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देशबन्धु के 65 बरस

देशबन्धु के संस्थापक-संपादक स्व.श्री मायाराम सुरजन यानी बाबूजी ने अपने लिए लगभग अपरिचित रायपुर शहर से जब इस अखबार की शुरुआत की,

देशबन्धु के 65 बरस
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- राजीव रंजन श्रीवास्तव

देशबन्धु की स्थापना को आज पूरे 65 वर्ष हो गए। यह सुखद संयोग है कि देशबन्धु अपनी 65वीं वर्षगांठ रामनवमी और 17 अप्रैल की तारीख को मना रहा है। दरअसल रामनवमी संवत् 2016 को रायपुर से देशबन्धु का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था, उस दिन प्रचलित कैलेंडर के हिसाब से तारीख थी, 17 अप्रैल 1959। तब देशबन्धु का प्रकाशन इंदौर नई दुनिया के रायपुर संस्करण के रूप में प्रारंभ हुआ था, उसके बाद 1972 की रामनवमी को नई दुनिया रायपुर का नाम बदलकर देशबन्धु रखा गया।

देशबन्धु के संस्थापक-संपादक स्व.श्री मायाराम सुरजन यानी बाबूजी ने अपने लिए लगभग अपरिचित रायपुर शहर से जब इस अखबार की शुरुआत की, तो उनके समक्ष कई तरह की चुनौतियां थीं। लेकिन इरादों में एक अनूठी दृढ़ता और लोकतांत्रिक-प्रगतिशील मूल्यों के लिए अभूतपूर्व प्रतिबद्धता थी, जिसके बूते उन्होंने रेत में नाव खेना शुरु किया। जी हां, जिन मुश्किल परिस्थितियों में बाबूजी ने अखबार निकालना शुरु किया, उसे देखकर उनके बहुत से हितैषियों ने यही कहा कि आप रेत में नाव चला रहे हैं। लेकिन फिर इन्हीं हितैषियों और पाठकों के भरोसे की पतवार का संबल बाबूजी के पास था और वे देशबन्धु की नाव को आगे बढ़ाते रहे। रायपुर से शुरु हुए अखबार के अलग-अलग संस्करण खुले, जबलपुर, भोपाल, बिलासपुर, सतना, सागर, होशंगाबाद के साथ-साथ देशबन्धु का राष्ट्रीय संस्करण भी दिल्ली से पिछले 17 वर्षों से प्रकाशित हो रहा है।

65 बरस में देश-दुनिया में बहुत सारे बदलाव आए। कई देशों में शासन प्रणालियां बदल गईं। कई देशों के नक्शे बदल गए। दुनिया ने कई तरह की क्रांतियां देख लीं। भारत में भी राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी स्तर पर कई बड़े परिवर्तन हुए, जिनका जनसामान्य पर तो गहरा असर हुआ ही, पत्रकारिता का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा। प्रिंट मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक और फिर सोशल मीडिया का दायरा बढ़ता गया। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा, लेकिन देशबन्धु ने कभी भी खुद को चौथा स्तंभ नहीं माना। बाबूजी की जनपक्षधरता वाली पत्रकारिता की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले और देशबन्धु को नयी ऊंचाइयों पर ले जाने वाले उनके बेटे ललित सुरजन का कहना था कि स्वस्थ जनतंत्र और स्वस्थ प्रेस एक दूसरे के पूरक हैं। यदि जनतांत्रिक संस्थाओं में घुन लगी हो तो वह प्रेस की बुनियाद को भी कमजोर कर देती है, खासकर तब जब अखबार वाले अपने आप को सत्ता का चौथा खंभा मानने लगें। दरअसल हमारी भूमिका तो जनता और सत्ता के बीच एक संवाद सेतु बनने की है और इसमें अगर पक्षधरता है तो वह सत्ता की शक्ति के बजाय जनता की आवाज बनने के लिए है।

तो पिछले 65 बरसों से देशबन्धु जनता की आवाज बनकर पत्रकारिता के मोर्चे पर डटा हुआ है। इन साढ़े छह दशकों के लंबे सफर में कई झंझावातों से ये अखबार गुजरा। कई बार हमें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा, केवल इसलिए क्योंकि हमने किसी का पिट्ठू बनना स्वीकार नहीं किया। सत्ताधीशों ने तंज कसे कि दिखने के लिए बिकना जरूरी है। लेकिन हमें ये कहने में संतोष भी है और गर्व भी कि दिखने और बिकने से कहीं ज्यादा जरूरी हमारे लिए पाठकों के भरोसे पर खरा उतरना है। अगर तमाम आर्थिक और व्यावसायिक दिक्कतों के बावजूद बिना किसी बाहरी सहारे के देशबन्धु टिका हुआ है तो उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हमारे पाठकों को हमारी संपादकीय रीति-नीति पर विश्वास है। अमेरिकी उपन्यासकार कैमरून हॉले के बहुचर्चित उपन्यास -''द एक्जीक्यूटिव सुईट'' या ''अध्यक्ष कौन हो'' का उदाहरण देते हुए ललित जी अक्सर कहते थे कि कोई भी प्रतिष्ठान सिर्फ मशीनों और जड़ नियमों से नहीं बल्कि मानवीय सरोकारों से संचालित होता है। बाबूजी के बाद देशबन्धु को उन्होंने इन्हीं मानवीय सरोकारों के साथ आगे बढ़ाया और अब तीसरी पीढ़ी उन्हीं मूल्यों के साथ पत्रकारिता की इस मशाल को लेकर आगे बढ़ रही है।

यह संयोग ही है कि देशबन्धु का 65वां स्थापना दिवस और 18वीं लोकसभा चुनाव लगभग एक वक्त में ही पड़े हैं। इस बार के चुनावों में किसकी सरकार बनती है, इस सवाल ये कहीं बड़ी चिंता इस बात की है कि अब संविधान और लोकतंत्र बच पाते हैं या नहीं। संविधान बदलने की इच्छाएं अब खुलकर प्रकट की जा रही है। एक तरफ कहा जा रहा है कि भारत लोकतंत्र की जननी है और दूसरी तरफ आम चुनावों को महज औपचारिकता बताया जा रहा है। मौजूदा वक्त की दिक्कतों पर बात न करके 2047 का सपना देश को दिखाया जाने लगा है। और चौथा स्तंभ कहलवाने में प्रसन्न मीडिया इस पर पलटकर सवाल पूछने से भी कतरा रहा है। इस समय केवल सत्ताधीशों की नीयत पर ही सवाल नहीं उठ रहे, मीडिया की भूमिका और दर्शकों-पाठकों के बीच तेजी से गुम होती उसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे हैं।

लोकतंत्र और मीडिया की साख पर मंडरा रहा यह खतरा और कठिन दौर गुजर जाएगा, इसकी उम्मीद हमें है, लेकिन उससे अधिक इस बात की आश्वस्ति है कि जब भविष्य में इस वक्त का मूल्यांकन होगा, तो हमें अपनी भूमिका के साथ न्याय होने की उम्मीद रहेगी।

देशबन्धु के इस सुदीर्घ सफर में साथ देने के लिए हम अपने सभी पाठकों, शुभचिंतकों, अभिकर्ताओं और विज्ञापनादाताओं का आभार व्यक्त करते हैं।


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