मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, और राजस्थान के कई इलाकों में बाढ़ की खबर सुर्खियों में है। पिछले साल यही वक्त था जब चेन्नई समेत तमिलनाडु के कई शहरों में बाढ़ की स्थितियों से शहरी प्रबंधन पानी-पानी हो गया था। चेन्नई के पहले भी देश के कई बड़े, आधुनिक कहलाने वाले शहर बाढ़ का शिकार हो चुके हैं। देश की राजधानी दिल्ली में तो एक बार की बारिश शहर की रफ्तार रोकने के लिए काफी है। अभी हाल ही में गगनचुंबी इमारतों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण इठलाने वाले गुडग़ांव में बारिश से क्या गुडग़ोबर हुआ, देश ने देखा, विदेशी निवेशकों ने भी देखा ही होगा। दिल्ली-मुंबई के हाल-चाल तो देश को मिल ही जाते हैं, लेकिन सतना, मुंगेर जैसे शहर तभी सुर्खियों में आते हैं, जब कोई बड़ी घटना हो जाए। इस बार घटना बारिश की है। उत्तराखंड में भूस्खलन की खबर है, उत्तरप्रदेश में इलाहाबाद शहर जलमय हो गया है, राजस्थान में कई शहरों में घरों तक पानी पहुंच गया है, बिहार में गंगा का जलस्तर इतना बढ़ गया है कि कई शहर पानी में डूब-उतर रहे हैं, पटना में कई रिहायशी इमारतों के तलघर में पानी भर गया है, मध्यप्रदेश में बारिश के कारण अब तक 8 लोगों की मौत हो गई है, सतना, रीवा, मैहर आदि कई स्थानों में बचाव के लिए एनडीआरएफ की टीम लगानी पड़ी। नरसिंहपुर में एक 50 साल पुरानी इमारत गिर गई, तो मैहर में मप्र गृहनिर्माण मंडल द्वारा नवनिर्मित इमारत गिर गई। कारण बताया गया कि पानी निकासी का इंतजाम नहींथा, जिसके कारण नींव पर दबाव बढ़ता गया। बाढ़ हो, अकाल हो या सुनामी हो, ये आपदाएं पहले भी आती रही हैं और आगे भी आएंगी। अब ये हमें तय करना है कि किस तरह इन आपदाओं को जानलेवा होने से बचाया जाए। नींव में पानी भरने से इमारत के गिरने में प्रकृति दोषी नहींहै, हम दोषी हैं। कायदे से शहरी प्रबंधन में जलनिकासी का दोषरहित इंतजाम होना चाहिए। हर साल सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के विदेश दौरे महज शहरी विकास के अध्ययन के लिए होते हैं। ये लोग सरकारी खर्च पर मौसम के अनुकूल चीन, जापान, अमरीका, सिंगापुर की यात्राएं कर के आते हैं। इसके बाद ये किस तरह की अध्ययन रिपोर्ट तैयार करते हैं, स्थिति सुधारने के लिए क्या सिफारिशें देते हैं, क्या ये भारतीय मौसम और मिजाज के अनुकूल होती हैं, इन पर कितना खर्च होता है, इन सबके बारे में कोई विस्तृत जानकारी नहींमिलती। भारत में तालाबों, कुओं, बावडिय़ों की परंपरा थी, जो बारिश का पानी सहजता से सहेज लेते थे, इनके कारण बाढ़ से भी बच जाते थे और सूखे से भी। इन्हें बनाने वाले विदेशों में अध्ययन यात्राओं पर नहींजाते थे, न ही अपने को कमतर मानते हुए विदेशी शहरों की तरह अपने शहर को बनाने का दावा करते थे। आज स्थिति उलट गई है, हम कहींशंघाई बनाना चाहते हैं, कहींक्योटो। यह नहींसोचते कि मुंबई और बनारस अपने नाम और पहचान के साथ ही खूबसूरत कैसे बने रहें। जहां तक सवाल प्राकृतिक आपदा का है तो चीन, जापान, अमरीका कोई भी इससे बच नहींपाया है। इस साल यहां से भी बाढ़ की खूब खबरें आई हैं। साल दर साल बाढ़ और सूखे के संकट झेलने के बावजूद कोई सबक न लेकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। प्रकृति के प्रकोप से बचने का सबसे आसान उपाय उससे तादात्म्य स्थापित करना है और हम ठीक उसका उलटा कर रहे हैं। सरकार ने तो विकास को ही हर मर्ज की दवा मान लिया है और वह चंद उद्योगपतियों और ऋण देने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को प्रसन्न करने के लिए सारी नीतियां, योजनाएं बनाती है। अगर कहींउद्योग लगने से जंगल को नुकसान होता है, तो तय मानिए कि इस नुकसान की कीमत पर सरकार उद्योग लगवाएगी। बांध बनवाना जरूरी न हो, तब भी उसके पक्ष में सारे कागजात तैयार करेगी। नदी को खतरे में डालकर भी धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक आयोजन करवाएगी और फिर जुर्माना वसूलने का दिखावा भी करेगी। विकास की उलटबांसी देखिए, हर साल हजारों पेड़ सडक़, पुल या इमारतें बनाने के लिए काट दिए जाते हैं और हर साल लाखों रुपए खर्च कर पौधारोपण कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। जब पता है कि पेड़ों के बिना जीवन संभव नहींहै, तो उन्हें काटने ही क्यों दिया जाता है? सरकारें अपनी स्वार्थसिद्धि में लगी हैं, कम से कम जनता को प्रकृति के लिए संवेदनशील होना चाहिए। अभी तो हम इस तरह उदासीन बने हैं, मानो हम दूसरे ग्रह के निवासी हैं। हमारे सामने जंगल काटे जाते हैं, बांध बनाने की लड़ाई चलती है, नदियों को जोडऩे-तोडऩे की राजनीति चलती है, कुछ लोग वर्षों से इसके खिलाफ संघर्षरत हैं और बहुसंख्यक जनता चुपचाप तमाशा देख रही है। यह उदासीनता अब टूटनी चाहिए, तभी प्राकृतिक प्रकोपों से बचा जा सकेगा। अपने कुओं, तालाबों, जलाशयों, जंगलों, नदियों का ख्याल हम अपने पुरखों की तरह रखेंगे तो प्रकृति का आशीर्वाद मिलता रहेगा।