• पलायन से नौनिहालों के हाल बेहाल

    भोपाल ! जब किसी सामान्य परिवार के सामने भी रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीने की चुनौती हो,तो यह सवाल खड़ा हो जाता है,...

    भाग- दो झाबुआ से लौटकर रूबी सरकार


    भोपाल !   जब किसी सामान्य परिवार के सामने भी रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीने की  चुनौती हो,तो यह सवाल खड़ा हो जाता है, कि वह कैसे अपने बच्चे को एक-दो नहीं, बल्कि पूरे 15 दिनों के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र ले जाये। इस मामले में झाबुआ के भील आदिवासियों की स्थिति तो और भी विकट है । जब स्थानीय स्तर पर रोजगार खाना और पानी न नसीब हो, तो ऐसे बच्चों को लेकर अपनी धरती से पलायन कर जाना उनके लिए अंतिम उपाय रह जाता है। बड़ी धामनी गांव (थांदला) के दिनेशगन सिंह के साथ भी यही हुआ। हालांकि वह अपनी अतिकुपोषित बच्ची प्रिया को बूढ़ी दादी के भरोसे घर पर छोडक़र अपनी पत्नी के साथ रोजगार के लिए निकले हैं। दिनेश की तरह थांदला विकास खण्ड के 80 फीसदी भील रोजगार के लिए तीन-तीन महीने पलायन  पर जाते हैं। तीन महीने बाद सिर्फ 15 दिन के लिए गांव आते हैं और फि र रोजगार के लिए पलायन करते हैं। यह एक अंतहीन सिलसिला है, जबकि महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून यह कहता है, कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला कोई भी व्यक्ति काम की मांग करता है, तो उसे काम की मांग के 15 दिन के भीतर काम दिया जायेगा। इस कानून में यह भी प्रावधान है, कि जिस कार्यस्थल पर 5 साल से कम उम्र के 5 या इससे अधिक बच्चे होंगे, वहां एक महिला को बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी दी जा सकेगी।  यह एक तरह से अस्थायी प्रारंभिक बाल देखरेख और विकास केंद्र बनाने का अवसर प्रदान करता है। इसके अलावा जहां भी महिलाएं काम करती हैं, वहां संबंधित प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी है, कि वह छोटे बच्चों की देखभाल की व्यवस्था करे। या फिर क्रेच योजना सार्वजनिक और वैधानिक प्रावधानों के जरिए क्रेच (झूलाघर) सेवा योजना के तहत 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को देखभाल और शिक्षा सेवाएं मुहैया कराती है। परंतु झाबुआ जिले में इन कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। थांदला रेलवे स्टेशन में मेघनगर विकास खण्ड के गुंदीपाड़ा गांव का रहने वाला भील कीमा 20 सालों से सूरत (गुजरात ) जिले के अलग-अलग स्थानों में निर्माण कार्य की मजदूरी करने जाता है। इस बार उसके साथ उसकी 13 साल की बेटी सुनीता भी है। उसने बताया, कि उसकी पत्नी मीरा भी मजदूरी के लिए उसके साथ जाती है, परंतु इस बार लडक़ों के लिए उसे गांव में रूकना पड़ा। कीमा के 4 बच्चे हैं , इनमें 2 बेटे और 2 बेटियां है। दोनों बेटे पढ़ाई करते हैं, जबकि बेटी सुनीता को स्कूल छुड़वाकर वे अपने साथ मजदूरी कराने ले जा रहे हैं। कीमा के पास एपीएल कार्ड है। उसे यही भी पता है, कि किसके इशारे पर यह सब हो रहा है। उसने बताया, कि नेता और अधिकारी मिलकर भोले-भाले आदिवासियों के साथ यह खेल खेलते हैं, जिससे उन्हें सरकारी सुविधाओं से वंचित रखा जा सके।  इसी तरह मेघनगर विकास खण्ड का पावगोई छोटी गांव का रहने वाला जामू अपने गांव की 20 महिलाओं को लेकर उज्जैन सोयाबीन काटने जा रहा था। इनमें से एक-दो महिलाएं तो गर्भवती थी, जबकि कुछ महिलाओं के गोद में छोटा बच्चा था।  थांदला रेलवे स्टेशन पर इस संवाददाता से बातचीत करते हुए उसने बताया, कि वह सालों से महिलाओं की टोली लेकर मजदूरी करने जा रहा है। वह इस दल का मुखिया है। उसने बताया, कि सभी महिलाओं के पति गांव में रहते हैं। भील समुदाय में महिलाओं का काम करना बुरा नहीं माना जाता। यह समुदाय खानाबदोश की जिंदगी जीता है, जिसमें उनके बच्चे भी खुले आसमान के नीचे खाते- खेलते हैं। बड़ी धामनी का सरपंच दीपक बर्नाड बिलवाल ने बताया, कि गांव में मनरेगा का काम ही नहीं निकलता। जून से सितम्बर तक तो बिल्कुल नहीं। ऊपर से मजदूरी भी बहुत कम है। इधर 7 रुपये बढ़ाकर 167 रुपये प्रतिदिन किया गया है, जबकि यही भील आदिवासी पलायन पर जाकर रोज ढाई सौ से तीन सौ रुपये प्रतिदिन  कमाते है और उन्हें रोज की मजदूरी तुरंत मिल जाती है। जबकि मनरेगा के भुगतान में महीनों इंतजार करना पड़ता हैं।भीलों के बीच एक शताब्दी से अधिक समय से काम कर रही मिशनरी संस्था के फ ादर एसवी भूरिया के मुताबिक बच्चों में कुपोषण खत्म करने के लिए  शिक्षा और रोजगार दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जहां तक बड़ी धामनी गांव की बात है, तो यहां 80 फ ीसदी भील शिक्षित है, लेकिन उन्हें रोजगार के लिए बाहर जाना पड़ता है। इसी गांव के भील बच्चे सीमा, सारिका और बंटी सीआरपीएफ में तकनीकी काम कर रहे हैं।

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