• यथास्थिति में कांग्रेस

    कांग्रेस पार्टी की कमान एक बार फिर सोनिया गांधी के हाथों में है। तमाम अटकलों को विराम देते हुए एआईसीसी की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि अभी वे एक साल और अध्यक्ष पद संभालेंगी। ...

    कांग्रेस पार्टी की कमान एक बार फिर सोनिया गांधी के हाथों में है। तमाम अटकलों को विराम देते हुए एआईसीसी की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि अभी वे एक साल और अध्यक्ष पद संभालेंगी। पिछले एक-डेढ़ साल में कई बार राहुल गांधी को मुख्य भूमिका में लाने की मांग उनके समर्थकों ने उठाई। कांग्रेस में युवा ब्रिगेड को और अधिक जिम्मेदारियां दी जाएं, इसके कारण गिनाए गए। लोकसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद ऐसी मांगों का उठना स्वाभाविक था। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष समेत पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता जानते हैं कि यह वक्त राहुल गांधी को कमान सौंपने के लिए मुनासिब नहींहै। पिछले दिनों उनकी राजनीति में आई आक्रामकता से सभी हैरान हैं। संसद सत्र में और बाहर भी जिस तरीके से वे भाजपा सरकार को घेर रहे हैं, उससे अब भाजपा चाह कर भी उनकी उपेक्षा नहींकर पा रही है। किंतु निरंतर अपना जनाधार खो रही कांग्रेस को संभालने के लिए राहुल गांधी की यह अल्पकालिक आक्रामक राजनैतिक शैली पर्याप्त नहींहै। अभी बहुत से मोर्चे हैं, जहां उन्हें अपनी काबिलियत साबित करनी है। बिहार चुनाव सामने हैं। यहां लालू-नीतीश के गठबंधन के साथ कांग्रेस भी खड़ी है और उसका मुकाबला भाजपा से है। भाजपा बिहार जीतने में अपनी सारी शक्ति लगा रही है, क्योंकि भविष्य के बहुत से सवालों के जवाब इस चुनाव के परिणाम से मिलेंंगे। अगर अभी कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन होता तो बिहार चुनाव में कांग्रेस की स्थिति की जिम्मेदारी सीधे-सीधे राहुल गांधी पर पड़ती। यह सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। ऐसे में सोनिया गांधी कोई खतरा मोल नहींउठाना चाहेंगी। कांग्रेस के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती राष्ट्रीय व प्रांतीय स्तर पर अपनी खोयी जमीन दोबारा हासिल करने की है। राहुल गांधी जिस तरीके से अभी काम कर रहे हैं, इसमें अगर वे कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने में कामयाब होते हैं और अपनी टीम मजबूत करते हैं, तो इसके अच्छे परिणाम देखने मिलेंगे। लेकिन यह काम वे अध्यक्ष पद पर बैठ कर शायद नहींकर सकेें, क्योंकि इसमें कई अप्रिय निर्णय लेने पड़ते हैं, पार्टी हित में कुछ नेताओं की नाराजगी मोल लेनी पड़ती है। कांग्रेस प्रांतीय स्तर पर बहुत सी गुटबाजियों में उलझी है, जो उसके पराभव का मुख्य कारण बना। इन गुटबाजियों का हल निकालकर राहुल गांधी अपनी नेतृत्व क्षमता की काबिलियत साबित कर सकते हैं। तीसरी चुनौती पार्टी में पुरानी पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी के द्वंवद्वंव को संभालना है। कुछ वर्ष पहले तक यह माना जाता था कि भाजपा सारी सत्ता पहली पंक्ति के नेताओं तक सीमित रखना चाहती है, और दूसरी पंक्ति को जिम्मेदारी नहींदे रही है, जबकि कांग्रेस के लिए यह प्लस प्वाइंट माना जाता था कि उसके पास दूसरी पंक्ति के नेता मजबूती से उभर रहे हैं। अब स्थिति उलट है। भाजपा ने पुरानी पीढ़ी को मार्गदर्शक बनाकर किनारे कर दिया है और दूसरी पंक्ति के नेता ही सब कुछ संभाल रहे हैं, जबकि कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के नेता जिम्मेदारी संभालने की अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं और फिलहाल सारा दारोमदार पिछली पीढ़ी पर ही है। देखना है कि कांग्रेस कब भाजपा से पीढ़ीगत मुकाबले की स्थिति में आती है। इस वक्त कांग्रेस अकेले विपक्ष की भूमिका नहींनिभा रही है, अन्य दल भी उसके साथ हैं। बल्कि बहुत से राज्यों में वह विपक्ष में है ही नहीं। ऐसे में भाजपा विरोधी दलों के साथ मिलकर चलने में सोनिया गांधी का धैर्य व अनुभव अधिक मायने रखता है, राहुल गांधी इसके लिए अपरिपक्व हैं, ऐसा राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है। इसलिए कांग्रेस के सामने चौथी चुनौती विपक्ष की एकता को बनाए रखने की है। पांचवी और बेहद महत्वपूर्ण चुनौती कांग्रेस में नवाचार, नए कार्यक्रमों, नई योजनाओं के साथ जनता के सामने आने की है। अब तक वह भाजपा के विरोध की राजनीति ही कर रही है। राहुल गांधी ललित मोदी कांड या भूमिअधिग्रहण पर सरकार को घेरकर जनता का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस के साथ जनता को तभी लाया जा सकता है, जब वह कांग्रेस की नई भूमिका रेखांकित कर पाएं। इसके लिए उन्हें वक्त चाहिए, शायद इसलिए सोनिया गांधी ने कुछ और वक्त तक कांग्रेस पार्टी संभालने का दायित्व लिया है। इन तमाम चुनौतियों का सामना राहुल गांधी जिस तरीके से करेंगे, उससे उनका और कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य निर्धारित होगा।

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