• अंधेरे भारत में मशाल

    भारत में केेंद्र की सत्ता जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने संभाली है, तब से व्यापक फलक पर यह महसूस किया जा रहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। अभिव्यक्ति के अधिकार को खतरनाक खामोशी भरी चुनौती मिल रही है। असहमति की आजादी कुतर्कों के बंधन में छटपटा रही है।...

    भारत में केेंद्र की सत्ता जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने संभाली है, तब से व्यापक फलक पर यह महसूस किया जा रहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। अभिव्यक्ति के अधिकार को खतरनाक खामोशी भरी चुनौती मिल रही है। असहमति की आजादी कुतर्कों के बंधन में छटपटा रही है। पानसरे और कालबुर्गी जैसे लोगों ने अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई और हिंदुत्व के तथाकथित रक्षक उनके जैसे अन्य लोगों को धमका रहे हैं कि अगली बारी आपकी हो सकती है। निश्चित ही यह समय भारत के लिए अंधेर भरा है। उदारता, मैत्रीभाव, विचारों की अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार में आस्था रखने वाले लोग व्यथित हैं कि किस तरह इस अंधेरे में मशाल जलाई जाए। सुप्रसिद्ध लेखिका नयनतारा सहगल और जाने-माने कवि अशोक बाजपेयी द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना उनकी इसी व्यथा, वेदना को प्रकट करता है। इससे पहले उपन्यासकार उदय प्रकाश भी यह कदम उठा चुके हैं। सुश्री सहगल विजयलक्ष्मी पंडित की पुत्री और नेहरूजी की भांजी हैं। उन्होंने आजादी के संघर्ष से लेकर आजादी के बाद भारत निर्माण को करीब से देखा है। वे यह महसूस करती हैं कि भारत में अंधविश्वास और हिंदुत्व के विकृत रूप पर सवाल उठाने वालों को या तो धमकाया जा रहा है, या उनकी हत्या हो रही है। लोगों का खानपान और जीवनशैली अपने हिसाब से तय करने की कोशिश हो रही है। ऐसे खतरनाक समय में प्रधानमंत्री खामोश हैं, जो तकलीफदेह है। इसलिए उन लोगों के लिए जो विरोध के अधिकार का उपयोग कर रहे हैं और वे जो भय और आतंक में जी रहे हैं, उन्होंने 1986 में मिले अपने पुरस्कार को लौटाने की घोषणा अनमेकिंग औफ इंडिया शीर्षक बयान के अंतर्गत की। श्री बाजपेयी ने भी कहा कि यही वह समय है जब कट्टरता के खिलाफ लोगों को एकजुट होकर आवाज उठानी चाहिए। हाल ही में विश्व हिंदी सम्मेलन में साहित्यकारों को दूर रखने पर उन्होंने कहा था कि सत्ताधारी दल (भाजपा) का समर्थन करने वाले महत्वपूर्ण लेखक हिंदी में नहीं हैं। ज्य़ादातर लोग उनके विरुद्ध हैं। कम से कम उनकी संकीर्णता, असहिष्णुता वगैरह के खि़लाफ़ हैं। पिछले 50-60 बरस का साहित्य इन व्यक्तियों के खि़लाफ़ है। इसलिए साहित्यकार और साहित्य को सोच-समझकर विश्व हिंदी सम्मेलन से दूर रखा गया होगा। क्या पता साहित्यकार ऐन वक़्त पर क्या कह दे? साहित्यकार जब राजनीति के लिए अविश्वसनीय हो जाए तो समझिए कि उसका नैतिक कद बढ़ गया। निश्चित ही नयनतारा सहगल और अशोक बाजपेयी ने अपना विरोध दर्ज कराने का जो उदाहरण पेश किया है, उससे साहित्यकारों की विश्वसनीयता और नैतिकता पर छाया कुहासा हटा है, साथ ही समाज के सामने मिसाल भी पेश हुई है कि रचनात्मक विरोध किस तरह से किया जाता है। सुप्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा की लंबी कविता मगध इस दौर में और प्रासंगिक लगती है। उसके कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं, जिससे वर्तमान स्थिति का बेहतर विश्लेषण किया जा सके-कोई छींकता तक नहीं, इस डर से, कि मगध की शांति, भंग न हो जाय,मगध को बनाए रखना है, तो, मगध में शांति रहनी ही चाहिएमगध है, तो शांति हैकोई चीखता तक नहीं, इस डर से, कि मगध की व्यवस्था में, दखल न पड़ जायमगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए, मगध में न रही, तो कहाँ रहेगी?क्या कहेंगे लोग?लोगों का क्या?लोग तो यह भी कहते हैं, मगध अब कहने को मगध है, रहने को नहींकोई टोकता तक नहीं, इस डर से, कि मगध मेंटोकने का रिवाज न बन जाय, एक बार शुरू होने परकहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप -वैसे तो मगधनिवासियो, कितना भी कतराओतुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से -जब कोई नहीं करता, तब नगर के बीच से गुजरता हुआमुर्दायह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है -मनुष्य क्यों मरता है?

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