• पूंजीवादी आर्थिक नीतियां महंगाई बढ़ाती ही हैं

    प्याज की महंगाई की बातचीत से शुरू हुई महंगाई की चर्चा अब देश के आर्थिक विमर्श का स्थाई भाव बन गई है। मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के तहत शेयर बाजार को आर्थिक विकास का पैमाना माना जाता है। ...

    प्याज की महंगाई की बातचीत से शुरू हुई महंगाई की चर्चा अब देश के आर्थिक विमर्श का स्थाई भाव बन गई है। मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के तहत शेयर बाजार को आर्थिक विकास का पैमाना माना जाता है। आज जो सरकार में हैं जब वे विपक्ष में थे तो जब भी शेयर बाजार में गिरावट आती थी, यह लोग सरकार के इस्तीफे मांगने लगते थे लेकिन पिछले कुछ दिनों से शेयर बाजार में हाहाकार मचा हुआ है और मौजूदा सरकार की समझ में ही नहीं आ रहा है कि गड़बड़ कहाँ हैं। आज भी सेंसेक्स में भारी गिरावट हुई। एक अनुमान के अनुसार यह इंडेक्स 22000 तक जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो भारी आर्थिक नुकसान होगा और उसका असर चारों तरफ दिखेगा। हालांकि सरकार की ओर से कहा जाता है कि सारी दुनिया में महंगाई है लेकिन यह सच नहीं है। भारत इकलौता ऐसा विकासशील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं...पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है। कच्चे तेल की कीमत घट रही है। लेकिन अपने यहाँ महंगाई रही है। यह सत्ताधारी पार्टी की असफलता का सबूत है... खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रही हैं उसके लिए बड़ी कंपनियां जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीजो के बाजार में हैं... खराब फसल की वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताकत है। उनके पैसे से चुनाव लडऩे वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें। जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमोकरम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा। आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्त दिखाएं और कालाबाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलायें। सच्ची बात यह है कि जब बाजार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढऩे पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है। एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है। अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं। करोड़ों रुपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिए यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें। इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है। किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मजे ले रहा है। किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक के बाद एक हिस्सा वह हड़प रहा है। और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है। वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी। इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े। उसके लिए उसे मैदान लेना पड़ेगा और सरकार की पूंजीपतिपरस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा। महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक्त दी थी जब उन्होंने आजादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नजर अंदाज कर दिया था। गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गांवों को रखा जाएगा। उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था। आज की तरह ही गांवों में उन दिनों भी गरीबी थी। गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को खत्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके। अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्मनिर्भर भी हो जायेंगे और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र, शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते, तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आजादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी। मंहगाई की राजनीति की शुरुआत 1991 में पी. वी. नरसिंह राव की सरकार के साथ शुरू हो गई थी। आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया। बाद की सरकारें उसी सोच को आगे बढ़ाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं। तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताकतवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है।

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