• स्वाभिमान बनाम परिवर्तन

    बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना, भाजपा और राजद-जदयू गठबंधन के लिए प्रतिष्ठा से ज्यादा जीवन-मरण का प्रश्न बनता जा रहा है। अब तक प्रचार के लिए जितनी भी रैलियां और सभाएं हुई हैं, और उसमें जिस तीखे तेवर के साथ विरोधियों पर हमला बोला गया है,...

    बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना, भाजपा और राजद-जदयू गठबंधन के लिए प्रतिष्ठा से ज्यादा जीवन-मरण का प्रश्न बनता जा रहा है। अब तक प्रचार के लिए जितनी भी रैलियां और सभाएं हुई हैं, और उसमें जिस तीखे तेवर के साथ विरोधियों पर हमला बोला गया है, कम से कम उसे देखकर तो ऐसा ही लगता है। एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठाए, तो दूसरी रैली में नीतीश कुमार ने बखूबी उसका जवाब दिया। बल्कि पटना के गांधी मैदान में आयोजित इस रैली का नाम ही स्वाभिमान रैली रखा गया, ताकि बिहार के लोगों के बीच डीएनए के नाम पर स्वाभिमान और अस्मिता का मुद्दा उठाया जा सके। इस रैली में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की उपस्थिति उल्लेखनीय है। भाजपा विरोधी ये तमाम शक्तियां एक साथ खड़ी हैं, क्योंकि बिहार की जीत से इनकी भावी राजनीति के बहुत से प्रश्नों का जवाब मिल सकेगा। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा के आगे जदयू, राजद और कांग्रेस सभी को बुरी तरह मात मिली थी। तब ये सब अलग-अलग भाजपा से लड़ रहे थे। लेकिन समय के साथ इन्हें समझ में आया कि अकेले-अकेले ये भाजपा का मुकाबला नहींकर सकते हैं, तो अपने निजी एजेंडे को पीछे छोड़ एक-दूसरे से हाथ मिलाने में इन्होंने गुरेज नहींकिया। इसमें कुछ गलत नहींहै। राजनीति में धुर विरोधी जरूरत पडऩे पर एक-दूसरे के साथ हो जाते हैं, फिर ये सभी दल धर्मनिरपेक्षता को महत्व देते हैं, सांप्रदायिकता विरोधी हैं, तो इनके एक साथ होने में क्या हर्ज है? लोकसभा चुनाव में हार के बाद ये दल हाशिए पर चले जाएंगे, जनता को ऐसा संदेश देने की कोशिश लगातार हुई। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तो कांग्रेस मुक्त भारत ऐसे जुमले का इस्तेमाल हर कहींकरने लगे थे। लेकिन पहले बजट सत्र और फिर मानसून सत्र में भूमि अधिग्रहण, ललित मोदी कांड, व्यापमं जैसे मुद्दों पर इन दलों ने भाजपा को बुरी तरह घेर कर बता दिया कि अभी वे हाशिए पर नहींहैं। बिहार चुनाव में ये तमाम दल एकत्रित होकर भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। कभी भाजपा के साथ गठबंधन में रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मोदी विरोधी तेवर काफी पहले से जनता के सामने हैं, अब उनके साथ लालू प्रसाद और सोनिया गांधी भी हैं। देखना है कि बिहार की जनता इस महागठबंधन को विधानसभा चुनावों में कितना वजन देती है। उधर भाजपा के सामने भी चुनौती कम नहींहै। लोकसभा में मिली जीत विधानसभा में जीत का पैमाना नहींहो सकती। राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों में काफी फर्क होता है। मोदीजी बिहार में जो रैलियां कर रहे हैं, उसमें भीड़ का जुटना स्वाभाविक है, लेकिन जीत की गारंटी इससे भी नहींमिलती। दरअसल अब जनता लगभग पौने दो साल का नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्रित्व काल देख चुकी है। काला धन वापस लाना, अच्छे दिन आने वाले हैं, ऐसे कई जुमले भी जनता के सामने अर्थहीन साबित हो चुके हैं। भाजपा का हनीमून पीरियड खत्म हो चुका है और अब उसके कामकाज की समीक्षा प्रारंभ हो गई है। हर बात नए अंदाज में कहने वाले मोदीजी किसी भी काम को नए अंदाज में पूरा नहींकर पाए, यह जनता देख चुकी है। जिस मोदी लहर का मिथक भाजपा ने खड़ा किया था, वह दिल्ली चुनाव में टूट चुका है। इसलिए बिहार की जीत आसान नहींहै, ऐसा भाजपा भी भीतर ही भीतर मानती होगी। यही कारण है कि हर रैली में मोदीजी का अंदाज पिछली बार से अधिक आक्रामक हो रहा है। भाजपा यह जानती है कि बिहार हारे तो अन्य राज्यों में भी जीतना कठिन होगा। बिहार के चुनाव देश की भावी राजनीति की दिशा निर्धारित करेंगे, ऐसा कहना शायद गलत नहींहोगा। स्वाभिमान और परिवर्तन में किसकी जीत होती है, यह देखना रोचक होगा।

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