश एवं लोकतंत्र के लिये बहुत नुकसानदेह साबित हो रहा है।
रामनवमी में जिस प्रकार से साम्प्रदायिक वैमनस्यता का अतिरिक्त ज्वार देखा गया है, वह यही बता रहा है कि आने वाले सभी चुनावों में भाजपा का एजेंडा यही रहेगा। लोकहित पीछे, बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं। नुकसान जनसामान्य को होगा, लाभान्वित होगा राजनीतिज्ञों व पूंजीपतियों का गठजोड़। सवाल तो यह है कि क्या मोदी प्रणीत सरकार के 9 साल के कथित महान कामों का हासिल इतना ही है कि भारत का लोकतंत्र 2024 के आम चुनावों की दहलीज पर खड़ा होकर भी सुपारी के लेन-देन और कब्र खोदने से आगे नहीं बढ़ेगा?
अगर विचार करें कि आखिर मोदी जैसे व्यक्ति को, जो चमत्कारिक गति से देश का विकास करने का दावा करते हुए सारी समस्याओं को किसी जादू की छड़ी से गायब करने के तरीके बतलाया करते थे; और देश को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले जाने की बातें करते थे, आज अपनी एक भी उपलब्धि क्यों नहीं गिना पा रहे हैं? आखिर क्यों आज भी वे पिछली सरकारों को कोसते फिरते हैं? उन्हें अवाम ने दो-दो बार बड़े मौके दिये हैं। फिर भी उन्हें ठोस मुद्दों पर बात करने की बजाय परिवारवाद का ढोल क्यों पीटना पड़ रहा है? क्यों वे देश की मूलभूत समस्याओं का निराकरण करने की जगह पर खुद को चमकाने में सारा वक्त जाया कर रहे हैं? गहराई में जाएं तो यही बात निकलकर सामने आती है कि जिस छवि के बल पर उन्होंने सत्ता पाई है, दरअसल उसका कचूमर निकल गया है। एक-एक कर बात कर ली जाए। जिस समय मोदी की प्रधानमंत्री के लिये दावेदारी पेश की गई, तो कहा गया कि देश की सारी समस्याओं के समाधान विकास के 'गुजरात मॉडल' में उपलब्ध हैं जिसके निर्माता यही व्यक्ति है।
समय के साथ पाया गया कि वह कथित मॉडल पूंजी की तरफ ऐसा बेढंगा झुका हुआ है कि जब कोई विदेशी मेहमान आता है तो उस मॉडल के तहत हुए विकास से प्रभावित एक बड़े हिस्से को अस्थायी दीवार खड़ी कर ढांकना पड़ता है। उस मॉडल के अनुरूप बनने वाली देशव्यापी सारी योजनाएं एक-एक कर नाकाम होती जाती हैं- पहली से बढ़कर दूसरी और उससे बढ़कर तीसरी सुपर फ्लॉप! उसी मॉडल के नाम पर देश की गरीब जनता अपनी मेहनत का एक-एक रुपया सरकार पर भरोसा कर जन धन योजना के तहत खुले सरकारी खातों में डालती है और एक सुबह यह मनहूस खबर आती है कि उनके सारे पैसे कर्ज के रूप में लेकर उसी धरती के (गुजरात) फ्रॉडिये विदेश जाकर बस जाते हैं। इसी मॉडल के तहत नोटबंदी कर जनता का सारा पैसा लूटकर अपने संगठन के कार्यालय बनाये जाते हैं और चुनाव लड़े जाते हैं, रैलियां व रोड शो होते हैं।
इस मॉडल ने बताया कि हमारे पास इतने पैसे हैं कि कई-कई लाख-करोड़ों का कर्ज हम उद्योगपतियों व कारोबारियों को न लौटाने के लिये तो दे सकते हैं परन्तु हमारे पास न तो कोरोना से मरते लोगों को ऑक्सीजन देने के लायक पैसे हैं और न ही उनके गरिमामय अंतिम संस्कार करने के लिये धन है। यही मॉडल सरकार को इस बात के लिये भी प्रेरित करता है कि संसद में बहस किये बगैर ऐसा कानून लाया जाये जिसके द्वारा देश भर के सारे किसानों द्वारा उत्पन्न अनाज अपने चुनिंदा व चहेते सेठों के गोदामों में डालने का विधिसम्मत प्रबंध कर दिया जाये; और जब वे विरोध करें तो उन्हें 13 माह तक दिल्ली की सीमाओं पर ठंड-बारिश-गर्मी में मरने के लिये छोड़ दिया जाये।
