• हड़ताल का असर

    भारत में श्रम कानूनों में संशोधन के विरोध में 10 श्रमिक संगठनों द्वारा बुलाई गई एक दिवसीय हड़ताल का असर देश भर में देखने मिला, कहींकम तो कहींअधिक।...

    भारत में श्रम कानूनों में संशोधन के विरोध में 10 श्रमिक संगठनों द्वारा बुलाई गई एक दिवसीय हड़ताल का असर देश भर में देखने मिला, कहींकम तो कहींअधिक। भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ ने इस हड़ताल में हिस्सा नहींलिया, लेकिन बैंकिंग, उत्पादन, निर्माण और कोयला खनन जैसे क्षेत्रों से करीब 15 करोड़ लोग हड़ताल में शामिल हुए। फेरीवालों, घरेलू सफाई इत्यादि की नौकरियां करने वालों और दिहाड़ी पर काम करने वालों से भी हड़ताल का आह्वान किया गया। हड़ताल का असर मिला-जुला रहा, क्योंकि इसके कारणों से जनता का सीधा जुड़ाव नहीं है। श्रम कानून में सरकार किस तरह के बदलाव लाना चाहती है, कौन सी नई बातें जोडऩा चाहती है, मजदूर वर्ग इससे असहमत क्यों है, उद्योगपति और विदेशी निवेशक क्या चाहते हैं, ऐसे बहुत से प्रश्न जनता के बीच सीधे-सीधे पहुंचे ही नहींहैं। हड़ताल किसी महानायक की फिल्म तो नहींहोती, जिसका पहला शो ही सुपर-डुपर हिट हो जाता है। इसलिए इसके असर की समीक्षा करते हुए बहुत सारे पहलुओं पर एक साथ विचार करने की आïवश्यकता है। बुधवार की हड़ताल अनायास नहींहुई, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि काफी दिनों से तैयार हो रही थी। श्रम कानून में प्रस्तावित श्रमिक विरोधी संशोधन को वापस लेना, सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश व निजीकरण रोकना, सरकारी कंपनियों को बेचने और विफल फैक्टरियों को बंद करने का फैसला वापस लेना, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने समेत 12 मांगों को लेकर यह हड़ताल की गई। श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों और मंत्री समूह के बीच पहले बैठक भी हुई, जो बेनतीजा रही तो हड़ताल का मार्ग प्रशस्त हुआ। दरअसल हिंदुस्तान जब से उन्मुक्त पूंजी और बाजार के रास्ते चल पड़ा है, तब से कामगार वर्ग के लिए खतरे पहले से अधिक बढ़ गए हैं। यह नए पूंजीवाद का प्रताप ही है कि अब हंसिया और हथौड़ा थामे मजदूर ही नहीं, सूट-बूट पहन कर नौकरी करने वाले के अधिकार भी सुरक्षित नहींहै। उस पर तुर्रा यह है कि आप यह काम नहींकरेंगे तो हजारों और मिल जाएंंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में सांप नचाने वाले से लेकर माउस से खेलने वाले नौजवानों का जिक्र खूब करते रहे हैं। चाय बेचने से लेकर देश का नेता बनने की गौरवगाथा भी खूब कही गई। लेकिन जिस तेजी से उन्होंने देशी-विदेशी उद्योगपतियों के लिए लुभावनी योजनाएं प्रारंभ कीं, उसमें यह डर हमेशा व्याप्त रहा कि हमारी नयी पीढ़ी आत्मसम्मान का यह गौरव कब तक बचा कर रख पाएगी। क्योंकि मुनाफा कमाने वाला उद्योगपति अपने फायदे के लिए ही माउस चलाने देगा और अपने फायदे को देखकर ही किसी को आगे बढऩे देगा। प्रधानमंत्री ने प्रारंभ से अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए नई-नई योजनाओं को प्रारंभ किया। वे जिस देश में गए वहां उद्योगपतियों को संबोधित किया और उन्हें भारत आने का न्यौता दिया। मेक इन इंडिया के माध्यम से भारत के सस्ते श्रम की बाहरी उद्योगपतियों के आगे खुली नुमाइश की। भारत के श्रम कानूनों को लेकर जो थोड़ी बहुत चिंता और संदेह इन उद्योगपतियों को था, उसे सुधार कर मोदी सरकार उन्हें निश्चिंत करना चाहती है। यही श्रमिक संगठनों का सबसे बड़ा डर है। उन्हें लगता है कि मोदी सरकार श्रमिकों के शोषण का नया रास्ता खोल रही है, जो अकारण नहींहै। नियमित नौकरियां खत्म हो रही हैं और ठेके पर श्रम हासिल होने से मजदूरों का कैसा उत्पीडऩ, शोषण हो रहा है, यह किसी से छिपा नहींहै। सरकार ने इसका कोई व्यावहारिक हल नहींनिकाला और अब श्रम कानून में सुधार कर मजदूरों के शोषण का डर सरकार और बढ़ा रही है। सही है कि देश की मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए नित नया निवेश, आधुनिक तकनीकी संपन्न कारखानों का खुलना, दुनिया में भारत की अच्छी साख होना जरूरी है। लेकिन सबका साथ, सबका विकास तो सबसे ज्यादा जरूरी होना चाहिए ना।

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