• मन की बात से मुद्दे नदारद

    बिहार चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस समेत कुछ और विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रेडियो पर प्रसारित होने वाले मासिक कार्यक्रम मन की बात पर रोक लगाने की मांग चुनाव आयोग से की थी।...

    बिहार चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस समेत कुछ और विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रेडियो पर प्रसारित होने वाले मासिक कार्यक्रम मन की बात पर रोक लगाने की मांग चुनाव आयोग से की थी। आयोग ने इस मांग को खारिज कर दिया, इस तरह पूर्व निर्धारित मन की बात का प्रसारण रविवार 20 सितम्बर को हुआ। साल भर पहले श्री मोदी ने आकाशवाणी के जरिए अपने मन की बात जनता तक पहुंचाने की शुरुआत की थी। रविवार को उसकी 12वींकड़ी का प्रसारण हुआ। मोदीजी अपने मन की करने और मन की कहने के लिए जाने जाते हैं। इसलिए इस बात की उम्मीद थी कि उनके मन की बात इस बार भी बिना किसी व्यवधान के लोगों तक पहुंंचेगी। टीवी चैनलों पर 12 माह से एक जैसा दृश्य ही मन की बात के दौरान दिखाया जाता है। चाय की गुमटी, नुक्कड़, चौपाल, घरों-मोहल्लों में 15-20 लोग एक रेडियो सेट को घेर कर बैठे रहते हैं और मोदीजी के मन की बात को सुनते हैं। यह दृश्य देखकर गांवों-कस्बों के सांध्य दृश्य की तस्वीर आंखों के सामने उभरती है। जहां दिन भर की मेहनत-मजूरी के बाद किसी घने पेड़ के चबूतरे पर चौपाल लगाकर शाम को सब मिल बैठते और एक-दूसरे की बातें सुनते। जब भारत में दूरदर्शन की शुरुआत हुई थी, तब भी कुछ ऐसा ही दृश्य बनता था। एक टीवी सेट के सामने मुहल्ले भर के लोग जमा होते थे। आज जब हर हाथ में मोबाइल और उस पर बजता रेडियो है, तो क्या सचमुच लोग इसी तरह एक साथ बैठकर मन की बात सुनते होंगे? अगर सच में ऐसा है तो यह प्रसन्नता की बात है। कम से कम मोबाइल, इंटरनेट के कारण अपने में ही रमे लोग एक साथ तो बैठ रहे हैं। इस बार नरेन्द्र मोदी ने मन की बात में पिछली सभी बातों की समीक्षा की। जो कुछ कहा, वो क्यों कहा, इसका जिक्र किया और हमेशा की तरह चिर-परिचित अंदाज में कुछ उपदेशात्मक बातें कहीं। वैसे उनकी मन की बातों में उनके मन के उपदेश ही हावी रहते हैं। ज्वलंत समस्याएं, जनता जिन मुश्किलों से रोज दो-चार होती है, उस पर वे मौन रखना ही पसंद करते हैं। गैस पर सब्सिडी छोडऩा, सेल्फी विद डाटर इन्हें साइलेंट रिवोल्यूशन अर्थात मौन क्रांति की संज्ञा मोदीजी ने दी, वहींअपने स्वच्छता अभियान का महिमामंडन भी किया। साल भर हो गए, इस अभियान को प्रारंभ को हुआ। प्रधानमंत्री से लेकर केबिनेट के मंत्रियों, बड़े नेताओं, अधिकारियों, उद्योगपतियों, कलाकारों किस-किस ने झाड़ू नहींथामी, लेकिन हाय री भारत की गंदगी, साफ होती ही नहीं। प्रधानमंत्री इस बढ़ती गंदगी पर कुछ नहींबोले। डेंगू सबको डरा रहा है, लेकिन 56 इंच की छाती वाले हमारे सूरमा प्रधानमंत्री एक मच्छर से डरने वाले नहींहैं, इसलिए वे डेंगू के फैलाव पर कुछ नहींबोले। यहां तक कि सरकारी व निजी अस्पतालों की संवेदनहीनता, लापरवाही से जिनकी मौत हो गई, उस पर भी संवेदना प्रकट करना उन्होंने जरूरी नहींसमझा। 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती को ध्यान में रखकर उन्होंने खादी अपनाने की सलाह लोगों को दी। बुनकरों के भले के बारे में उन्होंने सोचा, अच्छा लगा। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में बुनकरों की क्या दशा है, किसी से छिपा नहींहै। अच्छा होता, थोड़ी सुध वे किसानों की भी ले लेते। देश में अनावृष्टि, सूखे से कई इलाकों में फसलें बरबाद हुई हैं, किसानों की आत्महत्या थम नहींरही है। मन की बात के जरिए वे उन्हें ढांढस बंधाते तो कुछ बात थी। पूरे देश में अनाज की कीमतें बढ़ रही हैं। दाल कई गुना महंगी हो गई है। लोग मजाक में कहने लगे हैं, घर की मुर्गी अब सचमुच दाल बराबर हो गई है। प्याज की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि अब सूखी रोटी के साथ नमक और प्याज खाना भी विलासिता समान हो गया है। नरेन्द्र मोदी इस पर भी कुछ नहींबोले। क्या उनके मन के किसी कोने को आम हिंदुस्तानी की ये तकलीफेें नहींछूती हैं? जिस दिन वे हिंदुस्तान के मन को समझेंगे, तब उनके मन की बात में थोड़ी गहराई लगेगी।

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