इतना ही नहीं, सत्ता के नशे में बौराया हुआ कोई मंत्री-पुत्र इन किसानों को कुचलने का दुस्साहस भी करता है। इस मॉडल में पिछले 9 वर्षों से जारी मोदी के निज़ाम का योगदान ऐसा है कि उसमें जनता से मुक्त व स्वस्थ संवाद के सारे रास्ते बन्द हैं, सवाल पूछने की बात तो सोची ही नहीं जा सकती। मोदी न तो संसद में प्रस्तुत सवालों पर बोलते हैं और न ही प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। सूचना के अधिकार को इतना कमजोर कर दिया गया है कि जनता को जो जानना चाहिए, वह पूरी तरह से उसकी पहुंच से दूर कर दिया जाता है। यही मॉडल लोक गायकों से लेकर कॉमेडियनों तथा पत्रकारों के खिलाफ झूठे मुकदमे दायर कराता है तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बरसों बरस जेलों में सड़ा देता है।
इसके बावजूद जब इस मॉडल की पोल का कोई गम्भीर खुलासा विदेश की धरती से होता है तो सरकार बता देती है कि मोदी के मित्रों का नाम लेना मना है। इसके बारे में न तो देश का सबसे महान व्यक्ति कुछ कहता है और न ही सरकार कोई सवालों के सीधे बयान देती है। अगर कोई पूछने का साहस करता भी है तो उसे मानहानि के नाम पर जेल में डालने की साजिशें रची जाती हैं। तो यही कारण है कि मोदी अपनी सरकार की उपलब्धियों पर बात करने की बजाय परिवारवाद, पिछली सरकारों की गलतियां, देश विभाजन, तुष्टिकरण की बातें करते हैं, विपक्षियों द्वारा उन्हें गालियां देने, उनकी कब्र खोदने या फिर उन्हें सुपारी देने का रोना रोते हैं।
प्रश्न तो यह भी है कि जब अधिसंख्य जनता को यह साफ दिख रहा है कि मोदी व उनकी सरकार इतना लम्बे समय में डिलीवर करने में नाकाम रही है व उपलब्धियों के नाम पर शून्य है तो आखिर कौन हैं जो अब भी उनके समर्थक बने हुए हैं? दरअसल ये लोग ही भाजपा की असली परिसम्पत्ति हैं। ये वे हैं जिनके लिये रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, बिजली, पानी व अन्य बुनियादी सुविधाएं कोई मायने नहीं रखतीं। ये ही वे लोग हैं जो नागरिक चेतना, अधिकारों व विवेक से शून्य हैं। वे हर कीमत पर साम्प्रदायिक अलगाव व सामाजिक भेदभाव को बनाये रखने के पक्षधर हैं- सरकार के अपकर्मों की अनदेखी करते हुए और अपने बच्चों का भविष्य स्वाहा करके भी।
अपनी असफलताओं के अलावा हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और राहुल गांधी द्वारा अडानी से उनके सम्बन्धों को लेकर हुए हमले के कारण पहले से बौखलाये बैठे मोदी के समक्ष अगले माह के मध्य में होने जा रहे कर्नाटक विधानसभा में हार का साफ व बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
माना जा रहा है कि इस राज्य को हारने के बाद मोदी व भाजपा के लिये सतत तीसरी बार लोकसभा (2024 का) का चुनाव जीतना कठिन हो जायेगा। इसलिये मोदी मूलभूत मुद्दों के बारे में एक भी शब्द कहे बगैर उनके लिये सुपारी लेने-देने, उनकी कब्र खोदने जैसी बेतुकी व आधारहीन बातें कर रहे हैं। यह न देश के हित में और न ही लोकतंत्र के हित में है क्योंकि इस विमर्श को बढ़ाने के लिये भाजपा को सामाजिक टकराव को बनाये रखना भी आवश्यक है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)


