पहले मल्टीप्लेक्स में शाम 6 से 9 के बीच मराठी फिल्म का प्रदर्शन अनिवार्य, उसके बाद किसी भी जनप्रतिनिधि के खिलाफ दिए गए बयान या लेख को राजद्रोह मानने का फरमान, फिर पर्यूषण पर्व के दौरान मांसाहार के विक्रय पर प्रतिबंध और अब आटो परमिट हासिल करने के लिए मराठी भाषा का ज्ञान अनिवार्य करना, महाराष्ट्र सरकार एक के बाद एक तानाशाही प्रवृत्ति भरे आदेश जारी करती जा रही है, उस पर तुर्रा यह कि वह लोकतांत्रिक सरकार है। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना की गठबंधन सरकार है। ïिशवसेना प्रारंभ से उग्र क्षेत्रवाद की राजनीति करती रही है और अब ऐसा लग रहा है कि भाजपा भी उसी राह पर चल पड़ी है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस युवा हैं, स्थानीय स्तर की राजनीति से आगे बढ़ते हुए वे इतनी बड़ी जिम्मेदारी संभालने के लिए चुने गए। उनसे अपेक्षा थी कि वे अपने शासन, प्रशासन में कुछ नवाचार दर्शाएंगे। किंतु उनकी रीति-नीति संकुचित, रूढिग़त मानसिकता से प्रभावित लगती है। मराठी हितों के नाम पर उनकी सरकार जिस तरीके से निर्णय ले रही है या योजनाएं बना रही है, उससे महाराष्ट्र और मराठियों का कितना भला होगा, यह तो पता नहीं, किंतु इतना तय है कि इससे अलगाव की भावना अवश्य बढ़ेगी। महाराष्ट्र शब्द से ही विराटता का अनुभव होता है और जिस तरह मुंबई, पुणे, नागपुर आदि शहरों में समूचे भारत के लोगों के लिए अवसरों की भरमार है, उससे यह विराटता उदार भाव के साथ सार्थक लगती है। आमची मुंबई का नारा बहुत पुराना है, लेकिन इस मायानगरी में रहने वाले, बाहर से आकर यहां भाग्य आजमाइश करने वाले इस बात को हमेशा महसूस करते हैं कि मुंबई वाकई उनकी है। यहां सबके लिए काम करने, रोजगार तलाशने, अपने सपनों को संवारने की गुंजाइश है। हिन्दी फिल्म उद्योग और टेलीविजन की दुनिया का बड़ा संसार यहां बसा है। यह देश की आर्थिक राजधानी है। पुणे, नागपुर आदि शहर भी बहुविध संस्कृति के धनी हैं। सागर की तरह विविध धाराओं को सहेजने, संभालने वाले महाराष्ट्र में संकुचित भावना के साथ सरकार चलाना दूरगामी हितों के लिए घातक साबित होगा। भारत जैसे देश में यह एक आदर्श स्थिति है कि आप जिस राज्य में रहें, वहां की संस्कृति, परंपराओं को समझें, वहां की भाषा का ज्ञान हासिल करें। शिक्षा में त्रिभाषा सिद्धांत इस आदर्श से ही प्रेरित था। नयी भाषा का ज्ञान फायदा ही देगा, लेकिन भाषा सीखने के लिए सरकारी जबरदस्ती की जाए, यह न्यायसंगत नहींहै। महाराष्ट्र में बहुत से व्यापारी, उद्योगपति, दुकानदार और दूध बेचने वाले, आटो, टैक्सी चलाने वाले बाहर के प्रदेशों से हैं। बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों के लिए ऐसे फरमान शायद ही जारी होते हों। वे मराठी या हिंदी सीखें न सीखें, कोई फर्क नहींपड़ता। उनका काम अंग्रेजी से चल जाता है। लेकिन छोटे समझे जाने वाले रोजगार में संलग्न लोगों के लिए ऐसे नियम-कानून बनाए जाते हैं, कि उनकी मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। आटो परमिट हासिल करने के लिए मराठी ज्ञान का फरमान ऐसा ही है। बाहर से आए बहुत से आटो चालकों ने कर्ज लेकर आटो खरीदा है और परमिट प्राप्त करने के इंतजार में है। ऐसे में महाराष्ट्र परिवहन विभाग द्वारा अक्टूबर में तय की गई परीक्षा से बहुत से लोगों की चिंताएं बढ़ गई हैं। जो इस परीक्षा में मराठी में उत्तीर्ण हो जाएंगे, नवंबर में उन्हें ही परमिट हासिल होगा। सरकार के इस फैसले की आलोचना विपक्षी दलों ने की है। लेकिन इससे ऐसे निर्णयों पर कितना असर पड़ेगा, कहा नहींजा सकता। फडऩवीस सरकार मराठियों का हित ही चाहती है तो सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों की सुध ले, जो आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। महाराष्ट्र में आटोचालकों के लिए मराठी जानने की अनिवार्यता का नियम होगा तो अन्य राज्यों में भी इस संकुचित मानसिकता से भरे निर्णय लेने का अंंदेशा रहेगा, फिर अलगाववाद की भावना जो भड़केगी, उसे संभालना कठिन होगा।