कोहरे से ढँकी सडक़ पर बच्चे काम पर जा रहे हैंसुबह सुबहबच्चे काम पर जा रहे हैंहमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यहभयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जानालिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरहकाम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?राजेश जोशी की इस कविता का यह सवाल कि काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे, पहले से कहींअधिक भयावह रूप में देश के सामने खड़ा है, लेकिन शायद विकास की सुरक्षा के मद्देनजर संसद के भीतर इसे प्रवेश की इजा•ात नहींदी गई है। मंगलवार को संसद ने 14 साल से कम उम्र के बच्चों से श्रम कराने और 18 साल तक के किशोरों से खतरनाक क्षेत्रों में काम लेने पर रोक के प्रावधान वाले बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2016 को पारित कर दिया। लोकसभा में श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इसे ऐतिहासिक और मील का पत्थर बताया। उनके मुताबिक इसका मकसद बालश्रम को पूरी तरह से समाप्त करना है। इस विधेयक में 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए परिवार से जुड़े व्यवसाय को छोडक़र विभिन्न क्षेत्रों में काम करने पर पूर्ण रोक का प्रावधान किया गया है। इसे शिक्षा का अधिकार 2009 से भी जोड़ा गया है और बच्चे अपने स्कूल के समय के बाद पारिवारिक व्यवसाय में घरवालों की मदद कर सकते हैं। इस विधेयक में बालश्रम करवाने वालों पर सजा और जुर्माने में सख्ती भी बरती गई है। अगर ऐसे कानून से बच्चे श्रम की दासता से पूरी तरह मुक्त होते तो सचमुच इसे मंत्री महोदय के कथनानुसार ऐतिहासिक कहा जा सकता था। लेकिन सस्ते श्रमिकों के रूप में उपलब्ध बच्चों को आसानी से कैसे मुक्त किया जा सकता है? इसलिए इस विधेयक में जो किंतु-परन्तु हैं, उन पर चर्चा होना जरूरी है। यह खेदजनक है कि बच्चों से जुड़े एक महत्वपूर्ण विधेयक पर देशव्यापी चर्चा नहींहोती, जीएसटी, सातवां वेतन आयोग, पाकिस्तान की निंदा बच्चों से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। बहरहाल, बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2016 में गौर करने वाली बात यह है कि खतरनाक उद्योगों की संख्या घटा दी गई है। खदान, ज्वलनशील और विस्फोटक उद्योगों को ही खतरनाक माना गया है, तो क्या जरी, प्लास्टिक, कांच, कपड़े, कालीन उद्योगों या खेतों में कीटनाशक दवाओं और विभिन्न रसायनों के बीच काम करना बच्चों के लिए सुरक्षित है। क्या कूड़ा बीनना या ढोना उनके स्वास्थ्य के लिए सही है? विधेयक में 14 से 18 साल तक के बच्चों को ‘गैर खतरनाक’ यानी जिस काम में जान का कोई खतरा न हो, वहां मजदूरी करने की इजाजत है। यह भी कहा गया है कि कोई भी बच्चा किसी काम में नहीं लगाया जाएगा, पर जब बच्चा अपने परिवार या परिवार के रोजगार में मदद कर रहा हो, स्कूल के बाद के खाली समय में या छुट्टियों में और रोजगार खतरनाक नहीं है, तो यह कानून लागू नहीं होगा। बंडारू दत्तात्रेय की दलील है कि पारिवारिक कारोबार में मालिक-मजदूर का संबंध नहीं होता है। यह बड़ी सामान्य सी बात लगती है कि बच्चे घर के कामों में मदद करें। स्वयं प्रधानमंत्री कहते रहे हैं कि उन्होंने चाय बेची थी। लेकिन क्या स्कूल के बाद या छुट्टियों के वक्त काम करने से बच्चों के मनोरंजन के अधिकार का हनन नहींहोता? अगर वे काम करेंगे तो पढ़ेंगे कब और खेलेंगे कब? क्या उनके मानसिक विकास के लिए यह ठीक रहेगा? क्या उनके नाजुक शरीर पर किसी भी तरह के श्रम का बोझ लादना सही होगा? और यह कौन तय करेगा या इस बात की निगरानी करेगा कि बच्चा घरेलू कार्य या व्यवसाय में ही मदद कर रहा है? किसी की आजीविका सडक़ पर फूल या किताब या मोबाइल का चार्जर बेच कर ही चलती है, तो क्या उसके बच्चे को ट्रैफिक सिग्नलों पर यथावत सामान बेचने की इजाजत है? पारिवारिक व्यवसाय में बच्चों के सहयोग के पीछे दलील है कि इससे बच्चों को पैतृक व्यवसाय के गुण कम उम्र से सिखाए जा सकते हैं, लेकिन यह दरअसल जाति व्यवस्था को मजबूत करने की साजिश है। कोई बच्चा पैतृक व्यवसाय ही क्यों अपनाए? क्यों न उसे अच्छे से पढऩे-लिखने दिया जाए और फिर वह तय करे कि उसे किसान, बढ़ई, कुम्हार, नलसाज, इंजीनियर, डाक्टर या सैनिक बनना है। पारिवारिक व्यवसाय में बच्चों को संलग्न करने का अर्थ उद्योगों के लिए सस्ते श्रमिकों की व्यवस्था करना है, और इस बात की गारंटी भी कि इस देश से बालश्रम आसानी से खत्म नहींहोगा। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में चौदह वर्ष से कम उम्र के लगभग बारह करोड़ बाल मजदूर हैं, जो स्कूल जाने के बजाय पेट की भूख मिटाने के लिए कठोर श्रम करने को विवश हैं। गरीब घरों के, शोषित, उत्पीडि़त और घर से भागे या चुराए हुए बच्चे बाल श्रमिक के रूप में निषिद्ध क्षेत्रों में मजदूरी कर रहे हैं, इनकी संख्या लगातार बढ़ हो रही है। लेकिन इस गंभीर संकट पर संसद में विस्तार से चर्चा नहींहोती, और समाज का रवैया प्रारंभ से संवदेनहीन रहा है। अमीर घरों के बच्चे महंगे विद्यालय जाएं, फिर कोचिंग कक्षाओं में जाएं और शेष वक्त उनके मनोरंजन या आराम का होता है, लेकिन गरीब घरों के बच्चों के लिए ये तमाम सुविधाएं अपवाद की तरह हैं और आर्थिक विकास के आंकड़ों के साथ संपन्न हो रहे इस देश में गरीब बच्चे अपवाद की तरह जीवन बिता रहे हैं। कोई बच्चा इस गरीबी से जूझकर परीक्षा में अच्छे अंक ले आता है या कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करता है, तो उसकी प्रशंसा में यह जुमला जरूर जोड़ा जाता है कि तमाम संकटों से जूझते हुए उसने यह मुकाम हासिल किया। यह कोई नहींकहता कि एक बच्चे के जीवन में संकट क्यों विद्यमान रहे? उसका परिवार गरीब है तो क्या समाज और सरकार की जिम्मेदारी नहींबनती कि इस गरीबी को उसके भविष्य निर्माण में बाधक न बनने दिया जाए? क्यों बच्चे स्कूल की जगह सडक़ों, ढाबों, घरों, कारखानों में मजदूरी करते दिख रहे हैं? काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?