मोदी के 11 साल : राष्ट्रवाद का झंडा और राष्ट्रीय सुरक्षा का शोकगीत''
सोमवार (9 जून) को प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा कर लिया है

- अनिल जैन
भारतीय सेना अपने मिशन में काफी हद तक कामयाब होने के बाद पाकिस्तानी सेना के हमलों का भी मुंहतोड़ जवाब दे रही थी, तब अचानक संघर्ष विराम का फैसला हो गया, जिसका ऐलान भारत या पाकिस्तान की ओर से नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से हुआ। यही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कश्मीर मसले पर दोनों देशों के बीच मध्यस्थ बनने की बात भी कही।
सोमवार (9 जून) को प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा कर लिया है। वैसे उन्हें प्रधानमंत्री बने 11 साल हो गए हैं। 26 मई, 2014 को प्रधानमंत्री बनने से पहले वे करीब साढ़े बारह साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। उस भूमिका में रहते हुए उन्होंने प्रचार माध्यमों के जरिए अपनी छवि विकास पुरुष की बनाई थी। इसी छवि के सहारे वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने देश की जनता से 60 महीने मांगते हुए कई वादे किए थे और तरह-तरह के सपने दिखाए थे। उनके वादों और सपनों का लब्बो-लुआब यह था कि वे पांच साल में भारत को विकसित देशों की कतार में ला खड़ा कर देंगे।
देश की जनता ने उनके वादों पर ऐतबार करते हुए उन्हें न सिर्फ पांच साल का एक कार्यकाल सौंपा बल्कि उस कार्यकाल में तमाम मोर्चों पर उनकी नाकामी के बावजूद उन्हें पूर्ण बहुमत के साथ पांच साल का दूसरा कार्यकाल भी दे दिया। यही नहीं, इस दौरान कई राज्यों में भी भाजपा की सरकारें बन गईं- कहीं स्पष्ट जनादेश से तो कहीं विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए जनादेश का अपहरण करते हुए। इसके बावजूद हर मोर्चे पर उनकी नाकामियों का सिलसिला न सिर्फ जारी रहा बल्कि तेज गति से जारी रहा। यही वजह रही कि मोदी को तीसरा कार्यकाल आसानी से हासिल नहीं हुआ। इसके लिए उन्हें चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का घोर दुरुपयोग, विपक्षी दलों और नेताओं का निर्ममतापूर्वक दमन, सांप्रदायिक धु्रवीकरण और लालच व दबाव के जरिये मीडिया के बंध्याकरण का सहारा लेना पड़ा। यह सब करने के बावजूद उनकी पार्टी बहुमत से काफी दूर रही और वे सहयोगी दलों की बैसाखियों के सहारे ही सरकार बना सके।
मोदी सरकार के दो कार्यकाल तो देश के आम आदमी के लिए तमाम तरह की दुश्वारियों से भरे हुए रहे ही और तीसरे कार्यकाल का पहला साल भी न सिर्फ बेहद निराशाजनक रहा है बल्कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत राष्ट्र की जो छवि थी, वह भी पूरी तरह चौपट होती दिख रही है। बहरहाल 11वें साल की चर्चा करने से पहले मोदी के उस भाषण को भी याद लेना चाहिए, जो उन्होंने 11 साल पहले प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार लाल किले से दिया था।
मोदी ने मई 2014 में प्रधानमंत्री बनने बाद जब 15 अगस्त, 2014 को स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बार देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों ने भी बड़े गौर से सुना था। विकास और राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।
मोदी ने कहा था- 'जातिवाद, सांप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, ये सब ऐसे जहर हैं, जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब एक संकल्प लें कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने के बजाय गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लड़ेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूं कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।'
इतना ही नहीं, मोदी ने अपने उस भाषण में पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने का संकेत दिया था। उन्होंने गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद आदि को भारत और पाकिस्तान की समान समस्याएं बताते हुए आह्वान किया था कि दोनों देश आपस में लड़ने के बजाय कंधे से कंधा मिला कर इन समस्याओं से लड़ेंगे तो दोनों देशों की तस्वीर बदल जाएगी।
मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर माना गया था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। उनके इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर से हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार मे संयम बरतेंगे। मगर रत्ती भर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। बहुत जल्दी ही खुद मोदी भी खुल कर सांप्रदायिक एवं विभाजनकारी भाषण देने लगे, जिससे प्रेरित होकर देश भर में कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं देशभक्ति के नाम पर मुसलमानों और दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं होने लगीं। हैरानी और अफसोस की बात यह कि इन सब बातों का सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी थमा नहीं और जिसका चरम पूरे देश ने हाल ही में पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद के घटनाक्रम के दौरान देखा है।
पहलगाम हमले का मक़सद कश्मीर के सामान्य होते हालात को बिगाड़ने के साथ ही देश भर में हिंदू-मुस्लिम टकराव पैदा करना था और इस पर भाजपा की ओर से जिस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही थी, वह आतंकवादियों के मकसद को पूरा करने का प्रयास ही लग रही थी। मगर देश के मुस्लिम समुदाय के संयम और समझदारी ने उस मकसद को नाकाम कर दिया। भारतीय सेना ने पहलगाम हमले के दोषियों को सबक देने के लिए जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में स्थित आतंकवादियों के अड्डों पर सैन्य कार्रवाई की और उस कार्रवाई के चलते जब पाकिस्तान के साथ युद्ध जैसे हालात बने, तब भी पूरा देश सेना और सरकार के पीछे एकजुट रहा।
भारतीय सेना अपने मिशन में काफी हद तक कामयाब होने के बाद पाकिस्तानी सेना के हमलों का भी मुंहतोड़ जवाब दे रही थी, तब अचानक संघर्ष विराम का फैसला हो गया, जिसका ऐलान भारत या पाकिस्तान की ओर से नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से हुआ। यही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कश्मीर मसले पर दोनों देशों के बीच मध्यस्थ बनने की बात भी कही। अमेरिकी राष्ट्रपति की इस बात को भारत सरकार ने किस मजबूरी के चलते स्वीकार किया, यह अभी भी रहस्य बना हुआ है और इस बारे में सवाल पूछने वालों को सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से 'देशद्रोही' करार दिया जा रहा है। पहलगाम हमला स्पष्ट रूप से सुरक्षा चूक यानी सरकार की लापरवाही का नतीजा था लेकिन सरकार इसे भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
बहरहाल इस पूरे घटनाक्रम का सर्वाधिक दुखद और शर्मनाक पहलू यह रहा कि पहलगाम हमले से लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य टकराव तक दुनिया का कोई भी देश भारत के समर्थन में सामने नहीं आया। अलबत्ता पाकिस्तान को जरूर चीन तथा कुछ अन्य देशों ने न सिर्फ सामरिक सहयोग दिया बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उसे भारी-भरकम आर्थिक सहायता भी मिल गई। भारत सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ वैश्विक समर्थन जुटाने के लिए सांसदों, पूर्व सांसदों और राजनयिकों के कई प्रतिनिधिमंडल दुनिया भर के देशों में भेजे, मगर यह कवायद भी न सिर्फ नाकाम रही बल्कि हास्यास्पद भी साबित हुई, क्योंकि भारत की ओर से जिस पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने की अपील दुनिया भर से की जा रही थी, उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आतंकवाद निरोधक कमेटी का उपाध्यक्ष और तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष भी चुन लिया गया।
रूस जैसा भारत का भरोसेमंद दोस्त भी अब भारत के साथ नहीं है और उसका हाथ पाकिस्तान के कंधे पर है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के ऐसे दयनीय हालात पहले कभी नहीं रहे। यह पूरा सूरत-ए-हाल भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद चिंता का विषय है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इस सबसे बेफ़िक्र होकर सेना के पीछे छुपते हुए अपनी नाकामी को कामयाबी के तौर पर प्रचारित करते हुए देश भर में रैलियां और रोड शो कर रहे हैं। उनके सामने अहम मकसद है किसी भी तरह बिहार और उसके बाद बंगाल का चुनाव जीतना। चुनाव ही एकमात्र ऐसा मोर्चा है जिस पर मोदी अपने 11 साल के अब तक के कार्यकाल में चुनाव आयोग और धनबल के सहारे कामयाब रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


