• सरकारी मदद में गहरी राजनीति भी किसानों में आत्महत्या का बडा कारण

    नयी दिल्ली ! जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में होने वाले अप्रत्याशित बदलाव से फसल नुकसान के साथ ही सरकारी मदद में गहरी राजनीति भी किसानों में आत्महत्या का बडा कारण बन रही है। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था ‘सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवायरमेंट’ के एक ताजा अध्ययन में इसका खुलासा किया गया है।...

    नयी दिल्ली !  जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में होने वाले अप्रत्याशित बदलाव से फसल नुकसान के साथ ही सरकारी मदद में गहरी राजनीति भी किसानों में आत्महत्या का बडा कारण बन रही है। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था ‘सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवायरमेंट’ के एक ताजा अध्ययन में इसका खुलासा किया गया है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार मौसम अनुकूल नहीं रहने से बडे पैमाने पर फसल बर्बाद होने से तो किसान आत्महत्या करते ही आए हैं लेकिन इन विषम परिस्थितियों से निबटने के लिए पहुंचायी जाने वाली सरकारी मदद में होने वाली गहरी राजनीति भी इसका एक बडा कारण बन गयी है। रिपोर्ट के अनुसार देश के मात्र 20 फीसदी किसानों के पास बीमा सुरक्षा है। इस मामले में उत्तर प्रदेश का रिकार्ड सबसे खराब है। राज्य में महज 3.5 प्रतिशत किसान फसल बीमा सुरक्षा का विकल्प चुनते हैं। फसल नुकसान के आंकलन की पद्धति भी वैज्ञानिक नहीं है जिसके कारण इसके आधार पर दी जाने वाली मदद में गहरी राजनीति होती है। इसके उदाहरण चौंकाने वाले हैं। फसल नुकसान का शुरूआती मुआयना गांव का पटवारी सरसरी नजर से देख कर करता है ऐसे में इस आंकलन में कयी खामियां रहती हैं साथ ही भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी बढ जाती है। इसके अलावा खेतों में पट्टे पर काम करने वाले किसान और अनुबंधित श्रमिक किसी भी तरह के नुकसान की भरपायी वाली मदद के हकदार नहीं होते।


    सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने ‘फसल नुकसान,सहायता और मुआवजा’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में कहा कि फसल नुकसान के आंकलन की ऐसी अवैज्ञानिक पद्धति का खामियाजा किसानों को ही भुगतना पडता है। उनपर मौसम और आंकलन की ऐसी अवैज्ञानिक पद्धतियों के कारण दोहरी मार पडती है। इस मौके पर पेश रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि हर राज्य में नुकसान भरपाई के लिए अलग अलग रकम तय की गयी है। यह अंतर इतना ज्यादा है कि किसी को भी यह सुनकर हैरानी हो जाए। कुछ फसलों के लिए तो यह अंतर 13500 रूपए से लेकर 50 हजार रुपए तक है। ऐसे में जब बीमा राशि तय करने और उसकी प्रीमियम राशि के बारे में किसानो से पूछा जाता है तो वह यह नहीं बता पाते कि उनके क्षेत्र में किसी फसल के लिए क्या राशि निर्धारित की गयी है। सरकार के साथ ही बीमा कंपनियां भी इसके लिए दोषी हैं। उन्होंने फसल बीमा योजनाएं किसानों के अनुकूल नहीं बना रखीं। फसल नुकसान के 48 घंट के भीतर बीमा कंपनी को इसकी सूचना देने के प्रावधान से किसानों को काफी दिक्कत आती है लिहाजा कयी मामलों में बीमा राशि का भुगतान हो ही नहीं पाता। किसानों के लिए रिण की राशि पिछले पांच वर्षों में ढाई गुना बढाई जाने के बावजूद इसका लाभ छोटे और सीमांत किसानों को नहीं मिल रहा। ऐसे किसानों तक कुल रिण राशि का छह प्रतिशत से भी कम हिस्सा पहुंच रहा है जबकि ऐसे किसानों की संख्या देश के कुल किसान आबादी का 57.8 प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा राहत और मुआवजा देने के लिए अपनायी जाने वाली पद्धति की शुरुआत दरअसल ब्रिटिश हुकूमत ने 1863 में की थी। यह भी किसानों को राहत देने के लिए नहीं बल्कि लगान शुल्क से छूट के लिए की गयी थी। यह सोचने वाली बात है कि इतनी पुरानी पद्धति का अनुसरण आज तक हो रहा है। इस उदाहरणों के जरिए रिपोर्ट में फसल नुकसान पद्धति को तर्कसंगत और वैज्ञानिक बनाए जाने साथ ही फसल बीमा योजनाओं को सरल और किसानों के अनुकूल बनाए जाने के संबंध में सरकार को कयी तरह के सुझाव दिए गए हैं।

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