• लोकतंत्र के लिए जरूरी नेट न्यूट्रेलिटी

    इंटरनेट पर तटस्थता अर्थात नेट न्यूट्रेलिटी पर भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) का ताजा फैसला लोकतंत्र की मजबूती के लिए उठाया गया सशक्त कदम है।...

    इंटरनेट पर तटस्थता अर्थात नेट न्यूट्रेलिटी पर भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) का ताजा फैसला लोकतंत्र की मजबूती के लिए उठाया गया सशक्त कदम है। भारत में संचार क्रांति से विचारों का दु्रत गति से आदान-प्रदान संभव हुआ, लोगों को अभिव्यक्ति के नए अवसर मिले, लेकिन इसके साथ बड़ी चालाकी से उन अवसरों की लगाम अपने हाथों में रखने की कोशिश टेलीकाम सेवा प्रदाता कंपनियों ने की। इन कंपनियों ने अपने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए इंटरनेट सेवाओं को अलग-अलग कीमतों में देना शुरु कर दिया। इंटरनेट की कीमत आधारित उपलब्धता के पक्ष में फेसबुक और कुछ भारतीय कंपनियां रही हैं। फेसबुक की फ्री बेसिक्स और एयरटेल जीरो जैसी योजनाओं के लिए चाहे कितने भी तर्क क्यों न दिए जाएं, अंतत: इनसे उपभोक्ताओं के बीच भेदभाव को बढ़ावा मिलता, जिसके खिलाफ अब ट्राई का फैसला आया है। नेट न्यूट्रेलिटी का अर्थ है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा को एक जैसा दर्जा देंगी। कोई भी उपयोगकर्ता इंटरनेट को बिना किसी रोक या नियंत्रण के इस्तेमाल कर सके। इसके साथ यह किसी एक खास कंपनी द्वारा संचालित न हो। इंटरनेट को संचार यातायात का सबसे बड़ा साधन कहा जा सकता है। जिस तरह सड़क पर कार के माडल या कीमत के हिसाब से नियम लागू नहींहोते, बल्कि एक जैसे यातायात नियम सभी कारों पर लागू होते हैं, वही बर्ताव इंटरनेट के मार्ग पर भी होना चाहिए कि चाहे जिस कंपनी की सेवा ग्राहक ले, उसे एक जैसे नियमों से गुजरना होगा। फ्री बेसिक्स जैसी सेवाओं के विज्ञापन में करोड़ों खर्च कर यह समझाने की कोशिश की गई कि यह भारत के लाखों गरीबों को नि:शुल्क इंटरनेट सेवा देकर उन्हें डिजीटल तौर पर सशक्त बनाएगा। विचार अच्छा है, किंतु इसमें पेंच यह है कि इस सेवा के उपभोक्ता सीमित वेबसाइट्स को ही देख सकेेंगे। उन वेबसाइट्स को, जिनका फेसबुक के साथ करार है। इसके आगे इंटरनेट के विस्तृत आकाश में अगर वे विचरण करना चाहें तो उन्हें भुगतान करना होगा। जाहिर है नि:शुल्क सेवा का दावा सही नहींहै, साथ ही यह उपभोक्ता पर नियंत्रण रखने का औजार भी है कि वह क्या देखे और क्या नहीं। इंटरनेट उपभोक्ताओं में भारत का स्थान विश्व में तीसरे स्थान पर है। नई पीढ़ी ने तो इसे जीवन का अनिवार्य अंग बना ही लिया है, सरकारें भी ई-गवर्नेंस को बढ़ावा दे रही हैं, ताकि प्रशासनिक कार्य अधिक सुचारू ढंग से संपन्न हो। कई सार्वजनिक सेवाओं को इंटरनेट के द्वारा अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। ऐसे में नेट न्यूट्रेलिटी के बाधित होने से इन सेवाओं तक पहुंचने में भी व्यवधान उत्पन्न होने का अंदेशा बना रहता। नेट न्यूट्रेलिटी पर सवाल केवल भारत में नहींउठे, बल्कि अमरीका, यूरोप आदि में भी इन पर विवाद हुआ। अमरीका में सिविल सोसाइटी के दबाव के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा को घोषणा करनी पड़ी कि कुछ बड़ी कंपनियों द्वारा इंटरनेट सेवा प्रदाताओं से करार कर उपभोक्ताओं के साथ जो भेदभाव बरता जा रहा है, उसे सरकार रोकेगी। भारत में इस संबंध में कुछ भ्रम की स्थिति बनी, जिसका लाभ चंद बड़ी कंपनियों ने उठाना चाहा और सरकार ने भी पहले से अपना रूख स्पष्ट नहींकिया, जिससे भ्रम को बढ़ावा ही मिला। नेट न्यूट्रेलिटी के विरोध में तर्क देने वालों का कहना है कि इंटरनेट के मुक्त बाजार में सरकार को दखल नहींदेना चाहिए, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि महज मुक्त बाजार का अंग नहींहै, वह एक सार्वभौमिक मंच बन गया है, जिसके इस्तेमाल में भेदभाव नहींहोना चाहिए। ट्राई ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है, अब सरकार की जिम्मेदारी है कि वह देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के दबाव में आए बिना ट्राई के इस फैसले को ईमानदारी से लागू करवाए। डिजीटल इंडिया बनाने की राह में यह सबसे बड़ी कसौटी होगी।

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