• आदिवासियों ने दिखाई राह : 9 लाख की जगह 85 हजार में बना डाला तालाब

    इंदौर ! हम पढ़े-लिखे लोग आमतौर पर आदिवासियों को अल्प शिक्षित या अशिक्षित मानकर सीखाने लगते हैं, लेकिन झाबुआ इलाके में आदिवासियों ने सरकार को आईना दिखाते हुए हलमा से तालाब बना डाला और अब छह गाँव के लोगों को इससे पानी मिल रहा है। बड़ी बात यह है कि सरकारी अधिकारियों ने इसे बनाने के लिए नौ लाख रूपये की लागत बताई थी पर ग्रामीणों ने इसे महज 85 हजार में ही पूरा कर दिया।...

    इंदौर !   हम पढ़े-लिखे लोग आमतौर पर आदिवासियों को अल्प शिक्षित या अशिक्षित मानकर सीखाने लगते हैं, लेकिन झाबुआ इलाके में आदिवासियों ने सरकार को आईना दिखाते हुए हलमा से तालाब बना डाला और अब छह गाँव के लोगों को इससे पानी मिल रहा है। बड़ी बात यह है कि सरकारी अधिकारियों ने इसे बनाने के लिए नौ लाख रूपये की लागत बताई थी पर ग्रामीणों ने इसे महज 85 हजार में ही पूरा कर दिया। आदिवासी समाज की सामजिक चेतना हमारे कथित सभ्य समाज से कहीं आगे की है. यह अलग बात है कि हमने कभी उन्हें इस नजरिए से देखा ही नहीं। बीते दिनों इंदौर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर झाबुआ जिले के बामनिया में पहाडिय़ों से घिरे छायन के मनोहारी तालाब में नीले पानी को ठाठे मारते देखा तो बरबस रुकने को मन कर आया। सोचा सरकार ने ही बनवाया होगा, पर जब ग्रामीणों से बात की तो एक ऐसी सच्चाई सामने आई कि तालाब बनाने वाले उन हजारों आदिवासी श्रमिकों को सलाम करने की इच्छा होती है। इस तालाब की कहानी शुरू होती है करीब सात-आठ साल पहले से। सवजी भाई बताते हैं कि तब इलाके में पानी की बहुत कमी आ गई थी। लोगों के पीने के पानी के साथं मवेशियों के पानी और दूसरी जरूरतों के लिए भी पानी नहीं बचा तो लोगों ने तालाब बनाने का सोचा। लोगों को लगा कि छायन गाँव के पास पहाडिय़ों के बीच व्यर्थ बहते बारिश का पानी रोककर तालाब बन जाए तो जल स्तर भी बढ़ेगा और पानी भी मिलेगा. पढ़े-लिखे लोगों ने आवेदन बनाए और देते रहे सरकारी अधिकारियों को. पंचायत ने भी यहाँ-वहां गुहार की। तब कहीं जाकर महीनों बाद सुनवाई हुई। अधिकारी तकनीकी कर्मचारियों को लेकर वहां पंहुचे। उन्होंने नाप-जोख की और बताया कि यहाँ तालाब बनाने पर नौ लाख रूपये खर्च होंगे। इतना पैसा न सरकार के पास था और न ही पंचायत के पास. लिहाजा बात आई-गई हो गई। लेकिन लोग हर साल परेशान हो रहे थे। ठंड का मौसम खत्म होते ही पानी की फिर किल्लत शुरू हो जाया करती। सुरसिंह बताते हैं कि हमने सोचा कि इस तरह तो बात बनेगी नहीं, हमने हलमा करने की सोची। हलमा आदिवासियों की एक ऐसी लोक परंपरा है जिसमें इस तरह के सामजिक कामों में आसपास के गांवों के हजारों लोग एक साथ श्रमदान करते हैं। इससे कुछ ही घंटों में बड़ी से बड़ी संरचनाएं तैयार हो जाती है। यहाँ भी ऐसा ही किया गया। छायन के अमरा वसुनिया ने इसके लिए अपनी निजी जमीन भी दे दी और देखते ही देखते यह तालाब बनकर तैयार हो गया। यह आसपास के अन्य सरकारी खर्च से बने तालाबों से भी तकनीकी तौर पर बेहतर है और इसमें लम्बे समय तक पानी बना रहता है. इससे सिंचाई भी हो रही है और आसपास का जल स्तर भी बढ़ गया है।


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