जब भी सत्ता परिवर्तन होता है तो सत्तारूढ़ दल पुरानी परिपाटियों और प्रतीकों को बदलने की प्रवृत्ति रखता है। विशेषकर तब जब सत्ता का हस्तांतरण एकदम विपरीत विचारधारा वाले दलों के बीच हो। इसमें कोई अनोखी बात नहींहै। हर दल अपने मूल्यों, सिद्धांतों और उनके प्रवर्तक नेताओं की प्रतिष्ठा जनता के बीच बढ़ाना चाहता है। यही कारण है कि देश में बहुत सी योजनाएं, कार्यक्रम नेहरू-गांधी परिवार के लोगों के नाम पर हैं। हालांकि इसमें कभी-कभी चाटुकारिता की बू भी आती है। कांग्रेस ने दशकों तक इस देश पर शासन किया। सत्ता का अधिकार उसने लोकतांत्रिक तरीके से ही हासिल किया। और जब जनता ने नहींचाहा तो उसे सत्ता के बाहर भी रखा। भारत में कांग्रेस के साथ ही नेहरू परिवार का नाम स्वाभाविक रूप से जुड़ा है, क्योंकि जब भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तो मोतीलाल नेहरू और उनके परिवार के कई सदस्यों ने इस संघर्ष में सक्रियता से हिस्सा लिया। स्वाधीनता संघर्ष के लिए उन्होंने हर संभव त्याग किया। अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़ी, निजी संपत्ति देशहित के लिए दे दी। उनके बेटे पं.जवाहरलाल नेहरू ने भी स्वाधीनता आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई और उसके बाद देश के पहले प्रधानमंत्री का पद संभाला। राजनीतिक नेतृत्व की इस विरासत को उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने आगे बढ़ाया और फिर अनिच्छा से ही सही पर राजीव गांधी और सोनिया गांधी भी राजनीति के क्षेत्र में आए और सफल नेतृत्व किया। कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव दशकों से कायम रहा है। इसे एक परिवार की तानाशाही करार देने वाले बहुतेरे हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि भारत लोकतांत्रिक देश है, यहां किसी परिवार की तानाशाही नहींचल सकती। पं.जवाहरलाल नेहरू को अगर प्रधानमंत्री के रूप में जनता पसंद नहींकरती तो उनके एक कार्यकाल के बाद उन्हें चुनाव में हरा देती, लेकिन ऐसा नहींहुआ। नेहरू की विचारधारा के विरोधी तो तब भी थे। इंदिरा गांधी को जनता ने सिर-माथे पर बिठाया और उनकी राजनीतिक गलतियों पर सत्ता से बाहर किया, लेकिन फिर उन्हें चुनावों में जीत भी दिलाई। यही स्थिति राजीव गांधी और बाद में सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांगे्रस की रही। अगर एक परिवार की तानाशाही सचमुच होती तो प्रधानमंत्री पद पर हमेशा नेहरू-गांधी परिवार का व्यक्ति ही होता। कांग्रेस और नेहरू परिवार के विरोधी तो बहुत हैं, लेकिन संघ परिवार और भाजपा इस परिवार के प्रति जो विरोध रखता है, वह अक्सर चिढ़ और ईष्र्या से लिप्त होता है। वर्तमान भाजपा सरकार का यह निर्णय कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी पर जारी डाक टिकटों को बंद किया जाए, इसी मानसिकता से प्रेरित है। मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के साथ ही कई योजनाओं और कार्यक्रमों के नाम बदले, पुरानी सरकार की नीतियों को नए नामों के साथ पुनर्र्संचालित किया। नेहरू की विचारधारा जहां-जहां से और जिस तरीके से बेदखल हो सके, उस पर काम शुरु किया और गोलवलकर, हेडगेवार आदि के विचारों का प्रचार-प्रसार प्रारंभ किया। राजनीति की यही परंपरा है, तो यही सही। लेकिन नीतिगत, सत्तागत, संस्थागत बदलाव अगर बदले की भावना से होने लगे, तो यह चिंता का विषय है। किसी के नाम पर डाक टिकट जारी करना सम्मान का प्रतीक है। आजादी के बाद से अब तक देश की कई महान विभूतियों पर डाक टिकट जारी हुए, हर साल कुछ नए नाम इस सूची में जुड़ते, लेकिन कभी किसी का नाम हटाया नहींजाता। भाजपा सरकार ने जिस तरह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी पर जारी टिकटों को हटाने का ऐलान किया है, उससे प्रतिशोध की भावना झलकती है। अपने फैसले को सही बताते हुए भाजपा का कहना है कि एक ही परिवार का यह सम्मान नहींमिल सकता। लेकिन भाजपा भूल जाती है कि इस परिवार ने यह सम्मान किसी दबंगई से हासिल नहींकिया, जनता ने उन्हें अपने नेता माना और सम्मान दिया। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम वाले डाक टिकट नहींहोंगे तो इससे जनता उनका नाम भूल नहींजाएगी, लेकिन यह जरूर याद रखेगी कि किस तरह इन्हें इतिहास से बेदखल करने की कोशिश हो रही है। डाक टिकट संबंधी एक सलाहाकार समिति ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, बोस, पटेल, मौलाना आजाद शिवाजी, विवेकानंद, महाराणा प्रताप आदि पर डाक टिकट निकालने का सुझाव दिया है। हालांकि इनमें से कुछ नामों पर पहले से टिकट निकलती रही है। आधुनिक इतिहास के साथ मध्ययुगीन इतिहास को भी इसमें जोड़ा गया है। अगर महाराणा प्रताप पर टिकट निकल सकती है, तो अकबर और शेरशाह सूरी के बारे में सरकार क्या सोचती है?