शहर अधिक सुरक्षित माने जाते रहे हैं क्योंकि समझा यही जाता है कि यहां प्रशासन मुस्तैद होता है। पुलिस हमेशा मौजूद रहती है और नागरिक प्रशासन से लेकर जनप्रतिनिधियों तक की हर घटना पर नजर रहती है। इसके विपरीत एक अरसे से शहर ही अपराध के केन्द्र बनते दिखाई दे रहे हैं। चोरी लूट और डकैती की घटनाएं बढ़ गई हैं। राजधानी रायपुर में पिछले कुछ वर्षों के भीतर ऐसी घटनाएं घटीं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है जिस राजधानी में कानून-व्यवस्था संबंधी निर्णय लिए जाते हैं, वहां ही असुरक्षा की स्थिति हो तो बाकी शहरों, गांवों के बारे में क्या सोचा जाए। राजधानी जैसा ही हाल बिलासपुर का भी है। कई बड़े मामले पकड़े तक नहीं गए और पिछले कुछ समय से तो शहर में चोरों का आतंक कायम हो गया है। पिछले दो दिनों में आधा दर्जन चोरी की घटनाएं बताती है कि यह पुलिस सुरक्षा की क्या स्थिति हो गई है। पुलिस अधिकारी दावा करते हैं कि चोरी की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए गश्त बढ़ा दी गई है। पुलिस वालों को नींद न आए इसलिए गश्त के दौरान पुलिस कर्मियों के लिए चाय तक का प्रबन्ध कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि पुलिस चाय पीकर सो जा रही हैं, वरना चोरों का हौसला इतना कैसे बढ़ जाता। कुछ चोरियों को पकड़ लेने में मिली सफलता पर पुलिस अपनी पीठ भले थपथपा ले पर सच तो यह है कि आए दिन हो रही चोरियों से लोगों में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही है। प्रदेश की जनता शांतिप्रिय है और शहरवासी प्रशासन का सहयोग करते रहे हैं। जनता की ओर से कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी करने की कोई परिपाटी भी नहीं है। ऐसे में प्रशासन को स्वयं ही यह देखना चाहिए कि जनता की उससे क्या अपेक्षाएं हैं। जनहित में दायर याचिकाओं पर दिए गए निर्देशों में हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणियों का सबक भी यही है कि अपनी जिम्मेदारियों के प्रति प्रशासन सचेष्ट हो। सवाल यह नहीं है कि प्रशासन क्या कर रहा है बल्कि इससे पहले इसका उत्तर तलाशने की जरुरत है कि अपराधियों की चुनौती से निपटने के लिएउसे क्या करना चाहिए। जब तक इस बात पर सोची-समझी रणनीति के अनुरुप कार्रवाइयों को अंजाम नहीं दिया जाएगा तब तक इस तरह की आपराधिक घटनाओं पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। पुलिस से अपराधियों को डर लगना चाहिए आम लोगों को नहीं। पुलिस की जो छवि बनी हुई उसमें उल्टा ही होता रहा है। आम आदमी को पुलिस का चेहरा डरावना लगता है, अपराधियों को नहीं। इसकी वजह भी है। हर पुलिस वाला यदि अपनी एक दिन की ड्यूटी पर विचार करे कि उसने पूरे दिन क्या किया तो पता चलेगा कि वह उन मामलों में पूरा दिन खपा दिया, जिसका लोकशांति की दृष्टि से ज्यादा महत्व नहीं है। इसमें कई बार उसका निजी हित जुड़ा होता है। वैसे तो पुलिस के काम की कोई अवधि निर्धारित नहीं है पर इसका निर्धारण किया ही जा सकता है कि वह अपनी ड्यूटी में कुछ समय लोकशांति के लिए ईमानदारी से काम करे। यह उसकी कार्यसंस्कृति का विषय होना चाहिए और जो इसे तय करते हैं, उनकी दृष्टि इस मामले में साफ होनी चाहिए।