• अयोध्या से शुरु

    जब हिंदुस्तान में पूरी योजना के साथ अभियान चलाकर बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया और तमाम राजनेताओं ने इसका तमाशा देखा, तब ही तय हो गया था कि यह महज एक मस्जिद पर प्रहार नहींहै, बल्कि हमारे धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर करारी चोट है, जिससे समाज का ताना-बाना टूटना तय है।...

    जब हिंदुस्तान में पूरी योजना के साथ अभियान चलाकर बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया और तमाम राजनेताओं ने इसका तमाशा देखा, तब ही तय हो गया था कि यह महज एक मस्जिद पर प्रहार नहींहै, बल्कि हमारे धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर करारी चोट है, जिससे समाज का ताना-बाना टूटना तय है। राम मंदिर का नारा देने वाले जानते थे कि यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक अभियान है, जिसके तहत देश में दक्षिणापंथी ताकतों को मजबूत कर राजनीतिक हिंदुओं की ऐसी जमात बनाना है जो बाद में देश की सत्ता भाजपा को सौंपे, और ऐसा ही हुआ। अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने, लालकृष्ण आडवानी उपप्रधानमंत्री बने और दस साल बाद नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन राम मंदिर नहींबना और जब तक मामला न्यायालय में विचाराधीन है, तब तक बनेगा भी नहीं। लेकिन छह दिसंबर 1992 के बाद से मंदिर वहींबनाएंगे का नारा गूंजता ही रहा। इन वर्षों में अनेकता में एकता वाले भारत की कैसी दुर्दशा हुई, इसका जितना वर्णन किया जाए, कम है। धर्मों के बीच ही दूरियां नहींबढ़ीं, इंसान और इंसानियत के बीच का फासला भी बढ़ गया। राजनैतिक दलों में सत्ता पाने की ऐसी भूख कि गलत को गलत और सही को सही कहने से वे कतराने लगे। अल्पसंख्यकों के हितों की बात सब करते हैं, लेकिन यह कोई नहींकहता कि बाबरी मस्जिद गिराकर राम मंदिर बनाना गलत है। सभी हिंदू वोटों के छिन जाने से डरते हैं। बाबरी मस्जिद गिराकर निश्चित ही इस देश के मुसलमानों के साथ अन्याय हुआ था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्वहिंदू परिषद और उनकी सोच के सभी संगठन व व्यक्ति बार-बार यह कहते हैं कि जिन्हें धर्मनिरपेक्षता की बात करनी है, या हिंदू धर्म का दबदबा बर्दाश्त नहींकरना है, वे पाकिस्तान चले जाएं। वे शायद ही कभी ऐसा सोचते हों कि बंटवारे के बाद देश के सभी मुसलमानों के सामने पाकिस्तान जाने का रास्ता खुला था, वे वहां बहुसंख्यकों की जमात में शामिल होकर रह सकते थे। पर उन्होंने अपना देश यानी भारत छोडऩा मंजूर नहींकिया, भले ही यहां उन्हें अल्पसंख्यक बनकर, कई तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करके रहना पड़े। उनकी देशभक्ति सभी प्रश्नों से परे है। लेकिन बार-बार उनकी देशभक्ति को कटघरे में खड़ा किया जाता है, जबकि देश के साथ गद्दारी करने वालों का कोई धर्म नहींहोता। दाऊद इब्राहिम अगर भारत से भागा हुआ है, तो ललित मोदी भी फरार है। आतंकवाद और भ्रष्टाचार के ऐसे नमूनों को देशभक्ति की कौन सी श्रेणी में रखा जाए? बहरहाल, बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भी आरएसएस, विहिप और भाजपा का राजनैतिक मकसद पूरा नहींहुआ है। धर्मनिरपेक्ष की जगह पंथनिरपेक्ष शब्द अभी संविधान में नहींआया है। गांधी-नेहरू के नामों को भारतीय स्मृति से अभी पूरी तरह लोप नहींकिया जा सका है। सरदार पटेल और अंबेडकर के असल आदर्शों को भुलाने की साजिश अभी पूरी नहींहुई है और उनके नाम का राजनैतिक इस्तेमाल करने का लाभ भी पूरा नहींमिला है। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बड़ी खामोशी से काम हो रहा है। जैसे अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की सुगबुगाहट फिर शुरु हो गई है। लगभग दो लाख टन पत्थर मंदिर निर्माण के लिए चाहिए, जिसमें से 20 टन पत्थर दो दिन पहले अयोध्या पहुंचे हंै। विहिप के कारसेवकपुरम के प्रभारी शरद शर्मा का कहना है कि जैसे ही सरकार की ओर से आदेश मिलेगा, हम निर्माण कार्य शुरु करेंंगे। महंत नृत्यगोपाल दास कहते हैं कि मंदिर निर्माण का समय आ गया है। इस तरह की उद्घोषणाएं सेंत-मेंत में नहींहोती। इसके पीछे पूरा राजनैतिक सहयोग रहता है। जो पत्थर पहुंचे हैं, उनसे शिलापूजन की रस्म हो गई है। लेकिन इसे महज रस्मअदायगी समझना शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाने जैसा होगा। गनीमत है कि अयोध्या में अभी शांति है। लेकिन जो घटनाक्रम चल रहा है, उसमें अभी और भविष्य में भी समाज को सचेत रहने की जरूरत है। यह याद रखने की जरूरत है कि मंदिर निर्माण जैसे धर्मांधता से भरे नारे चुनाव के समय अधिक गूंजते हैं। लोकतंत्र में जनता केवल वोट देती है, जीतते राजनेता ही हैं।

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