निदा फाज़ली : श्रद्धांजलि
नई दिल्ली, 8 फरवरी। 'उसको रुखसत तो किया था, मुझे मालूम न था/सारा घर ले गया, घर छोड़ के जाने वाला।'
ये निदा फाज़ली के अल्फाज़ हैं, जो हम सबको रुखसत कर चले गए।
ज़िंदगी के हर मोड़ पर मिली तकलीफ को अल्फाज़ में पिरोने वाले और अपनी बातों को बेबाकी से कहने वाले उर्दू और हिंदी के नामचीन शायर मुख्तदा हसन निजा फाज़ली सोमवार (आठ फरवरी) को दुनिया को अलविदा कह गए।
निदा को अपनी शायरी के माध्यम से जीवन के हर पहलू की हकीकत को शब्दों में बयां करने में महारत हासिल थी।
शायरी के साथ ही यह उनकी जनमानस के अंतर्मन में झांकने की कारीगरी थी कि उन्होंने समाज के कोने-कोने में कदम जमाए रूढ़ियों, रीतियों तथा अंधविश्वासों के मकड़जाल को काटकर लोगों को मजहब और धर्म के असली मायने समझाने का भी प्रयास किया।
उनका एक शेर-
'घर से मस्जिद है बहुत दूर,
चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।'
उनके साफ मन और इंसानियत को बचाए रखने के लिए उनके मन की तड़प को बयां करता है।
दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में 12 अक्तूबर, 1938 को जन्मे निदा को शायरी विरासत में मिली थी। उनके पिता भी उर्दू के मशहूर शायर थे। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया, लेकिन निदा के तन-मन में भारत की मिट्टी की खुशबू इस कदर समाई थी कि उन्होंने भारत में ही रहने का फैसला किया।
उनके शायर बनने का किस्सा भी काफी दिलचस्प है। एक मंदिर के पास से गुजरते हुए फाजली को सूरदास का एक पद सुनाई दिया, जिसमें राधा और कृष्ण की जुदाई का वर्णन था। इस कविता को सुनकर वह इतने भावुक हो गए कि उनके कवि मन ने उन्हें उनके भविष्य की दिशा दिखा दी और उन्होंने उसी क्षण फैसला कर लिया कि वह कवि के रूप में अपनी पहचान बनाएंगे।
उनका प्रारंभिक जीवन ग्वालियर में गुजरा। ग्वालियर में रहते हुए उन्होंने उर्दू अदब में अपनी पहचान बना ली थी और बहुत जल्दी ही वे उर्दू के एक नामचीन कवि के रूप में पहचाने जाने लगे।
काम की तलाश में कम उम्र में ही निदा ने मुंबई का रुख कर लिया और 'ब्लिट्ज' और 'धर्मयुग' के लिए काम किया।
उर्दू में 'निदा' का अर्थ है 'आवाज' और निदा फाज़ली सचमुच उर्दू की एक अत्यंत लोकप्रिय, दमदार और दिल को छू लेने वाली आवाज थे।
उनकी नज्में, गजलें और उनके गीत संवेदनाओं और भावनाओं की धड़कन, तड़पन और ललकार लिए नजर आते हैं।
फाज़िला कश्मीर के एक इलाके का नाम है, जहां से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फाज़ली जोड़ा।
मीर और ग़ालिब की रचनाओं से प्रभावित निदा ने अपनी लेखनी को किसी बंधन में नहीं बांधा और अपनी लेखनी को अलग मुकाम दिया।
उन्होंने समाज के तानों-बानों और रिश्तों के खट्टे-मीठे, तीखे-कड़वे अनुभवों का जिक्र इस सरलता से किया है कि उनकी कही बात हर किसी के मन में गहराई तक असर कर जाती है।
फिल्म 'रजिया सुल्तान' के निर्माण के दौरान शायर जांनिसार अख्तर के निधन हो जाने के कारण फिल्मकार कमाल अमरोही ने उन्हें इस फिल्म के लिए गीत लिखने का मौका दिया और उन्होंने 'रजिया सुल्तान' के लिए पहला गाना - 'तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है' से अपने फिल्मी गीत लेखन के सफर की शुरुआत की।
इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों के लिए एक से बढ़कर एक उम्दा गीत लिखे, जिनमें फिल्म 'आहिस्ता-आहिस्ता' का मशहूर गीत 'तू इस तरह से मेरी जि़ंदगी में शामिल है', 'सरफरोश' के लिए 'होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है', 'रजिया सुल्तान' का 'आई जंजीर की झनकार खुदा खर करे' और 'सुर' के लिए 'आ भी जा' जैसे कई गीत उनकी शब्दों की जादूगरी की बानगी पेश करते हैं।
निदा फाज़ली की कविताओं का पहला संकलन 'लफ्जों का पुल' छपते ही उन्हें भारत और पाकिस्तान में अपार ख्याति मिली।
इससे पहले अपनी गद्य की किताब 'मुलाकातें' के लिए भी वे काफी चर्चित रह चुके थे। 'खोया हुआ सा कुछ' उनकी शायरी का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है, जिसके लिए 1999 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।
जिंदगी को खुली किताब की मानिंद पेश करने के पैरोकार निदा ने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जिसका पहला खंड 'दीवारों के बीच' और दूसरा खंड 'दीवारों के बाहर' बेहद लोकप्रिय हुए।
वर्ष 1998 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। वर्ष 2013 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया और सांप्रदायिक सद्भाव पर लेखन के लिए उन्हें 'राष्ट्रीय सद्भाव पुरस्कार' भी प्रदान किया गया।
ताउम्र अपनी शर्तों पर जिए निदा ने 78 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से उन्होंने अचानक कुछ इस तरह दुनिया से फुर्सत ले ली -
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं।
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।।