अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर मौनी बाबा बन चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 11वींबार अपने मन की बात देश से की। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में यह बात तो समझ में आ गई कि वे केवल मन की बात ही नहींकरते, बल्कि वही करते भी हैं जो उनका मन करता है, और दूसरों की सुनने में उनकी खास दिलचस्पी नहींहै। लेकिन शायद राजनीति और सत्ता चलाने की मजबूरी ही थी कि जिस भूमि अधिग्रहण विधेयक को वे अपनी मर्जी से लागू करवाना चाहते थे और जिसके लिए उनकी सरकार अध्यादेश लाई थी, 31 अगस्त को उसकी समयसीमा समाप्त हो रही है, अब सरकार ने उसे आगे न बढ़ाने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार का मन खुला है और वह किसानों के हित के किसी भी सुझाव को स्वीकार करने तैयार हंै। हालांकि अपने अडिय़ल रूख से पलटते हुए भी प्रधानमंत्री इसका दोष विपक्षी कांग्रेस पर मढऩे से नहींचूके। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण पर बहुत भ्रम फैलाए गए, किसानों को भयभीत किया गया। भूमि अधिग्रहण पर प्रधानमंत्री का यह यू टर्न अब विपक्षियों के निशाने पर हैं। देर से तो आए, लेकिन कितने दुरुस्त आए, इसका पता कुछ समय बाद ही चलेगा। बेहतर होता प्रधानमंत्री संसद सत्र के दौरान ही किसानों के हित को समझते और फैसला लेते। जो बातें वे मन की बात में करते हैं, उसे संसद सत्र में करते तो उसकी महत्ता अलग होती। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कई नए प्रयोग किए, मन की बात भी उनमें से एक है। वर्तमान राजनीति में संवादहीनता की जो स्थिति बन गई थी, उससे लोकतंत्र का नुकसान हो रहा था। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा रेडियो के जरिए मन की बात करना लुभावनी पहल है। लेकिन अफसोस कि संवादहीनता की स्थिति अब भी नहींबदली है। प्रधानमंत्री ट्विटर पर, रेडियो कार्यक्रम में, रैलियों में चाहे जितनी बातें बोल लें, लेकिन संसद में अगर वे अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज नहींकराएंगे तो ऐसे संवाद या सही कहें तो एकालाप का कोई अर्थ नहींरह जाता। संसद के विगत सत्रों में जिस तरह व्यवधान उपस्थित हुआ और अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों को पाश्र्व में धकेलते हुए संसद का अमूल्य समय नष्ट किया गया, उसमेंंज्यादा दोष विपक्ष पर मढ़ा गया। पर गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने भी ऐसी कोई खास कोशिश नहींकी कि वे संसद में लगातार उपस्थित रहें और चर्चा का माहौल बनाएं। उन्हें अकेले बैठकर अपने मन की कहना शायद अधिक आसान लगता है।
इस बार मन की बात का संयोग रक्षाबंधन और ओणम के साथ बना तो देश की जनता को लगे हाथों इन पर्वों पर शुभकामनाएं मिल गईं। 1965 के युद्ध की विजय की वर्षगांठ थी, तो सभी संबंधितों को प्रधानमंत्री ने नमन किया। लेकिन समान रैंक, समान पेंशन के लिए आंदोलन कर रहे पूर्व सैनिकों को उन्होंने कोई सकारात्मक संदेश नहींदिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि जय जवान, जय किसान हमारे लिए महज नारा नहींहै। लेकिन लगभग पौने दो साल की उनकी सरकार में किसानों और सैन्य जवानों दोनों के साथ जो व्यवहार हुआ है, वह सबके सामने है। जनधन योजना के एक साल पूरे होने पर उसकी उपलब्धियां भी गिना दीं। लेकिन पौने 18 लाख खाते खुलने के बाद भी क्या जनता की आर्थिक स्थिति सुधरी है, इस पर वे शायद ही कुछ बोल पाएं। शेयर बाजार के लुढ़कने से कई निवेशकों को भारी नुकसान हुआ, रुपया डालर के मुकाबले गिरता ही जा रहा है, इन कठिन आर्थिक हालात पर भी नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता को कोई आश्वासन नहींदिया। प्याज की कीमत तेजी से बढ़ी, आयात की नौबत आ गई, ऐसी परिस्थितियां क्यों निर्मित हुईं और इनके निराकरण के लिए सरकार क्या सोच रही है, इस पर भी प्रधानमंत्री चुप रहे। गुजरात में हार्दिक पटेल की रैली, हिंसा, और फिर स्थिति पर नियंत्रण का जिक्र प्रधानमंत्री ने किया। लेकिन उनके आदर्श राज्य में ऐसे हालात बने ही क्यों, इस बारे में उन्होंने कुछ नहींकहा। शिशु मृत्युदर, बाल मृत्युदर, डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों के फैलाव का जिक्र उन्होंने किया, लोगों को बचने की नसीहत दी। लेकिन देश में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा को सुधारने के लिए सरकार क्या करेगी, इस बारे में उन्होंने कुछ नहींकहा। नासिक के महाजन बंधुओं द्वारा अमरीका में साइकिल रेस जीतने की उन्होंने बधाई दी, संडे आन साइकिल जैसे व्रत का उल्लेख किया। देश के करोड़ों लोग साइकिल पर ही चलते हैं, लेकिन आटोमोबाइल उद्योग किस तरह अपनी तेज रफ्तार में उनसे सुरक्षित चलने का हक भी छीन रहा है, यह बात प्रधानमंत्री शायद ही कभी बोलेंगे। कई विषय हैं, जिन पर प्रधानमंत्री की राय जनता जानना चाहती है, लेकिन वे वहींकहते हैं, जो उनका मन कहता है। आखिर यह उनके मन की बात है, देश के मन की नहीं।