• 22 बच्चे रोजाना हो रहे गायब

    भोपाल ! राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के चिंताजनक आंकड़ों सामने आये हैं। जागरुकता बढऩे के बावजूद पिछले साल के दौरान मध्यप्रदेश में लगभग 8 हजार बच्चे लापता हुए हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं।...

    भोपाल  !   राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के चिंताजनक आंकड़ों सामने आये हैं। जागरुकता बढऩे के बावजूद पिछले साल के दौरान मध्यप्रदेश में लगभग 8 हजार  बच्चे लापता हुए हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। जबकि 2014 में हर दिन गायब होने वाले बच्चों की संख्या 19 थी। चाइल्ड राईट्स एण्ड यू -ब्त्ल् और इसके साझेदार हीफ ासेट  द्वारा दायर की गई एक आरटीआई से यह खुलासा हुआ है। जिसके परिणाम दर्शाते हैं ,कि 2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुकेे हैं। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार , 391 बच्चों में से 11 हजार, 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर जि़लों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। इसके अलावा लापता होने वाली लड़कियों की फीसदी लडक़ों की तुलना में अधिक है। इसी तरह 12-18 आयु वर्ग की लापता होने वाली लड़कियों की संख्या लडक़ों की तुलना में बहुत अधिक है। वहीं पलायन के अधिकतर मामलों में अधिकांश लड़कियों को ज़बरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है।  राज्य के इन्दौर जिला बच्चों के लिए सबसे ज़्यादा असुरक्षित है ,जहां 2010 के बाद 4 हजार से अधिक बच्चे लापता हो चुके हैं। इनमें 60 फीसदी लड़कियां  हैं। लापता होने वाले  बच्चे कई गम्भीर सामाजिक समस्याओं की ओर इशारा करते हैं, जैसे- बच्चों का अपहरण, तस्करी या घरेलू हिंसा या घोर गरीबी से बचने के लिए उनका घर से भाग जाना। इन बच्चों में गम्भीर और जघन्य अपराधों जैसे- बलात्कार, वैश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि का शिकार होने की सम्भावना बहुत अधिक होती है। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। मध्यप्रदेश में गरीब आदिवासी क्षेत्र के बच्चे इस दृष्टि से सबसे ज़्यादा संवेदनशील हैं। उन्हें अक्सर बेहतर नौकरियों के वादा करके बड़े शहरों का झांसा देकर फंसा लिया जाता है। समय के साथ परिवार अपने बच्चों से सम्पर्क पूरी तरह से खो देता है, अंत में ये बच्चे लापता बच्चों की सूची में आ जाते हैं।    पिछले साल केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार 2010-2014 के बीच पूरे देश से 3.85 लाख बच्चे लापता हुए। इसका तात्पर्य यह है कि हर साल देश में औसतन 77 हजार बच्चे लापता होते हैं। इनमें से 40 फीसदी बच्चों को सालों बाद भी खोजा नहीं जा सका। एक और चौंकाने वाला पहलू यह है, कि 2010-14 के बीच खोज कर घर वापस लाए जाने वाले बच्चों की संख्या 70 फीसदी से गिर कर 52 फ ीसदी पर आ गई है।    एक और खतरनाक आंकड़ा यह है, कि देश में लापता होने वाले 3.85 लाख बच्चों में से 61 फीसदी लड़कियां थीं। बहरहाल, तमाम पहल और कानूनों के लागू होने के बावजूद केन्द्र एवं राज्य सरकारें बच्चों के अपहरण, तस्करी के मामलों को रोकने में नाकाम रहीं हैं। बच्चों के लापता होने की शिकायत को आज भी गम्भीरता से नहीं लिया जाता, यह स्पष्ट रूप से बच्चों की सुरक्षा की अनदेखी को दर्शाता है जिसके वे हकदार हैं। हालांकि ऐसे चौंका देने वाले आंकड़ों को देखते हुए समय आ गया है कि हम सुनिश्चित करें कि हमारे बच्चे एक सुरक्षित वातावरण में रहें और किसी भी तरह की उपेक्षा, लापरवाही या कानूनी उदासीनता का शिकार न बनें।

    बच्चों को  तुरंत खोजना जरूरी   ‘‘यह गम्भीर चिंता का विषय है कि हर साल मध्यप्रदेेश से लापता होने वाले बच्चों की संख्या बढ़ रही है। बच्चे के लापता होने के बाद पहले कुछ घण्टे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर बच्चों को राज्य की सीमाएं पार करके जल्द से जल्द तस्करों के द्वारा पड़ौसी राज्यों में भेज दिया जाता है। इसके बाद अधिकार क्षेत्र के मुद्दों के चलते बच्चों को खोजने में और देरी होती है। अप्रभावी ट्रैकिंग प्रणाली और अपर्याप्त जानकारी के चलते इन बच्चों के वापस घर लौटने की सम्भावनाएं न्यूनतम हो जाती हैं।’’ दूसरी ओर ‘‘सरकारी विभागों, बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग जैसी संस्थाओं और पुलिस के बीच तालमेल बच्चों के खिलाफ अपराध को सीमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दुर्भाग्य से हमारी प्रणाली में इसी तरह के तालमेल का अभाव है, जो हमारे बच्चों के कल्याण के लिए घातक साबित हो रहा है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि नीतियों, योजनाओं और बजट आवंटन की दृष्टि से हमारे बच्चों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि बच्चों की सुरक्षा को समाज के सभी हितधारकों के लिए प्राथमिक एजेण्डा बनाया जा सके।’’   सोहा मोइत्रा, क्षेत्रीय निदेशक, ब्त्ल्


    काम दिलाने के नाम पर कई एजेंसियां सक्रिय छोटी लड़कियों को घरेलू कामों के लिए बहुत उपयोगी मानी जाती हैं। वे गरीबी के कारण कम वेतन पर काम करने को राजी हो जाती हैं, विरोध भी नहीं करती और कानून से भी अनभिज्ञ होती हैं। भोपाल में तीन दर्जन से अधिक एजेंसियां सक्रिय हैं, जो काम दिलाने के नाम पर महिलाओं से 100-100 रुपये ऐंठ रही हैं। इन एजेंसियों की भी जांच होनी चाहिए। क्या वे सचमुच काम दिला रहे हैं।। अक्सर ऐसी एजेंसियां ही काम दिलाने  के बहाने नाबालिक लड़कियों को इधर से उधर कर देती हैं। भोपाल में ही कई घरों पर नाबालिक लड़कियां घरों में काम करती हैं। इनमें से कुछ लड़कियां तो बाहर से लाई गई हैं और कुछ नाबालिग अवस्था में ही गर्भवती भी हो जाती हैं।    प्रार्थना मिश्रा, संगिनी

     

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