• कंधे पर शव और मजबूरी का बोझ

    ओडिशा के कालाहांडी के एक गांव का आदिवासी दाना माझी की पत्नी का भवानीपटना शहर के अस्पताल में देहांत हो जाता है। उसे टीबी थी, जो लाइलाज नहींहैं, लेकिन शायद उसे समय से और पर्याप्त इलाज नहींमिल पाया होगा।...

    ओडिशा के कालाहांडी के एक गांव का आदिवासी दाना माझी की पत्नी का भवानीपटना शहर के अस्पताल में देहांत हो जाता है। उसे टीबी थी, जो लाइलाज नहींहैं, लेकिन शायद उसे समय से और पर्याप्त इलाज नहींमिल पाया होगा। इस अत्यंत पिछड़े इलाके में टीबी, मलेरिया, डायरिया अक्सर जानलेवा ही साबित होते हैं, देश के बहुत से ग्रामीण इलाकों में भी हाल यही है। बहरहाल, अस्पताल से अपने गांव तक मृत पत्नी को ले जाने के लिए दाना माझी के पास धनराशि नहींथी और वह केवल मदद मांग सकता था। नवीन पटनायक सरकार ने ऐसे ही जरूरतमंदों के लिए महापरायणा योजना प्रारंभ की है, जिसमें मृतक को घर तक नि:शुल्क ले जाने की व्यवस्था सरकार करती है। माझी की मदद की मांग अनसुनी कर दी गई और मजबूरन उसे अपनी पत्नी के शव को कंधे पर ढोकर ले जाना पड़ा। उसका गांव 60 किलोमीटर दूर था और पत्नी के शव को उठाए-उठाए वह 12 किमी चल चुका था। साथ में 12 साल की उसकी बेटी रोते-रोते चल रही थी। कुछ लोगों का ध्यान इस ओर गया और बात जब पता चली तब जाकर माझी को मदद नसीब हो पाई। हिंदुस्तान में गरीब के लिए चिकित्सा सुविधा की यह एक तस्वीर है। एक दूसरी तस्वीर भी है, जिसमें पटना, एम्स के डाक्टर हाथ जोड़े प्रार्थना करते दिखाई दे रहे हैं। दरअसल यह डाक्टरी के छात्रों के लिए लगी संस्कृत की कक्षा है। यहां के छात्रों के लिए नौ महीने का संस्कृत का कोर्स चलाया जा रहा है और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से बाकायदा शिक्षक की नियुक्ति भी की गई है। हालांकि यह अनिवार्य विषय नहींहै, फिर भी इसे लेकर छात्रों के बीच हलचल नजर आ रही है। कुछ इसे अच्छी पहल मान रहे हैं तो कुछ का कहना है कि विदेशी भाषाएं सिखाना अधिक फायदेमंद होता, क्योंकि इनमें चिकित्सा विज्ञान का कहींज्यादा ज्ञान उपलब्ध है। संस्कृत की पढ़ाई करने वालों को परीक्षा के बाद सर्टिफिकेट भी मिलेगा। सीट उपलब्ध होने पर चिकित्सक और अन्य कर्मचारी भी संस्कृत की पढ़ाई कर पाएंगे। एम्स पटना के निदेशक डाक्टर गिरीश कुमार सिंह के मुताबिक़ यह कोर्स डाक्टरों के लिए बहुत उपयोगी है, वे कहते हैं, इस भाषा के ज्ञान से डाक्टर्स को ‘ह्यूमन बीईंग’ बनने में बड़ा लाभ होगा। आयुर्वेद और आयुष में ज्यादातर मैटेरियल संस्कृत में ही हैं। संस्कृत में मानसिक शान्ति पर भी बहुत साम्रगी उपलब्ध है। बेशक संस्कृत में बहुत सी जानकारियां मिलती हैं, लेकिन डाक्टरों को मानवता का पाठ पढ़ाने में संस्कृत की उपयोगिता कैसे साबित होगी, क्या अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं में इंसानियत की सीख नहींदी जा सकती? भारत में चिकित्सक का पेशा मानवता की सेवा और आजीविका का साधन नहींबल्कि रातोंरात कमाई करवाने वाला कारोबार हो गया है, यह सब जानते हैं। सरकार और समाज निरंतर देख रहे हैं कि कैसे चिकित्सा पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है और अब उद्योग में परिवर्तित हो चुका है। सरकार ने इस क्षेत्र से अपने हाथ जितने पीछे खींचे, उतना जनता का नुकसान होता गया। गांवों में हालात और बुरे हैं, वहां चिकित्सक जाना ही नहींचाहते, क्योंकि कमाई नहींहै। कभी-कभार राज्य व केेंद्र सरकारें गांवों में चिकित्सकों को भेजने के लिए प्रयोग करती रहती हैं, लेकिन उनका कोई व्यापक असर अब तक देखने नहींमिला। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले एमबीबीएस डॉक्टरों को राहत देते हुए आदेश दिया है कि पीजी कोर्स में 30 फीसदी तक अतिरिक्त अंक उन्हें दिये जा सकते हैं। दरअसल उप्र सरकार ने उन डॉक्टरों के लिए पीजी कोर्स में 30 फीसदी तक आरक्षण देने का निर्णय किया था जो ग्रामीण क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी और हाईकोर्ट ने फैसले को रद्द कर दिया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में प्रशांत शुक्ल समेत 21 डॉक्टर्स ने अपील की थी, जिसमें फैसला उनके पक्ष में आया है। गांवों में काम करने के बदले स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए उन्हें आरक्षण तो मिल जाएगा, लेकिन क्या इसके बाद ये डाक्टर गांवों में सेवाएं देना जारी रखेंगे, यह बड़ा सवाल है। ओडिशा की तरह की एक तस्वीर कुछ समय पहले झारखंड के किसी गांव से आई थी, जहां बेटी के इलाज के लिए उसके पिता को उसे गोद में उठाकर लंबा सफर तय करना पड़ता था। इलाज की सुविधा न मिलने के ऐसे कई दर्दनाक किस्से हर ओर बिखरे हैं, लेकिन इनसे समाज और सरकार का दिल नहींपसीजता, यह अधिक चिंताजनक है।

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