• राष्ट्र भाषा से ही देश बनता है विकसित

    उदारीकरण भाषा, चिन्तन, संस्कृति और अन्तत: समाज को भी प्रभावित करता है। जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं जिस पर वैश्विक परिस्थितियों का कोई ना कोई प्रभाव न पड़े। किसी देश के विकास संबंधी अनेक कारक होते हैं। इसमें भाषा का विशेष महत्व है। राष्ट्रभाषा को महत्व दिए बिना समग्र विकास संभव नहीं होता। ऐसे देश कभी विकसित देशों की श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते।...

    उदारीकरण भाषा, चिन्तन, संस्कृति और अन्तत: समाज को भी प्रभावित करता है। जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं जिस पर वैश्विक परिस्थितियों का कोई ना कोई प्रभाव न पड़े। किसी देश के विकास संबंधी अनेक कारक होते हैं। इसमें भाषा का विशेष महत्व है। राष्ट्रभाषा को महत्व दिए बिना समग्र विकास संभव नहीं होता। ऐसे देश कभी विकसित देशों की श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते।

    भाषाई आधार पर विश्व को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक वह जो अपनी भाषा को ही महत्व देते हैं। उनका निशाना अपनी भाषा में होता है। ऐसे देश विकसित देशों में शामिल हो चुके हैं। दूसरे वह देश है, जिन्होंने अपनी भाषा को उचित महत्व नहीं दिया। उन्होंने विदेशी भाषा को ऊंचा स्थान दिया। ऐसे देश विकासशील या अविकसित रह गए। ब्रिटेन के उपनिवेश रहे देशों ने अंग्रेजी को वरीयता दी। यहां अंग्रेजी को श्रेष्ठता का प्रतीक मान लिया गया।

    दुनिया का कोई धर्म ग्रंथ अंग्रेजी में नहीं है, दर्शन, कला, संस्कृति की कोई मूल किताब अंग्रेजी में नहीं है। मतलब इसमें विशेष कालखण्ड के अन्तर्गत मूल ज्ञान को लिपिबद्ध करने की क्षमता नहीं थी। आज विश्व का कोई ग्रंथ ऐसा नहीं जो अंग्रेजी में न हो। इस तरह अंग्रेजी फर्श से अर्स पर पहुंची। 

    प्राचीन अद्भुत वैदिक साहित्य संस्कृत में है, विश्व के प्राचीनतम दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान आदि सभी के मूलग्रंथ संस्कृत में है। लेकिन हम संस्कृत और उससे उत्पन्न हुई भारतीय भाषाओं को महत्व नहीं दे सके जब तक हमने अपनी राष्ट्र भाषा को शीर्ष पर रखा भारत विश्व गुरु था। आज अंग्रेजी उच्च पदों पर पहुंचने के लिये अनिवार्य हो गयी। इस स्थिति को बदलना होगा, तभी देश स्वाभिमान होगा तथा उसे विकसित देशों की सूची में स्थान दिखाना संभव होगा। अंग्रेजी सीखने में विद्यार्थी की चालीस प्रतिशत क्षमता व्यर्थ हो जाती है। इसे रोकना होगा।

    राजभाषा आयोग के तहत भाषा निदेशालय का गठन किया गया था। विभिन्न विषयों में अंग्रेजी की जगह हिन्दी शब्द रखने का काम इन्हें करना था। लेकिन इस कार्य में लगे विद्वानों ने इतना कठिन अनुवाद कर दिया कि वह शब्द प्रचलन में आ ही नहीं सके। किसी भी कार्यालय में इन शब्दों का प्रयोग ही नहीं किया जाता। इस प्रकार के प्रयासों ने हिन्दी का अहित किया है। जबकि हिन्दी बहुत उदार भाषा है। समय के अनुसार इसमें अनेक भाषाओं के शब्द समाहित हुए। ये आज पूरी तरह प्रचलित है। 


    अंग्रेजी में भी दूसरी भाषाओं के खूब शब्द हैं। हिन्दी को कठिन नहीं सरल स्वरूप में बनाए रखना है। राष्ट्रभाषा के प्रति गौरव होना चाहिए। लेकिन इसके लिये प्रयास करने होंगे। नौकरी, व्यवसाय आईटी क्षेत्र में भारतीय युवकों की भागीदारी पर हम गर्व करते हैं। लेकिन आईटी क्षेत्र का कोई भी बिन्दु भारत के कारण नहीं पहचाना जाता। हम आज तक केवल सेवा प्रदाता बने हैं। क्योंकि इसमें योग्य होने के लिये अंग्रेजी लगभग अनिवार्य है। सभी साफ्टवेयर उसी में हैं। उसे सीख कर हम अपने को काबिल मानने लगे हैं। जबकि विकसित देश हमको आईटी का गिरमिटया मानते हैं। क्योंकि हम भारतीय गौरव के अनुरूप आईटी में राष्ट्रभाषा को मजबूती से स्थापित नहीं कर सके।

    विकसित देशों में चीन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, रूस के उदाहरण सामने हैं। ये देश अपनी मातृभाषा के बल पर विकसित हुए हैं। वहीं ब्रिटेन और अमेरिका अंग्रेजी मातृभाषा के बल पर विकसित बने हैं। चीन में सत्तर भषाएं हैं। भाषाई विविधता भारत से अधिक है। लेकिन चीन ने गोन्ताऊ को मानक लिपि बना दी। बिना कठिनाई के लोग इसे सीख सकते थे। इसी को अनिवार्य बना दिया गया। भाषा सीखने में वहां के बच्चों को कठिनाई नहीं होती। पूरी क्षमता देश के विकास में लगती है। दूसरी तरफ भारत में अंग्रेजी सीखने में भारत के विद्यार्थी को चालीस प्रतिशत क्षमता खपा देनी होती है।

    कोई शब्द कठिन या सरल नहीं होता। जिन शब्दों से परिचय की प्रगाढ़ता होती है, वह सरल हो जाता है। राष्ट्रभाषा, मातृभाषा से जन्मजात प्रगाढ़ता होती है। जबकि राजभाषा शासन की कृपा पर निर्भर होती है। राजभाषा का क्रियान्वयन संविधान में उल्लिखित है। संविधान के अनुच्छेद तीन सौ इक्यावन में राजभाषा के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सरकार को सौंपी गयी। यह संवैधानिक कर्तव्य है। लेकिन इसके उल्लंघन पर कोई सजा नहीं होती। धड़ल्ले से राजभाषा को महत्वहीन बना दिया गया। कार्य अंग्रेजी में होता है। वर्ष में एक पखवारा राजभाषा के नाम कर दिया गया। इसी को हम अपना कर्तव्य मान लेते हैं। विडम्बना यह कि इस पखवारे में भी राजभाषा को कामकाज की भाषा बनाने का कारगर प्रयास नहीं किया जाता।

    संविधान में भारतीय अंकों को वैश्विक रूप को महत्व दिया गया। राज्यपाल और न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति देवनागरी में लिखे अंकों का प्रयोग करते है। अन्य में वैश्विक रूप को अपनाया गया। यहां यह समझना होगा कि संविधान ने जिन अंकों को स्वीकार किया वह रोमन नहीं है। (आईएएनएस/आईपीएन)। 

अपनी राय दें